“क्यों करते हो लड़ाइयां?” बाहर जाते रोमी को रोक कर पूछा है, गौरी ने।
“अपने लिए थोड़ी लड़ता हूँ!” मुड़कर उत्तर देता है रोमी। “तुम नहीं जानती गौरी कि ये जमाना कितना निर्दयी है – कितना जालिम है?” रोमी की आवाज में एक अनूठा दर्द है। “वो बेचारे अमर से नौकरी दिलाने का झांसा देकर अमीर ने सारे पैसे ठग लिए! बोलो, उसे पीट कर मैंने कौन गुनाह किया? और उस जाहिल सुमेर ने उस बेचारी मासूम जूही को नरक में ले जाकर छोड़ दिया!” मुड़कर रोमी ने गौरी की आंखों में देखा है। “इत्ता कूटा साले को .. छटी का दूध याद आ गया!” मुसकराया है रोमी। “तुम नहीं जानतीं गौरी ..”
“मुझसे ज्यादा कौन जानता है?” गौरी का कंठ रुंध आया है। रोमी तनिक सजग हुआ लगता है। “कभी कभी तो मॉं बेटियां बिन खाए सो जाती थीं!” गौरी की ऑंखें सजल हो आती हैं। “बेरहम वक्त ने कितना कितना नहीं सताया?” दर्द उभर आता है गौरी की आवाज में। “अगर तुम देखते तो ..”
गौरी की ऑंखों में पश्चाताप है, वेदना है, विवशता है और उमड़ आई है असह्य पीड़ा! रोमी जानता तो है कि गौरी एक गरीब विधवा मॉं की बेटी है। वह गौरी की कथा सुनकर सन्न रह जाता है!
अचानक रोमी की निगाहें अपने स्वर्ग बने घर को देख लेती हैं!
गौरी के अथक प्रयत्नों का प्रतिफल है – आज उसका ये घर जो कभी एक खंडहर से आगे और कुछ न था। आंगन में लगा तुलसी का बिरवा रोमी को पुकार सा लेता है!
“कपड़े बदल कर जाना!” अचानक गौरी आग्रह करती है। “धोकर प्रेस कर दिये हैं कपड़े!” वह रोमी को बताती है।
“कपड़े धुलवाने के लिए लाई है मॉं तुम्हें?” रोमी तनिक चिढ़कर पूछता है।
“वो मॉं से पूछना!” गौरी तनिक सी मुसकुराहट के साथ उत्तर देती है।
रोमी का मन बदल गया होता है। वह दो कदम गौरी की दिशा में चलता है। फिर रुक जाता है। फिर थोड़ा आगे बढ़ कर गौरी के बिलकुल समीप आ जाता है। अब वह हाथ बढ़ाकर गौरी को बांहों में ले लेना चाहता है, लेकिन रुक जाता है। गौरी उसे चंचल हो आई ऑंखों से आमंत्रित करती लगती है।
“धत तेरे की!” जोरों से कहता है रोमी ओर बाहर भाग जाता है!
गौरी खिलखिला कर हंसती है!
ओट में खड़ी मॉं गदगद हो आती है। उसे विश्वास हो जाता है कि गौरी संभाल लेगी रोमी को। वह गौरी के कमल से खिल गये चेहरे को कई पलों तक देखती ही रहती है। गौरी शर्म से ऑंखें झुका लेती है!
“भूखे को ही भगा दिया ..?” मॉं ने बड़े दुलार के साथ प्रश्न पूछा है।
उत्तर देने से पहले गौरी ने मॉं के प्रसन्न हुए मुख मंडल को पढ़ा है। वह जानती है कि मॉं का पूछा प्रश्न कोई उलाहना नहीं – उनके बीच उगते प्रेम प्रसंगों की स्वीकृति है!
“लौट आएंगे!” गौरी ने पलकें उठाते हुए उत्तर दिया है।
मॉं का स्नेह उमड़ आता है। वो गौरी को बांहों में लेकर दुलार देती हैं!
“बस एक बेटा और दे दे गौरी!” मॉं मधुर आवाज में मांग करती हैं।
गौरी ने ऑंखें उठा कर मॉं को पढ़ा है। उसे एक बेटे की मांग करती मॉं बेहद अच्छी लगती है! नेहा को अचानक ही पूर्वी विश्वास की याद हो आती है। कितनी ममता मई है पूर्वी विश्वास?
“ये तभी सुधरेगा गोरी!” मॉं बता रही हैं।
“उंगली पकड़ कर अब पहुंचा पकड़ रही हैं?” तनिक व्यंग से पूछती है गौरी।
“मूल से ब्याज प्यारी होती है री!” हंस पड़ती है मां।
और तभी रोमी लौट आता है!
“कितनी भूख लगी है मॉं!” वह शिकायत करता है।
“तेरी भूख भी यही बुझाएगी रे!” मॉं भी व्यंग से कहती है ओर दृश्य से गायब हो जाती है।
रोमी अब गौरी को देखता ही रहता है और गौरी पलकें झुकाये रोमी के इंतजार में खड़ी ही रहती है!
“विक्रांत भी एक आदर्श पुरुष है!” नेहा दृश्य समाप्त होने के बाद सोचती है। “तभी तो ये रोमी की भूमिका में – प्राण फूंक देता है!”
“नेहा गौरी का ही प्रतिरूप है!” विक्रांत का मन कह रहा है। “तभी तो गौरी के चरित्र चित्रण में उसे कठिनाई नहीं होती है!”
पलट कर अब दोनों ने मेकअप उतारने के बाद एक दूसरे को देखा है। लगा है – प्यासे पपीहे ने मेघ को पुकारा हो! ओर अब रिमझिम बरसेगा बादल – और पपीहा अपनी प्यास बुझाएगा!
“श्रेष्ठ प्रेमियों की श्रेणी में आता है विक्रांत!” नेहा को एहसास होता है। “लेकिन वो सलीम तो निरा व्यापारी है! उसे तो रोमांस के माने तक पता नहीं हैं। विक्रांत से सीख लेना चाहिये उसे!” नेहा सोचती है। फिर न जाने कैसे अपनी गली में कूदती फांदती निर्द्वंद्व नेहा सलीम को मुंह चिढ़ाने लगती है – काला कलूटा – बैंगन लूटा! दे साले में जूता ही जूता! हा हा हा .. हंस पड़ती है नेहा।
विक्रांत ने उसे पलट कर देखा है। नेहा तनिक शर्मा गई है!
“दत्त साहब खामोश तो न बैठे होंगे?” अचानक ही विक्रांत नेहा को निगाहों में भर कहता है।
“पता कर लिया होगा!” नेहा स्वीकारती है। “उसके हाथ बहुत लंबे हैं बाबू! लेकिन ये पोपट लाल भी चोट का हरामी है!” हंस पड़ी है नेहा।
लेकिन विक्रांत पोपट लाल के किये अहसान का आभार मानता है। वह मानता है कि पोपट लाल में अभी भी दीन ईमान बचा है। जबकि रमेश दत्त तो निरा नालायक है! उसे किसी का मरना जीना दिखाई नहीं देता – अपने स्वार्थ के सामने!
“आज तो निगाहें भी नहीं मिला रही हो?” अचानक नेहा खुड़ैल की आवाजें सुन लेती है। “मेरी जान! हमारे बिना बम्बई में दाल न गलेगी!” वह चेतावनी दे रहा है। “कब तक .. और कहां तक ..?” उसने नेहा को कटखनी आंखों से घूरा है।
नेहा ने ऑंखें फेर ली हैं। नेहा ने विक्रांत को याद किया है .. पुकारा है!
कितना सुघड़ और सजीला है विक्रांत – नेहा सोचने लगती है। एक पवित्र सुगंध चलकर आती है विक्रांत से और श्रांत शरीर को तरोताजा कर के छोड़ जाती है। जबकि खुड़ैल तो बुरी तरह से गंधाता है! न जाने नहाता भी है या नहीं! उबकायीं आती हैं .. जब ..
“ब्याहने के बाद ही प्राप्त करूंगा तुम्हें नेहा!” अचानक उसे विक्रांत के बोल सुनाई देते हैं।
“और वो .. वो क्या कहते हैं – ब्रह्म कार्य भी तभी संभव होगा?” नेहा भी चुहल करती है। “वरना तो घोर पाप घट जाएगा बाबू!” वह हंस पड़ी है।
सच बाबू! मेरा कितना कितना मन था कि तुम मुझे ब्याहने आओ! हम पति-पत्नी बनें! फिर हम सुहाग रात मनाएं! और जब तुम मुझे प्राप्त करो तो मैं पिघल जाऊं .. बिछ जाऊं .. बिखर जाऊं – तुम्हारे आगोश में और फिर हम दोनों जन्म जन्मांतर के लिए गुलाम हो जाएं एक दूजे के!
लेकिन ये खुड़ैल? बड़ा ही दुष्ट है बाबू! बहुत बेरहमी से मारता है, हरामजादा! मैंने किरण को देखा है आत्महत्या करते! और शायद आत्महत्या नहीं इसी ने उसे मारा हो? बेचारी जान दे बैठी इसी के कारण ..
और .. और मैंने तुम्हारी जान ले ली – इसी के कारण! न जाने कौन से अपराध के बदले ये अपराध कर बैठी? हत्यारिन हूँ मैं .. हत्यारिन! मैंने ही तुम्हारी हत्या की, बाबू! जिसे मैं पाना चाहती थी – जिसके साथ मैंने प्रीत जोड़ी थी .. जिसके लिए मैं ..
उसे ही खा लिया मैंने!
सॉरी बाबू!
क्रमशः
मेजर कृपाल वर्मा