धारावाहिक- 18

आजम गढ़ कासिम का गढ़ था।

इसे अइयाशियों का अड्डा कहना भी ठीक होगा । किसी नवाब का दौलत खाना था – जो कभी इस का दादा -पर दादा रहा होगा । हवेलियां थी …किला था…न जाने कितने ख्वाबगाह …और जन्नत गाह थे …मस्जिद थी …कब्रगाह था …तालाब और बगीचे सब कुछ थे । मुझे लगा था जैसे पूरे का पूरा आजम गढ़ इसी के बाप का था ।

‘सुभानल्लाह । माशाअल्ला ।’ मेरा स्वगत करती ये रमेश दत्त की पहली पत्नी – नूरजहां थी । ‘तबीयत खुश हो गई ,आप के दीदार से ।’ वह मुसकराई थी । ‘भाई, हुस्न हो तो आप जैसा ।’ वह कहती रही थी ।

मैंने भी नूरजहां को आंख उठा कर देखा था । मुझे तो दाल में काला ही नजर आया था।

‘तस्लीम, नेहा आपा ।’ मुमताज बेगम – रमेश दत्त की दूसरी पत्नी ने भी मेरा स्वागत किया था । ‘भाई, आप के साथ तो खूब जमेगी ।’ मुमताज हँसती रही थी । ‘आप हैं तो ला-जबाब।’ उस ने अंत में कहा था ।

और फिर मैंने बच्चों , बड़ों और बूढ़ों का एक रेवड़ जैसा कुछ देखा था ।

सच , बाबू । मेरा तो मन ही बैठ गया था । मुझे एहसास हुआ था कि मैं ….एक डुबोने वाले दलदल में नाक तक समा गई थी …और अब बस डूबने-डूबने को ही थी ।

वहां न ताे नौकरों की गिनती थी और न ही मालिकों का हिसाब था । एक मेला जैसा था -जिस में मुझे अपने आप को खो जाने से बचाना था । मुझे छोटी बेगम कहने का क्या अर्थ था इन लोगों का -मैं जान गई थी ।

मुझे शक तो हुआ था कि ये मुझे आजम गढ़ क्यों ले जा रहा था ? पर अब तो मेरी समझ में सब कुछ आ गया था ।

‘कभी धीरज नहीं खोना , नेहा ।’ ये तुम्हारी ही आवाज थी , बाबू – जिसे मैंने एक चेतावनी की तरह सुना था । और तभी मैंने सतर्क निगाहों से सब कुछ देखा था ….समझा था….पहचाना था ….और जाना था ।

नूरजहां और मुमताज दाेनों ही मेरी तरह की हिन्दू लड़ियां थीं । उन्हें भी रमेश दत्त मेरी ही तरह बम्बई से फंसा कर लाया था। उन्हें मुसलमान बनाया था। उन से निकाह किया था । और अब तो उन के बच्चे थे ….न जाने कितने और कौन-कौन ?

और अब मेरा नम्बर था – मैं जान गई थी ।

‘बे-सुम्मार दौलत है , हमारे पास नेहा ।’ रमेश दत्त मुझे बताने लग रहा था । ‘चलो । बगीचे में सैर कर आते हैं ।’ आग्रह किया था , रमेश दत्त ने । ‘देखना नजारा ? तबीयत ही बदल जायेगी , तुम्हारी ।’ वह कहने लगा था । ‘फिर …तो …आ-प ….’ वह हंसा था ।

‘मेरी तो तबीयत खराब है ।’ मैंने मरी-मरी आवाज में उत्तर दिया था। ‘मैं आराम ही करना चाहूंगी , रमेश ।’ मैं अचानक ही अनौपचारिक हो आई थी ।

अपने लिये नियुक्त दौलत खाने में मैं ….मेरे लिये नियुक्त सेविका – सरवरी की देख-रेख में बीमारी को भोगने लगी थी । अब हारा-थका रमेश दत्त भी मेरी पाटी पकड़ कर …मेरे ही पास आ बैठा था । वह बहुत उदास था । निराश भी था ….और किसी तरह भी मुझे खुश करना चाहता था । लेकिन ……..

‘जानती हो , नेहा । हमारे पर दादा – आजम खॉन सिकन्दर लोधी की फौज में सूबेदार थे ?’ रमेश दत्त अब मुझे अपने खान-दान की कहानी सुना रहा था । ‘वो थे तो ब्राह्मण …..पर मुस्लिम बन गये थे ।’ उस ने मुझे सूचना दी थी । ‘फिर उन्होंने यहां के सारे ब्राह्मणों को ही मुसलमान बना दिया था …और ये जागीर इनाम में हासिल की थी । तुम देखना , नेहा कि …..’ अब आ कर रमेश दत्त ने मुझे ऑंखों में घूरा था।

‘हम हिन्दू ही….. कंगाल क्यों थे ?’ वही मेरा पुराना प्रश्न था जाे अब आ कर फिर मेरा सर फोड़ने लगा था । ‘ये ब्राह्मण से मुसलमान बन गये ? और अब ये मालामाल हैं ? नवाब हैं । और मेरे बाबा ? कौड़ि भी नहीं कमा पाये हैं ? और ….और …मैं भी तो ….?’

‘छोटी बेगम कहते हैं तुम्हें, सभी लोग ।’ अब की बार हंसा था , रमेश दत्त । ‘कैसा लगता है तुम्हें , नेहा ?’ वह पूछ रहा था ।

‘मैं कभी भी नहीं बनूंगी तुम्हारी बेगम ।’ मैंने अपने मन में कहा था । ‘पा-जी । हरामी । कुत्ते ।’ मैं न जाने क्यों उसे गालियां बकने लगी थी ।

‘पैसों की तो कभी कोई किल्लत ही न होगी ।’ रमेश दत्त अब मुझे समझा रहा था । ‘और हम दोनों भी तो कमायेंगे , बम्बई में ?’ वह भविष्य का भी जिक्र छेड़ बैठा था ।

‘मैं तो ….मर जाऊंगी , रमेश ।’ मैंने कराहते हुए कहा था ।

तभी रमेश दत्त ने सरवरी से कह कर अपने कारिंदे रकीब को बुलाया था ।

‘पैसे का बन्दोवस्त हुआ ?’ रमेश दत्त ने सीधा प्रश्न पूछा था ।

‘अभी कहां , हुजूर ?’ रकीब डरते-डरते बोला था । ‘पर आप फिक्र न करें । -पैसा आते ही मैं ….बम्बई भिजवा दूंगा ।’ रकीब हामी भर रहा था ।

मैं भी जान गई थी कि ये रमेश दत्त का तयशुदा ड्रामा था । उस ने मुझे पैसा तो देना ही न था । जाल में फंसी भोली चिड़िया के चिंचिंयाने पर उस ने उसे आजाद नहीं करना था ।

अब मेरे गमों का पारावार न था, बाबू ? मेरा मन डूब मरना चाहता था । रमेश दत्त की उस नवाबी में …..मैं …..’

‘मैं तुम्हें ….दिलोजान से ….चाहता हूँ, नेहा।’ रमेश दत्त ने मुझे छूते हुए कहा था ।

और मेरा उत्तर…..मेरी चुप्पी थी । एक बे-जानऔर बीमार की चुप्पी । मेरा मर्ज अब ला-इलाज हो चुका था । मैं महसूस रही थी कि मैं एक बे-जुबान बकरी थी ….और रमेश दत्त था – एक बे-रहम कसाई ….और वो मुझे टुकड़ों में काटता-बॉटता चला जा रहा था । मुझ वे-वश और बे-जुबान का वध कर रहा था , रमेश दत्त । और मैं थी कि…..अब मिमियाने लगी थी ……डकराने लगी थी …..हाथ-पैर मारने लगी थी …. और…….

‘इसे ले जा यहॉं से …….वरना ताे तेरी जेल हो जायेगी ।’ आवाजें नूरजहॉ की थीं ।

मैंने भी सुनीं थीं ये आवाजें ……पर फिर मैं बेहोश हो गई थी , बाबू ।

सच , बाबू …..। गलती ….हो गई …..

रो रही थी , नेहा ……

क्रमशः ……….

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