धारावाहिक – 20
घर के गहरे एकांत में आ कर तुम मुड़े थे और प्रश्न किया था ।
‘हुआ क्या , नेहा ?’ तुम्हारे चेहरे पर हवाईयां उड़ीं थीं। एक सदमा-सा लगा था, तुम्हें ।
‘पैसा ?’ मैंने भी सीधा गोली की तरह ही प्रश्न दागा था। मैं अब शीघ्र ही अपना लक्ष प्राप्त कर लेना चाहती थी । मैं चाहती थी कि किसी प्रकार भी पैसा आये और मेरे पेट में पलता कासिम का …..ये ….
‘चलो ।’ तुम्हारा अविलंब आदेश था।
बैंक तक हम दोनों चुपचाप चलते रहे थे । बोलने को मेरा मन ही न हो रहा था । मैं आज तुम्हें भी परख लेना चाहती थी, बाबू । मुझे रह-रह कर कासिम का कमीनापन याद आ रहा था । रह-रह कर मैं रो लेना चाहती की ….लेकिन किसी तरह शांत ही बनी रही थी ।
‘कित्ता …?’ बैंक में पहुंच कर तुमने प्रश्न किया था ।
मैं एक छोटे सोच के बाद बोली थी। मुझे याद है कि मैंने प्रभा के बताये अनुमान को दो गुना कर के तुम्हें बताया था। मुझे कहीं शक था ….एक डर था कि …अब तुम भी कोई न कोई बहाना ढूंढ लोगे और पैसा देने से साफ नाट जाओगे । और रकम भी तो इतनी थी कि कोई कैसे दे पाता ? और वो भी ……
‘लो, संभालो ।’ तुमने रकम की गड्डी मेरे हाथ में सौंपी थी तो मैं सन्न रह गई थी ।
अब तुम मुझे अपांग घूर रहे थे । मेरे अस्त-व्यस्त हुलिये पर सवाल खड़े कर रहे थे । कुछ तो सोच रहे थे ? शायद अनुमान लगा रहे थे कि मुझे इतना धन आखिर चाहिये किस लिये था ?
‘एक कॉफी हो जाए …?’ तुमने मुझे मुसकरा कर पूछा था ।
सच, बाबू । मैं उन पलों में गदगद हो गई थी । मैंने तुम्हारी बलिहारी ली थी । मैंने शपथ ली थी कि मैं तुम्हें ….कभी दगा न दूंगी …कभी पीठ नहीं दिखाऊंगी ….और अपना तन-मन-धन तुम पर अर्पण कर दूंगी ।
‘मैं जरा सी जल्दी में हूँ ।’ मैंने तनिक सा लजाते हुए तुम्हें बताया था ।
‘कोई , नहीं । घर छोड़ दूंगा ।’ तुम ने वायदा किया था और मुझे ले उड़े थे ।
तब उन मौन पलों में जब तुम ड्राइव कर रहे थे मेरा आहत मन कासिम से जा लड़ा था । मैंने उसे मुंह भर-भर कर गालियां दीं थीं । मैंने उसे दुर्गन्ध युक्त नाली का कीड़ा कहा था । मैंने कहा था कि वो तो तुम्हारे पैरों की धूल तक न था । मैंने उसे गाेद में धरी पैसों की गड्डियां दिखाई थीं और…. शर्मिंदा किया था । मैंने कहा था कि वो एक ब्लैक मेलर था ….वह भोली-भाली लड़कियों को फंसाता था ….धंधा करता था …और वह समाज और देश का दुश्मन था । फिल्में बनाने के बहाने वह हर तरह के कुकर्म करता था ….और …
‘नेहा निवास ।’ जब तुमने गाड़ी रोकी थी तो मैंने सामने लगे बोर्ड को पढ़ा था । मैं चौंकी थी । कहॉं आ गये , मैंने स्वयं से पूछा था । लेकिन तुम ने जब मुसकरा कर कार का दरवाजा खोला थ तो ….
‘ये कहॉं आ गये ?’ मैंने पूछ ही लिया था ।
‘अपने घर ।’तुमने उत्तर दिया था और हंस पड़े थे । ‘कहोगी नहीं , व्हाट ए सरप्राइज?’ तुमने पूछा था।
वो तुम्हारा फार्म हाउस ….वो बेजोड़ फार्म हाउस …मुझे अपने स्वागत में बांहें पसारे खड़ा दिखा था। और जब फार्म का स्टाफ मुझे दौड़-दैड़ कर आता दिखा था तो ….मुझे अचानक ही कासिम का आजम गढ़ का दौलत खाना भी दिखाई दे गया था । अब मेरी ऑंखों के सामने फार्म हाउस और कासिम का दौलत खाना एक मुकाबले में आ खड़े हुए थे । मैंने जब फार्म हाउस का सम्पूर्ण वैभव छू-छूकर देखा था तो मैं हैरान रह गई थी और खास कर जब मैंने एक कमरे पर लिखा पाया था -‘नेहा’ और तभी वार्डर ने मुझे उस की चाबी सौंपी थी तो ….मेरे तो आश्चर्य का ठिकाना न था । और बाबू , कमरे के अन्दर झांक कर तो मैं पागल होने को थी ।
तुम तो खड़े-खड़े मुसकराते ही रहे थे ।
और मैंने कासिम के उस पुराने मकबरेनुमा ठिकाने का नाम ‘जहन्नुम’ रखा था …तो फार्म हाउस का नाम ‘जन्नत’ रख दिया था ।
‘कैसे किया – ये करिश्मा …?’ मैंने तुम्हें पूछ ही लिया था ।
‘तुम्हारा नाम ले कर ।’ तुम ने शरारत के स्वर में उत्तर दिया था।
और अब आ कर मेरी भी हंसी खुली थी । मैं अब सहज थी । मैं इन पलों में आश्वस्त थी । बहुत-बहुत अपने लगे थे तुम बाबू – उस दिन ।
‘घर छोड़ दो ?’ मैं अब जल्दी में थी । मैं तो जानती थी कि प्रभा को पल-पल इंतजार था -मेरा ।
‘कपड़े तो बदलो …?’ तुमने कहा था ।
और सच में …मेरे कमरे में ….मेरे लिये …मेरे वारड्रोव में …कपड़े सजे हुए थे । ड्रैसिंग टेबुल पर भी सारा सामान था । और बाथरूम तो …….?
आज जैसे सदियों के बाद मैं …एक महकती कली की तरह कमरे से बाहर आई थी तो …..तुमने मुझे नजर भर कर देखा था । और …किस तरह शरमाई थी , मैं ….? मुझे वो आज भी याद है , बाबू ।
‘पोलेन्ड से लाये , ये कपड़े …?’ याद है ,मैंने पूछा था ।
‘हॉं ।’ तुम्हारा उत्तर था ।
कि तुम मुझे जी-जान से प्यार करते थे ….आज मेरा कोई शक शेष न रहा था , बाबू । तुमने तो मुझे निहाल कर दिया था , बाबू । पर ….मैं ही पलट गई …?
मैं तो आज भी शर्मिन्दा हूँ …कि मैंने ….स्वयं ….अपने ही हाथों …अपना सिंदूर मिटाया ….., बाबू ।
रोने लगी थी , नेहा ।
क्रमशः ……..