कच्ची पक्की सड़क पर मचकोले खाता तांगा महुआ मोहनपुर जा रहा था।

तांगे पर सवार नेहा और विक्रांत चुप थे। नेहा प्रसन्न थी। उसे अहसास हो रहा था कि बम्बई के उस तपते भाड़ से बाहर भाग वो एक मोहक एकांत में चली आई थी जहां अनमोल शांति का राज था! खुला खुला आसमान था। स्वच्छन्द बहती बयार थी। उड़ते फिरते आजाद पंछी थे, आते जाते लोग थे जो सरल और सीधे थे। बहुत दूर कहीं गंगा के विस्तार थे जो नेहा को बुला रहे थे – पुकार रहे थे!

“बम्बई से आये हैं, बाबू ..?” तांगे वाला पूछ रहा था। “हमारे मोहन पुर के विक्रांत बाबू भी उहां हैं!” तांगे वाले ने सूचना दी थी। “सुना है – कभी देखा नहीं!” वह हंस गया था।

“ये विक्रांत बाबू ही तो हैं!” नेहा ने चहक कर कहा था। “अब जी भर कर देख लो!” नेहा ने चुहल की थी।

तांगे वाले ने मुड़ कर उन दोनों को देखा था।

“दर्शन हुए तुम्हारे – हम धन्य हो गये बाबू!” तांगे वाला कह रहा था। “आप के पिता कांत साहब तो हमें पहचानते थे।” तांगे वाला कहे जा रहा था।

“हुक्म हो क्या?” अनायास ही विक्रांत ने पूछ लिया था।

“हॉं हॉं! बाबू हम हुक्म ही तो हैं!” बिफर कर हंसा था तांगे वाला। “पहचान लिया आपने?” हंसी के बीच से बोला था वह। “आप तो तब बहुत छोटे थे ..”

“और तुम अब बूढ़े हो गये हो!” विक्रांत भी रंग लेने लगा था।

पुरानी पहचान अचानक नई जानकारी में बदल गई थी।

“कहां जाना है बाबू ..?” रिक्शे वाला पूछ रहा था।

“अरे, मोहनपुर स्टेट जाएंगे!” हुक्म बताने लगा था। “विक्रांत बाबू हैं – बम्बई वाले!” उसने ऐलान किया था।

महुआ मोहन पुर के अड्डे पर अच्छी खासी भीड़ जमा हो गई थी। जमा भीड़ ने विक्रांत और नेहा को निगाहों में भर भर कर देखा था। नेहा को बहुत अच्छा लगा था। पराई जगह पर यों अचानक ही परिचय पा जाना अनाम खुशियों से भरता है – आदमी को!

“यहां तो सभी जानते हैं तुम्हें बाबू!” नेहा की आंखों में आश्चर्य था।

“तुम्हें भी सब जान जाएंगे!” विक्रांत हंसा था। “यहां का सौहार्द बम्बई से बिलकुल अलग है नेहा!” उसने बताया था। “बम्बई में तो आदमी नहीं चालू पुड़िया बसते हैं! लेकिन यहां की जिन्स शुद्ध भारतीय है।”

“मेरे बाबू की तरह!” नेहा ने मधुर कंठ से जैसे विक्रांत को पुकार लिया था। “अब आ कर पहचान समझ आई!” वह विहंस रही थी।

“आजा! कित्ता इंतजार कराया है तूने नेहा!” बांहें पसारे माधवी कांत ने नेहा का स्वागत किया था और उसे बांहों में समो लिया था। “मैं तो भर पाई तुझे देख कर बेटी!” उन्होंने स्नेह पूर्वक कहा था।

“मुझे भी तो पहचान लो मॉं?” विक्रांत ने व्यंग किया था। “बेटी को पा बेटा भूल गईं?” उसका उलाहना था।

“दो बच्चे दे दो तुम दोनों फिर तो मैं दुनिया ही भूल जाऊंगी विक्रांत!” माधवी कांत कह रही थीं। “मूल से ब्याज बेहद प्यारी होती है बेटी!” उन्होंने आशीर्वाद देते हुए उन दोनों को समझाया था।

नेहा का चेहरा आरक्त हो आया था। मॉं बनने का मात्र विचार ही उसे गुदगुदा गया था।

नेहा ने दूर क्षितिज पर ढलती शाम को देखा था। सूरज धीरे धीरे गंगा की गोद में उतर रहा था और नेहा समझ रही थी कि अब वह समूची रात विश्राम करेगा – गंगा मॉं की गोद में।

और मोहन पुर स्टेट को भी अंधेरे ने अपने अंक में छुपा लिया था – सूरज के उदय होने तक।

“तेरे लिये स्पेशल खाना मैंने बनाया है, नेहा!” माधवी कांत बता रही थीं। “ये देख मड़वे की रोटियां, पालक पनीर, हरी चटनी घी और आम का अचार!”

“फिर मॉं मेरे मुंह में पानी क्यों आ रहा है?” विक्रांत ने बीच में पूछा था।

“तुम्हें कांत साहब का हिस्सा मारने की आदत है न!” माधवी कांत ने उसे याद दिलाया था।

अचानक ही विक्रांत को हा हा हो हो कर हंसते अपने पापा – रमाकांत दिखाई दे गये थे। उन्होंने जैसे विक्रांत की चोरी पकड़ ली थी और अब उसे लाढ़ लड़ा रहे थे।

“ये तो मेरा भी हिस्सा मार जाता है मॉं!” नेहा ने भी शिकायत की थी।

और वो तीनों खूब हंसे थे।

चिड़िया चहक रही थीं तो नेहा ने अनुमान लगा लिया था कि सवेरा हो गया था।

विक्रांत को बिना जगाये वो उठी थी और चारों ओर फैल गये उजास में उसने घर द्वार को तलाशा था। अपने बेड रूम के बाहर बने छोटे भव्य मंदिर में चटाई पर बैठी माधवी कांत ध्यानावस्थित मुद्रा में परमात्मा में लीन थीं। जब नेहा ने श्रद्धा पूर्वक उनके चरण स्पर्श किये थे तो उन्होंने उसे हाथ के इशारे से साथ ही बिठा लिया था।

नेहा भी अर्ध निमिलित आंखों से राधा कृष्ण की मूर्तियों को देख प्रेमाकुल हो उठी थी। उसका मन स्वतः ही कृष्ण भावामृत का आनंद उठाने लगा था। उसे अचानक ही अपनी मॉं पूर्वी विश्वास याद हो आई थी।

“आ! तुझे तेरा घर द्वार दिखा दूँ!” माधवी कांत ने पूजा से निवृत्त होकर नेहा को पुकार लिया था। “ये कमरा खरगोशों का है। देख कित्ते सारे शरारत में मशगूल हैं!” हंसी थी माधवी कांत। “दोस्ती कर लेना इनसे। खूब खेला करेंगे तेरे साथ।” उनकी राय थी।

प्रसन्न मना नेहा ने बेहद दुलारती निगाहों से उन खरगोशों को देखा था।

“अरे पूरन मल!” माधवी कांत ने पुकार लगाई थी तो पूरनमल सामने आ कर खड़ा हो गया था। “बगीचे में डाल हमारी कुर्सियां!” वो बोली थीं। “वहीं चाय लगा दे!” उनका आदेश था।

और जब वो दोनों बगीचे में बैठी चाय पी रही थीं तभी – मौली उनका कद्दावर कुत्ता उनके पास आ बैठा था। नेहा ने भी नई निगाहों से मौली को देखा था। भूरे रंग का मौली बेहद आकर्षक लगा था नेहा को!

“तुझे पहचान गया है!” माधवी कांत बता रही थीं। “ये बड़ा ही प्यारा जीव है नेहा!” उन्होंने दुलारा था मौली को।

नेहा का भी मन हुआ था कि मौली को छू कर देखे!

“दीदी से हाथ मिलाओ मौली!” तभी माधवी कांत ने आदेश दिया था।

“वी आर फ्रेंड्स!” कहते हुए नेहा ने भी मौली से हाथ मिलाया था। “एंड यू आर सुपर्व मौली!” नेहा से रहा न गया था तो मौली की प्रशंसा की थी।

अब जा कर नेहा ने ध्यान से देखा था कि बगीचा कितना सुंदर था। झाड़ी गुलाब की हैज लगी थी ओर फूल खिले थे। फूलों की क्यारियां भी कायदे से बनी थी। गमले और कुछ कट आऊट थे जिनमें फूलों के पौधों को रोपा गया था। दूर के कोने में खाद पड़ी थी और पानी देने की झारी साथ में पड़ी थी। हरी कच्च घास का लॉन भी बेजोड़ था।

“आपका बगीचा ..” नेहा कहने लगी थी।

“तेरा है नेहा!” माधवी ने स्नेह पूर्वक कहा था। “मैं तो बस ..” उन्होंने नेहा को आंखों में भर कर देखा था। “मेरी मनभावन हो!” उन्होंने नेहा के सर पर स्नेह का हाथ फेरा था। “लिखता तो था ये तुम्हारे बारे में पर जब तक आंखों से न देख लो सब्र नहीं आता नेहा!”

“ये सब खेत खलिहान भी?” नेहा का अगला प्रश्न था।

“हॉं हॉं! ये सब तुम्हारा ही है! वो आमों का बगीचा भी और वो देख उधर सर्वेंट क्वाटर बने हैं! पूरनमल का परिवार वहीं रहता है ओर सभी नौकर वहीं रहते हैं। कभी दिखाऊंगी तुझे!” वह हंस रही थीं। “मेरा मन तो अभी तुझे देखते देखते ही नहीं भरा नेहा।”

“तो अब मैं कहां जाऊं?” विक्रांत पीछे आकर खड़ा हो गया था। “मेरी चाय कहां है मॉं?” उसने हंसते हुए पूछा था।

“आ बैठ!” माधवी कांत ने विक्रांत को पास बिठाया था। “अरे पूरन मल! छोटे साहब की चाय भी लगा दे।” उनका आदेश था।

सच कहती हूँ बाबू कि न जाने कैसे और क्यों मेरी आंखों के सामने आम का बगीचा देखते ही आजमगढ़ और महुआ मोहन पुर आमने सामने आ खड़े हुए थे।

एक ओर तुम थे – मेरे प्रेमिल पुरुष और दूसरी ओर मेरी खाल को खाता खसोटता खुड़ैल था। और .. और झूठ नहीं बोलूंगी बाबू मैंने उस दिन खुड़ैल में जोर की लात जमाई थी और भाग कर मैं माधवी कांत की गोद में जा बैठी थी!

लेकिन बाबू अधूरा ही रह गया हमारा वो सपना!

सॉरी बाबू! माई मिस्टेक!

आई एम वैरी वैरी सॉरी! नेहा की आंखें सजल थीं।

मेजर कृपाल वर्मा

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