धारावाहिक – 10

शूटिंग के बाद थक कर आ बैठे थे हम दोनों ।

‘चलो , कहीं दूर चल कर …दो पंछियों की तरह …एक डाल पर बैठ कर किलोल करेंगे । दुनिया से बे-खबर , दूर …बहुत दूर …इन फरेबी लोगों से । हम दोनों …..एक डाल पर बैठे …चौंच से चौंच लड़ाते ….डैनों से एक दूसरे को मारते ….गाते-गरियाते …दोनों दूर …कहीं दूर की सैर पर निकलते ही चले जाएंगे , नेहा ।’

‘कहॉं जाएंगे , डियर ?’ नेहा की आँखों में स्नेह उमड़ आया था ।

‘मंजिल को अभी से नाम नहीं देते , नेहा। उड़ते हैं …..भागते हैं ….। हर दिशा में ….हर देश में ….हर मौसम में ….और हर-हर हाल में भागते हैं । देख तो लें …..अपनी उड़ान ? तोलें न अपनी सामर्थ्य ?’

‘तुम्हारी सामर्थ्य तो मैं जानती हूँ ।’ नेहा के स्वर शहद में पगे थे । ‘मैं जानती हूँ , तुम्हें मेरे भरतार कि तुम …..श्रेष्ठ हो …महान हो …बे-जोड़ हो ….। मैं मान गई हूँ कि तुम जैसा कलाकार …और कोई नहीं । मैंने देखा है तुम्हें – संवाद संप्रेषित करते …..भाव-भावनाओं को उकेरते ….और ऑंखों से संवाद बोलते । ओह। वंडरफुल । ला-जबाव ।।’

‘ये तुम्हारा ही किया करिश्मा है , नेहा ।’ कहते हुए तुमने मुझे आगोश में खींचा था । ‘यह सब तुम्हारी वजह से हुआ है। सच । मैं तो जैसे सो रहा था। मैं तो अपने आप को जैसे भूला हुआ था । मैं तो जैसे ….गांव का एक गंवार ….यूं ही मुम्बई चला आया था । लेकिन जैसे ही तुम से मिला …मैं जाग गया । तुमने ही चैतन्य किया मुझे , नेहा ।’

‘सच ?’

‘सच, नेहा। मैंने तुम से पहले कभी किसी लड़की को नहीं छूआ था । माने कि उस लगाव से जिस से तुम्हें छूआ था। न जाने क्या हुआ था , मुझे ? न जाने कैसे मैं उठा था….ऑंखें खोलीं थीं ….और मुड़ कर तुम्हें देखा था । तुम्हारे हुस्न को परखा था और तुम्हारी हँसी में झांका था । और लगा था …..मैं …मैं ..जैसे अपनी मंजिल पा गया था ।’

‘झूठ तो नहीं बोल रहे हो ?’

‘मैं झूठ नहीं बोलता , तुम जानती हो ।’

‘हॉं । हॉं । तुम झूठ नहीं बोलते हो । लेकिन विक्रांत …यहॉं तो सब झूठ बोलते हैं ? यहॉं तो सब मक्कार हैं । और वो खुड़ैल तो महा -बेहूदा है ? वो कोई महान-वहान नहीं है । महा चालू है । मैं …मैं …उसे जानती हूँ , विक्रांत ।’

‘मैं तो तुम्हें ही जानता हूँ , नेहा ।’ वह कह रह था। ‘जमाने से क्या ? चलो, उड़ चलें वहां ….जहॉं हमें पनाह मिले …हमारे स्वर्ग मिलें , हमें ? फिर उस एकांत को भोगेंगे ….साथ-साथ । पानी पर लिखेंगे …रेत पर घर बनायेंगे …और हवा पर चलेंगे …?’

और फिर वह दोनों साथ-साथ उड़ रहे थे । उन दोनों के बीच कोई न था । और …और… न कोई रिश्ता और न कोई शर्त । न अपना ….न तेरा। सौगंध से ले कर सुगन्ध तक ….उन दोनों के बीच बसता ही कुछ न था ।

‘कैसा लग रहा है , नेहा ?’ विक्रांत उड़ते-उड़ते पूछ बैठा था ।

‘सुपर्व ।’ नेहा कह रही थी । ‘जैसे कि कोई ठंडी बयार का झौंका…या कि …गरम-गरम सूर्योदय । एक अलग-सा ही कुछ है , विक्रांत ….जो ….’ नेहा ने विक्रांत को टटोला था। ‘एक अनाम-सा अनुभव है । बेजोड़-सा कोई आनंद । उजास जैसा ही उड़ता कुछ …..’

‘मुझे कहॉं संभालोगी ….?’

‘दिल में ….। यहॉं ….।’ नेहा ने विक्रांत का हाथ अपने दिल पर धरा था। ‘ताकि …कोई चुरा न ले …।’ वह जोरों से हँसी थी ।

‘इस तरह का ताला डाल दो…ताकि …’ नेहा को अपनी बाँहों में कसते हुए विक्रांत ने सुझाव दिया था ।

तभी ….हॉं , तभी भूरो ने आ कर हवा को हिला दिया था और सारा संसार सिमिट गया था ।

‘तुम्हें लीगल में बुलाया है । कोई वकील आया है ।’ भूरो ने सूचना दी थी ।

नींद से उठी हो , नेहा – वह बमक पड़ी थी । कौन होगा – वह अनुमान लगा रही थी । मैंने तो किसी वकील को नहीं बुलाया – वह स्वयं से प्रश्न पूछ रही थी । क्या पूछेगा ? अनेकानेक प्रश्न ….। नेहा डर गई थी ।

‘कल के लिये बेल लगी है ।’ वकील बता रहा था । ‘और आप बीमार हैं । जज पूछता है ….तो बताना कि आप ने तीन दिन से खाना नहीं खाया है ।’ वह तनिक मुसकराया था ।

‘झूठ कब तक चलेगा ?’ नेहा ने पूछा था ।

‘अब तो झूठ ही चलेगा ।’ वकील भी स्पष्ट ही बोला था । ‘यहॉं हरिश्चंद्र कोई नहीं है ।’ वह हँस गया था ।

लेकिन ….लेकिन …नेहा तो जानती थी – एक बहुत अपने हरिश्चंद्र को …?

‘कितनी पागल निकली मैं , बाबू …?’ नेहा विलाप करने लगी थी । ‘कब-कब मिलता है – ऐसा मन-मीत …? कहॉं मिलता है किसी को हरिश्चंद्र ? कहॉं पाता है कोई इतना निश्छल प्रेम ? लेकिन मुझे देखो ….?’ आंख उठा कर आसमान को देखा था , नेहा ने । ‘मार डाला – अपने हरिश्चंद्र को ….?’ करुण स्वर था , नेहा का । ‘सॉरी , बाबू …….’ वह डकराने लगी थी ।

क्रमशः –

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