याद है बाबू, ‘मॉं के आंसू’ का शादी का सेट लगा था!
मैं एक विधवा और परम गरीब मॉं की बेटी थी – रूपा और तुम थे एक अमीर और जानी मानी हस्ती – गजाला के बिगड़ैल बेटे – रोमी! गजाला ने अपने बेटे को सुधारने के लिए मुझे चुना था और मेरी मॉं – गौरी ने अपने गरीबी के आंचल से मुझे आजाद कर एक संभ्रांत घराने में मेरी शादी होने के प्रस्ताव को ठुकराया नहीं था यह जान कर भी कि गजाला का लड़का रोमी एक जाहिर तौर पर गुंडा ही था!
मैं और तुम एक बार फिर से अखाड़े में आमने-सामने थे! फिल्म ‘मॉं के आंसू’ की सफलता और श्रेय हम दोनों के कंधों पर ही था! प्रेमाकुल पत्नी पाकर एक गुंडा पति किस तरह बर्फ की तरह धीरे-धीरे पिघलता है – यही कहानी थी!
याद है बाबू, जयमाला पहनाने की वो कहानी – जब तुम्हारे गुंडा मित्रों ने मेरा बुरा हाल किया था? जैसे ही मैं तुम्हारे गले में माला पहनाने पहुंचती वो लोग तुम्हें दो फुट ऊपर उठा लेते और मैं हताश निराश और ठगी सी रह जाती! तुम भी तो खूब आनंद लूट रहे थे। मुझे परेशान करने में तुम्हें भी तो खूब मजा आ रहा था! लड़कियां दांत फाड़ फाड़ कर हंसती थीं और लड़के अलग से उछल कूद कर रहे थे! लेकिन तभी मैंने मौका पा माला को हवा में फेंका था और वो ठीक तुम्हारे गले में जा पड़ी थी!
तब .. हॉं हॉं .. तब उन पलों में तुमने मुझे नई निगाहों से परखा था!
मेरी हुई जीत पर खूब तालियां बजी थीं, याद है न? और तब तुमने भी मुझे अतिरिक्त दुलार के साथ जय माला पहनाई थी। यह हमारा पहला संगीन शॉट था।
और याद है न बाबू, जब तुम मुझे ब्याहने आये थे?
मैं वेदी पर बैठी थी। तुम आये थे – एक तूफान की तरह! एक खाये दस लटकाये तुमने पूरे वातावरण को चलायमान कर दिया था। नशे में धुत तुम्हारी आंखें मशालों सी जल रही थीं। और फिर .. हाहाहा जब बाबू तुमने आसन पर बैठे पंडित की ओर आंख मारी थी तो गजब हो गया था!
पंडित घबराया था। वह तो उठ कर भाग जाना चाहता था – पर किसी ने पीछे से पकड़ कर उसे बिठा लिया था। मैं घूंघट के भीतर से ही यह सब देख रही थी। ओ बाबू! तुम्हारी इस अदाकारी को देख मेरा मन मयूर झूम उठा था। हंसी का एक चक्रवात मुझ में भर गया था और मैं ठठा कर हंस पड़ना चाहती थी। लेकिन ..
“ओ नेहा! वॉट ए शॉट! याद है बाबू जब तुमने मेरी प्रशंसा की थी क्योंकि मैंने तुम्हारे उस आगमन पर जो क्लोजप शॉट दिया था वो बेजोड़ था! मेरा चेहरा पीला जर्द पड़ गया था, ऑंखें बुझ गईं थीं, मैं कांप रही थी और चौधार आंसू मेरी आंखों से बह रहे थे। मेरे होंठ कांप रहे थे और मैं अपने इष्ट का स्मरण कर रही थी। लग रहा था – कोई दानव मुझे टुकड़ों टुकड़ों में काटे दे रहा था .. और मैं ..
“और कोई भी इससे अच्छा अभिनय नहीं कर सकता!” डायरेक्टर श्री माली का यह कथन आज भी याद है मुझे! “तुम नाम कमा लोगी नेहा!” उनका आशीर्वाद था।
और .. और .. याद है बाबू – हमारा उस रात का वो अनूठा मिलन?
एकांत था – निरा एकांत! हम दोनों को जैसे किसी डिबिया में बंद करके कोई अंधेरी कोठरी में रख कर भूल गया था! ये पोपट लाल की हिदायतें थीं। उसने साफ साफ कहा था कि अगर किसी भी सूरते हाल में हमें खोज लिया खुड़ैल ने तो हमारी जान की खैर नहीं थी। ओर पोपट लाल का भी जहाज डूब जाना था – वह भली भांति जानता था। उसने तो मेरे ही आग्रह पर हामी भरी थी और .. और ..
और उस सजीले-छबीले एकांत में उस दिन उस दुलहन बनी मेरे भीतर न जाने वासना का भूत कैसे कूद पड़ा था? मैं सजी वजी रोमी की ब्याहता प्रेमाकुल हो अपने पति पुरुष को पुकार रही थी .. टेर रही थी – पपीहे की तरह!
“आई हैव कम नेहा!” लेकिन मेरे सामने खड़ा सलीम मुसकुरा रहा था। “यू नो नेहा – हाऊ मच आई लव यू? मैं अपना सब कुछ तुम्हारे नाम लिख दूंगा, डार्लिंग!”
“तड़ाक!” आज न जाने कैसे मैंने सलीम के मुंह पर तमाचा जड़ दिया था। “बेशर्म!” मैंने उसे गाली दी थी। “मैं .. मैं .. किसी की पत्नी हूँ पागल!” मैंने उसे ललकारा था।
फिर से आजाद हुई मैं संभली थी। मैंने मन को खूब समझाया था। लेकिन मेरा पागल मन उस दिन बेकाबू हो उठा था, बाबू!
“ओ नेहा! कहां कहां नहीं खोजा तुम्हें?” खुड़ैल बांहें पसारे मेरे सामने आ खड़ा हुआ था। “कम कम, माई ज्वेल!” अब वह मुझे बुला रहा था। “तरस गया हूँ तुम्हारे लिये माई स्वीट!” उसने शिकायत की थी। “आजमगढ़ पैलेस तुम्हारे नाम लिख दूंगा नेहा!” वह मुझे प्रलोभन दे रहा था। “मढइया में पड़ा रहेगा ये कंगला विक्रांत और हम दोनों ..?”
“यू – स्टूपिड ..!” मेरी दांती भिच आई थी बाबू। फिर मैंने अपने तन और मन के किवाड़ भडाम से बंद किये थे और खुड़ैल के मुंह पर दे मारे थे। “गेट लॉस्ट!” मैंने जोर जोर से चीख कर कहा था!
और उसके बाद तो तुम थे, बाबू – तुम!
तुम सुहाग रात मनाने आये थे – याद है न बाबू? खूब पी पा कर मस्त गजराज की चाल से किवाड़ें खोल तुम अपनी कविता कुंज में घुसे थे और मुझे बैठा पा ठहर गये थे। तुमने कई पलों तक मुझे देखा था – परखा था और फिर आहिस्ता आहिस्ता चल कर तुम मुझ तक पहुंचे थे!
“ये क्या नाटक है, बन्नो ..?” तुम्हारा तीखा प्रश्न था।
” ” मैं चुप चाप बैठी रही थी।
“सीधे सीधे रास्ते पर आ जाओ!” तुमने हवा में एक भूडोल भर दिया था। “तुम मेरा माल नहीं .. पर हॉं मैं तुम्हारे जी का जंजाल जरूर हूँ!” खूब हंसे थे तुम। “मॉं ने शादी की है – मैंने नहीं! उसे बहू चाहिये थी मुझे नहीं! सेवा करो सास की, मैं चला ..”
और तुम बाहर जाने को मुड़े ही थे, बाबू कि मैंने लपक कर तुम्हारा पैर पकड़ लिया था! ओर याद है न तुम्हें कि किस तरह मैंने ऑंखों में आंसू भर कर रुंधे कंठ से, टूटे फूटे शब्दों में वो अभिनय किया था – ‘न जाओ संइयां’ ओर फिर वो पूरा गीत बजा था। अब मैं तुम्हें रो रो कर रोकती रही थी और अंत में तुम पिघले थे और अचानक ही एक स्वप्निल संसार कैमरे के सामने फैल गया था!
“अब क्या करूं ..?” मैंने स्वयं से प्रश्न पूछा था। मेरा गला खुश्क हो गया था। मेरी ऑंखें तुम्हें ढूंढ रही थीं। मेरा मन किसी भी कीमत पर मान न रहा था। और मैं तुम्हें पाने के लिये बेचैन थी .. पागल हो उठी थी!
“बावली हो गई हो ..?” मेरी अंतर आत्मा बोली थी, बाबू!
“हॉं!” मैंने उत्तर दिया था और उठ कर दुशाला शरीर पर लपेट मैंने उस दिन वो छोटी यात्रा तय की थी – जो मेरे बेडरूम से तुम्हारे बेडरूम तक जाती थी!
और मुझे आज भी खूब याद है बाबू कि मैं पूरी हिम्मत बटोर कर तुम्हारे बिस्तर में घुस बैठी थी!
मेरा दिल धड़ा धड़ धड़क रहा था। मेरी सांसें लम्बी लम्बी हो चल रही थीं .. भाग रही थीं! मैं अपने शरीर को तुम्हारे शरीर के साथ चिपकाये उस गर्माहट के आने का इंतजार कर रही थी जो अतिरिक्त मानवीय होती है – बहुत बहुत अपनी होती है, गुणकारी और जीवनदायनी होती है!
तब तुमने करवट बदली थी!
“हाय राम!” मेरे होंठों से निकला था। मैं कांप सी गई थी। “अब .. अब .. क्या होगा ..?” मैं अनुमान ही न लगा पा रही थी।
और तुमने बहुत हौले से, बहुत धीमे से मेरे कांपते होंठों को चूम लिया था! मेरे गेसुओं से उड़ती सुगंध का पान किया था। मेरा तपता माथा सहलाया था। और मुझे अपनत्व देते हुए साथ ले लिया था। फिर एक अबोला आरम्भ हुआ था और न जाने कब तक चलता ही चला गया था!
“माई लव!” तुम बोले थे एक लम्बे इंतजार के बाद। “यू आर माई लव नेहा!” तुम कहते रहे थे बाबू!
मैं कुछ न बोली थी। मैं तो लता सी तुम से लिपट गई थी। मैं तो अब इंतजार में थी कि वही सब घटेगा – जो घटता है .. और वही सब होगा .. जो होता है! लेकिन ..
“मैं तुम्हें ब्याह लूंगा नेहा तभी प्राप्त करूंगा!” तुम्हारे वो चुनिंदा शब्द मुझे आज भी याद हैं बाबू! “उत्पत्ति कर्ता पूज्य ब्रह्मा जी का एकांकी, मर्यादित, सहमति शुद्ध और प्रेम रत रति कर्म जीवन का ब्रह्म कर्म है! अन्यथा तो ये घोर अपराध है, नेहा!” तुमने मुझे प्रेम पूर्वक सब कुछ विस्तार से समझाया था – उस रात!
लेकिन बाबू – तुम मुझे ब्याहने आते भी तो कैसे? मैंने ही तो तुम्हें मार डाला?
और उस पूज्य ब्रह्मा के एकांकी ब्रह्म कर्म को मेरा ये फूटा नसीब खा गया, बाबू!
सॉरी बाबू! नेहा की रुलाई रुक न रही थी!
मेजर कृपाल वर्मा