धारावाहिक- 24
जैसे मैं कोई तीर्थ थी….कोई अजूबा थी …अज्ञात थी ….या थी कोई पहेली – जिसे हर कोई समझ ने की कोशिश में लगा था ….और जान लेना चाहता था कि ….मैं आखिर माजरा क्या थी ?
कल बेल पर गई थी …..और आज जेल में लौट आई थी ।
असाधारण जैसा कुछ था तो जरूर । अब सब की जिज्ञासा भी तो जाग चुकी थी। मैं अब एक घटना थी – जो थी एक बेहद स्मार्ट औरत ….एक विश्व सुन्दरी ….एक बेजोड़ अभिनेत्री …..और पूर्ण सामर्थवान-सा एक शक्ति पुंज – जो बेल पर जा कर जेल में वापस लौट आई थी ।
‘क्या हुआ , री ….?’ मुझे घेरे खड़ी कैदियों में से अचला ने पूछा था । अचला भी अपने प्रेमी हमीद को कत्ल करने के बाद जेल में बंद थी । पांच साल से जेल में ही रह रही थी । बहुत आकर्षक महिला थी । ‘फिर बेल ली ही क्यों थी?’ उस का प्रश्न था ।
मैंने अपलक अचला को देखा था । अचला तनिक घबरा गई थी ।
‘अरे, यार। मैं होती तो भाग जाती । गायब हो जाती। इस जहन्नुम से तो कहीं भी …भाड़-कुॅऐ में कूद जाती ।’ रामो अपनी राय दे रही थी । ‘मुझे ताे छोड़ते ही नहीं ?’ वह तनिक मुसकराई थी । ‘सब को डर है …..मुझ से सब डरते हैं कि ….कहीं …..’
अपने ही परिवार से जंग लड़ रही है , रामो ।
‘पा ग ल है , तू ।’ पम्मी ने हंस कर कहा है।’तेरे तो आशिक ही इतने हैं , नेहा ….कि …तुझे आंच तक नहीं आने देंगे ? लेकिन तू न जाने कौन सी ठसक में ….जेल लौट आई ?’ उस ने आश्चर्य जाहिर किया है ।
बात पम्मी की सोलहों आने सच है । अगर मैं रात के दो बजे फ्लाइट पकड़ कर दुबई चली जाती….तो ….शायद मुझे भी एक बुराई के दाग की तरह सब देखते ही रह जाते …लेकिन ….
अब मुझे क्रोध चढ़ने लगा है । अचानक ही मुझे मेरे आस-पास जुड़ी कैदियों की ये जमात बुरी लगने लगी है ।
‘तेरे जैसी नाजुक कली …..’ ऑंखें तरेर कर श्यामा कहने लगी है ।
‘तुम्हारी जैसी बदतमीज जब यहॉं ठाठ से रह सकती हैं ….., श्यामा ….तो मुझे क्या तकलीफ हो सकती है ?’ अब मैं क्रोध में धधकने लगी हूँ । ‘तुम सब की तो जैसे बाप की जेल है ? सब ऐश करती हो । नए-नए कपड़े ….गहने ….साज-सिंगार ….और इश्क-अइयाशी..सब तो है ?’ अब मैंने उन सब को एक साथ घूरा है । ‘हर बार एक नया आशिक मिलने आता है …. और हर बार ….’
भीड़ खाली हो गई है। मैं अब अकेली खड़ी रह गई हूँ ।
अकेली धीरे-धीरे चल कर मैं आ रही थी । अचानक ही मेरा मुकाबला कल्पतरु से हो गया था । लगा था -कल्पतरु हंस रहा था । शायद उसे सारे सबब पता थे ? मैंने अचानक हाथ जोड़े थे और नमस्कार भी किया था। फिर कल्पतरु के तने से टेक लगा कर मैं एक विद्रोही बनी उसी की छाया में बैठ रही थी ।
‘आई लव यू ,नेहा ।’ आवाज आई थी । एक आग्रह जैसा था। फिर एक चेहरा उदय हुआ था । साहबज़ादा सलीम ही था ।
‘आई हेट यू , दिलीप कुमार।’ मैंने सपाट स्वर में कहा था। ‘तुम्हारी उस जन्नत से ये दोजख हजारों बार बेहतर है ।’ मैंने उलाहना दिया था। ‘मैं अब यहीं रहूँगी ।’ मेरा एलान था ।
और न जाने कैसे डर मुझे वहीं बैठा छोड़ चला गया था ? अब मैं निर्भीक थी। मैं अब सच के साथ थी…विगत के साथ आ बैठी थी …..और मैं अब भक्ति …देश-भक्ति ….और देश-प्रेम के नारे लगा रही थी । मैं अब बाबू के साथ फांसी पर झूलने की तैयारी कर रही थी। और…..
‘साथ-साथ जीयेंगे , बाबू ?’ मैं कह रही थी ।
‘साथ-साथ मरेंगे , नेहा।’ तुमने कहा था।
और फिर अचानक ही मैंने देखा था – हमारे घर के दरवाजे पर झूलता मोटा ताला । और तभी मुझे नजर आया था – खुला पड़ा अभिसार -पथ । अनंत तक जाता ये रास्ता हमें अमरता की ओर ले जाने का वायदा कर रहा था ।
और ये भी झूठ नहीं है , बाबू कि ….हमने -हम दोनों ने ही उन अनमोल प्रेमिल पलों को साथ-साथ जिया है – जो आज भी हम से उत्तर मांग रहे हैं – कि हम बिछुड़े क्यों ? नेहा – सदन के प्रांगण में बिछी उस सुकोमल दूब पर लेटे-लेटे हम दोनों ….ने प्रेम-देवता का साथ-साथ ही तो आह्वान किया था? फिर जिया था – मिल कर अपनी पवित्र प्रेम-भावनाओं को । कैसे भुला दूं उन उन्माद भरते स्पर्शों को ? कैसे भूल जाऊं तुम्हारे किये उपकारों को , बाबू ? तुम्हीं तो एक अकेले हो …..हां-हां । मेरे अकेले राजकुमार ….हो तुम मेरे प्रेम-देवता जिस ने सच्चे प्रेम की परिभाषा को कायम किया है ।
कहीं भी …किसी मोड़ पर भी …मुड़ कर देखती हूँ तो …तुम्हारे चरित्र में कोई दोष ढूंढ ही नहीं पाती, बाबू । जब कि अन्य जितने भी साथ आये ….सब के सब सौदागर निकले ?
‘खो क्यों बैठीं, अपने बाबू को …?’ अचानक कल्पतरु का प्रश्न आया है । शायद वह अगला वरदान देने से पहले हमारी प्रेम-कहानी जान लेना चाहता है ?
‘यही उत्तर तो नहीं आता , मुझे ।’ मैंने स्पष्ट कहा है। ‘स्वीकार करती हूँ , कल्पतरु कि मुझ से गलती हुई । लालच कहो ….ईर्षा कहो ….डर कहो …या जो चाहो नाम दो लेकिन अपने बाबू को मैंने…. स्वयं….
और अब सदा ही सच बोलूंगी, कल्पतरु । तुम्हारी सौगंध ….सब सच-सच बयान करूंगी ….सजा लूंगी…..यातना भोगूंगी …..और ….और इसी जेल में रह कर …..
‘खाली हाथ न लौटूंगी …..।’ नेहा कह उठी थी । ‘गोद में लिये बैठी रहूंगी – अपने सत्यवान की लाश को और देख लेना, कल्पतरु । मैं भी सावित्री की तरह ही….. न लौटूंगी जब तक कि तुम …….मुझे मेरे बाबू के प्राण न लौटा दोगे ?’ एक बार फिर मैंने कल्पतरु को चाहत पूर्ण निगाहों से निहारा था।
‘ये क्या कह रही हो , नेहा ?’ बाबू ने पूछ लिया था तो मैंने उत्तर दिया था , ‘हां-हां , बाबू । तुम न मिले तो मैं भी जीऊंगी नहीं …..। नहीं जीऊंगी ….मर जाऊंगी …..जान दे दूंगी …..और मैं…….
मैं ….मैं …. जी कर करूंगी भी क्या , बाबू ?
जारो कतार हो हो कर रो रही थी , नेहा …..
सॉरी…बाबू …..।।
क्रमशः ……….