धारावाहिक – 4

-आज क्या हुआ , इसे ?’ कामिनी ने भूरो से पूछा है । ‘सुबह-सुबह नहा ली …बाल भी धोए हैं ….और अब सुलझाने लग रही है । कपड़े भी बदले हैं । अब गीत गुनगुना रही है । क्या हुआ ?’

‘जानौ – सगाई आन वाली हो ?’ भूरो ने भी राय दी है । ‘ईसा जान पड़ै ….जनूं ….’

तभी नेहा चक्की से बाहर निकल गई है ।

बाहर की हवा ताजा है। फूल खिले हैं । वह कल्पतरु के वृक्ष के नीचे जा बैठी है । आस – पास दो-चार कैदी उसे मुड़-मुड़ कर देख रहे हैं । नेहा का ध्यान कहीं और है । उस के कानों में खुड़ैल के कहे शब्द कांप रहे हैं । वह आज फिर से उस पर विश्वास कर लेना चाहती है ।मान लेती है कि – रमेश दत्त की अगली फिल्म ‘परी’ सुपर हिट होगी । वह जानती भी है कि …खुड़ैल माहिर है …..और …..

‘पढ़ ले …पट-कथा ।’ नेहा सुन रही है । ‘प्रेम-कहानी है ।’ दीपा उसे बता रही है । ‘पहले प्रेमाकुल ‘परी’ प्रेम-जाल में फंस जाती है । हीरो फौजी है । बाद में शहीद की विधवा का रोल दमदार है । विरह का ….गीत ….’

जान फूंंक दूंगी ….विरह के गीत में ….।’ नेहा ने स्वयं से कहा है । ‘शहीद की यादें …..?’ अचानक ही नेहा की आंखों के सामने विक्रांत की लाश उजागर होती है । ‘सॉरी, बाबू ।’ नेहा धीमे से कहती है । ‘ये मेरा पति है , प्रेमी नहीं । देश के लिये जान दी है – इस ने – पैसों के लिये नहीं ।’

और फिर ‘परी’ सुपर हिट हो आज तक ‘मराठा मंदिर’ में चल रही है । दर्शक …नेहा के उस विरह के विलाप को सुन राे देते हैं । देश के लिये शहीद हुआ उस क पति ….? और फिर न जाने कैसे ….वह अपने पति के चुनाव के लिये आये – अपने कामना-पुरुषों की कतार का निरीक्षण करती है । ‘खुड़ैल ने ठीक ही कहा था ।’ नेहा सोच कर मुसकराई है । एक से एक बढ़-चढ़ कर प्रत्याशी उस के दर्शन करने के लिये बेताब हैं । और उसे वरने के लिये ……

‘आप ….?’ नेहा ने एक अपूर्व आकर्षक युवक से पूछा है ।

‘कुँवर प्रताप कंगारू ।’ युवक ने नाम बताया है । ‘क्रिकेट खेलता हूँ ।’

‘और ….?’ नेहा ने आंखें तरेर कर पूछा है ।

‘रियासत है- झमोली । मैं अकेला हॅू । युवराज हूँ । हमारी …..’

‘कंगारू का मतलब ….?’

‘मैंने अकले हाथों ऑस्ट्रेलिया की टीम को हराया था । इसी से लोग कंगारू कहते हैं ।’ वह हॅस गया था ।

‘क्या घाटा है ?’ नेहा ने सोचा था । ‘इस की पुड़िया बनाने में कित्ता वक्त लगेगा ?’ वह मुसकराई थी । और फिर शहनाइयां बज उठीं थीं । नेहा सुन रही थी – सुहाग रात है….घूंघट उठा रहा हूँ …में……।

‘हनीमून के लिये इसी जगा को क्यों चुना ?’ नेहा ने प्रताप से पूछा था ।

‘कहते हैं – दुनिया भर के अमर प्रेमियों का अड्डा है , ये ।’ प्रताप प्रसन्न था । ‘फिर तुम्हें पाने के बाद ….तो और कुछ शेष नहीं रह जाता ,नेहा ?’ प्रताप की आवाज बदल-सी गई है ।

और….और फिर वह प्रताप न रह कर …विक्रांत बन जाता है । विक्रांत की आग्रही आंखें उसे विचलित कर देती हैं । न जाने कैसे नेहा आंखें चुरा कर विक्रांत से दूर भागना चाहती है । लेकिन …..

‘मेरा क्या कसूर था , नेहा ?’ विक्रांत पूछ रहा है । ‘मैंने तो सब कुछ …तुम पर ही निछावर कर दिया था। मैं तो ……..’

‘सॉरी बाबू । गलती हो गई ।’ नेहा रोने लगी थी ।

उस ने महसूसा था कि ….कल्पवृक्ष की छाया उस के सर से न जाने कब उठ गई थी ? वह तो चिलचिलाती धूप में बैठी थी ?

क्रमशः …..

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