धारावाहिक – 22
रात ग्यारह बजे मुझे घर छोड़ कर प्रभा चली गई थी ।
अब मैं कमीने कासिम के जाल से मुक्त हुई स्वतंत्र बुलबुल थी । न – न । अब नहीं । मैं न फंसूंगी इस के जाल में – मैंने शपथ ली थी । और मैं घर में घाेड़े बेच कर साेती रही थी ।
नौ बजे आ कर मेरी आंख खुली थी – कमाल ही था ।
‘तीन दिन में तीन-तीन बार आ कर पूछ गये हैं , रमेश दत्त ।’ चाय देते हुए पूर्वी विश्वास मुझे बताने लगी थी । ‘क्या करती ?’ उन्होंने मुझे घूरा था । ‘कह दिया – नानी के पास कलकत्ता गई है ।’ वह तनिक मुसकरा गई थी। ‘बेचारे बहुत ही भले आदमी हैं।’ पूर्वी बताती रही थी ।
तभी घर की घंटी बजी थी । रमेश दत्त ही था।
‘कित्ते जूते मारे हैं भाई ने , नेहा ? मैं बयान तक नहीं कर सकता ।’ पसीने पोंछते हुए रमेश दत्त कह रहा था । ‘आज …जिस का नाम आज – आ रहा है , साहबज़ादा सलीम ।’ वह घबराया हुआ था । ‘बैनिटी में ठहरेगा । तीन बजे का प्रोग्राम है ।’ उसने सूचना दी थी । ‘तैयार हो जाओ, तुम्हें ….?’ उस ने अब आंख उठा कर मुझे देखा था।
पूर्वी विश्वास चाय ले आई थी ।
अंतर मन में उठे क्रोध ने मुझे बावला कर दिया था । एक मन तो हुआ था ,बाबू कि मैं इस धूर्त के सर पर चप्पलें दे मारूं । इसे धक्के मार कर घर से बाहर निकाल दूं । इसे साफ-साफ बता दूं कि मैं …अब इस के बहकाये में न आने वाली थी । लेकिन …..
‘पागल न बनो , नेहा । अक्ल से काम लो ।’ मेरे भीतर बैठा खिलंदड़ बोल पड़ा था। ‘कोई ऐसी चाल चलो जो ये भी ताउम्र याद रखे ?’ वह हंसा था और मैं मान गई थी ।
अब मैं तैयार होने बैठ गई थी । मैंने सब से पहले पूर्वी विश्वास की फटी-पुरानी चप्पलें पहनीं थीं । फिर उसी की एक पापिन पाढ़ की साड़ी – ठेठ बंगाली , निकाली थी और उसी के स्टाइल में लपेटी थी । मैंने बालों को खुला ही छोड़ दिया था । माथे पर एक छोटी सी बिंदी सजाई थी । होंठों को सूना और सपाट छोड़ा था और गले में बाबा की लाई तुलसी की माला पहन ली थी । कलाई पर समीर का लाया महादेव का कड़ा लटका था ।
‘ये क्या …..?’ मुझे देखते ही एक दम चौंका था , रमेश दत्त । ‘अरे, भाई …..?’ वह कुछ बोल ही न पा रहा था । ‘साहबज़ादा …स-ली-म ….’ वह कुछ कहने को था।
‘चलो ।’ मैंने उसे घर के बाहर धकेला था ।
‘लेकिन …..नेहा ….?’
‘तो मैं नहीं चलती …..।’ मैंने जिद की थी और घर की ओर मुड़ी थी ।
‘अरे, नहीं, नहीं । मेरा मतलब …..चलो ।’ रमेश दत्त मान गया था ।
फिर एक बार मुझे अफसोस ने आ घेरा था । लेकिन मेरे दिमाग ने मेरी पीठ थपथपाई थी । मुकाबला करने के लिये कहा था । और मैं भी बैनिटी चली आई थी । यहॉं तो जैसे मेला लगा था । साहबज़ादे सलीम के दर्शन के लिये पूरा प्रेस हाजिर था । और जैसे ही उन्होंने मुझे देखा था – दनादन फोटो उतारने लगे थे । रमेश दत्त ने मुझे धकिया कर कमरे के भीतर दाखिल कर दिया था । अब मेरा मुकाबला होना था – साहबज़ादे सलीम से ।
हम दोनों आमने-सामने थे । मैं उसे अचंभित ऑंखों से देख रही थी ….तो वो भी मुझे अपांग देखे जा रहा था । मेरा मन बोला था , बाबू , ‘काला कलूटा – बैंगन लूटा। दे साले में – जूता ही जूता ।’ ये हमारी गली का कानून था – जहां हम बचपन में कंचा खेला करते थे ।
‘म ….मैं न करूंगी इस के साथ काम ।’ मैंने निर्णय ले लिया था । ‘ये कोई दिलीप कुमार न था ।’ मेरे मन ने मुझे बताया था ।
‘हैंड मेड ….?’ साहबज़ादा सलीम ने जबान खोली थी । वह मेरी उन फटी-टूटी चप्पलों को ही गौर से देखे जा रहा था । उस का किया प्रश्न मैंने ताड़ लिया था ।
‘यस ।’ मैंने बड़े ही रूखे-सूखे अंदाज में उत्तर दिया था ।
और वह मेरे दिये इस उत्तर पर मुग्ध हुआ लगा था ।
‘ग्रेट …..।’ उस ने उछलते हुए कहा था । ‘जेट ब्लैक ….हे-अ-र्स।’ वह फिर से कहने लगा था । ‘डैन्स …..वैरी -वैरी ….डैन्स ….।’ उस की ऑंखें नाच रहीं थीं । ‘शैम्पू …..आई ….मीन …..?’
‘कैरा ….।’ मैंने झूठ बोला था।
‘फेंटास्टिक ।’ वह फिर उछला था और दौड़ कर अपने बैग से कैरा शैम्पू की बोतल निकाल लाया था । ‘लुक । कैरा …?’ वह कह रहा था । ‘वी हैव द सेम हैबिट्स ।’ वह बता रहा था । ‘रॉ …ब्यूटी ।’ अब वह स्वयं को ही बता रहा था । अब उस की निगाहें पापिन पाढ़ की मेरी साड़ी पर टिकीं थीं ।
‘कॉफी ……?’ उस ने मुझ से आग्रह किया था ।
कॉफी पीते-पीते उसने मुझे कई बार अवांछित स्थानों पर छूने का प्रयत्न किया था लेकिन मैंने उसे वर्ज दिया था ।
खुड़ैल की तो बाछें खिल गई थीं।
‘कमाल कर दिया तुमने , नेहा ।’ रमेश दत्त मेरी प्रशंसा कर रहा था । ‘ये तो इतना भिनकू है कि ….प्रोड्यूसरों के मुंह पर प्लेट फेंक देता है ।’ रमेश दत्त सूचना दे रहा था । ‘लेकिन ….तुम ने तो …..?’ वह अब मुझे ऊपर से नीचे तक निहार रहा था ।
‘लेकिन मैं …..इस के साथ काम नहीं करूंगी ।’ अब मैंने भी अपने पत्ते खोल दिये थे ।
‘क्यों ….?’ अब रमेश दत्त के उछलने की बारी थी ।
‘कोरा गधा है ।’ मैंने मुंह बिचकाते हुए कहा था । ‘ये कौन सा दिलीप कुमार है ….?’ मेरा प्रतिरोध था और मैं उठ कर चली आई थी ।
घर आ कर मैं निफराम सोती रही थी ।
‘खाना खा लो , नेहा ।’ पूर्वी ने मुझे जगाया था।
मुझे अचानक कुछ हुआ लगा था । आंगन में छोटी टेबुल पर खाना लगा था । समीर आया हुआ था । बाबा भी थे । एक खुशफहमी इधर-उधर डोलती दिखी थी । मैंने जब खाने पर नजर डाली थी तो मुझे शक हुआ था ।
‘करीम से आया है।’ समीर ने मुझे बताया था । ‘दत्त साहब दे गये हैं ।’ उस ने ही सूचना दी थी ।
मैं बावली हो गई थी , बाबू । न जाने क्या-क्या नहीं कहा-सुना था , मैंने ?
‘मूंह मांगे पैसे मिल रहे हैं , दीदी ?’ समीर कहता रहा था । ‘ऐसे मौके बार-बार नहीं आते ….?’ उस ने मुझे चेतावनी भी दी थी ।
‘कोई बात है , नानी…..?’ विनम्र स्वर में बाबा ने पूछा था ।
क्या बताती , बाबा को ….? कैसे बताती कि ये …..रमेश दत्त – दत्त साहब नहीं , कमीना कासिम था …..जो ….
उस समूची रात मैं बिस्तर में पड़ी-पड़ी आंसू बहाती रही थी । मेरे घर में ही मेरा कोई नहीं था । मेरी विवशता मुझे रात भर टुकड़ों-टुकड़ों में काटती-बांटती रही थी । और मैं ….लहूलुहान हुई …तुम्हारा नाम ले-लेकर तुम्हें ही दुहाईं देती रही थी , बाबू ।
चुप थी नेहा ….गंभीर थी ।
क्रमशः ………