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स्नेह यात्रा भाग दस खंड चार

sneh yatra

सूखी जीभ ने मुंह में अटक कर बताया है कि एक चिकट थूक का थक्का अंदर गले तक जम कर बोलती बंद कर गया है। मैंने तनिक उलम कर अंजली भर पानी मुंह में सूंत गरगराया है ताकि अंदर का थक्का घोलायित होकर मेरी जान छोड़ दे। यमुना का पानी स्वादिष्ट लगा है। लगा है इस पानी में अनेकानेक जीवन तत्व विद्यमान हैं और यमुना अपनी इसी महानता के लिए पूज्य है। मैं एक के बाद दूसरी अंजुरी भर-भर कर पानी पीने लगा हूँ – जैसे अब तक इन जीवन तत्वों से वंचित कमी पूरी कर लेना चाहता हूँ।

“थक गए ..?” उस पार बैठी सोफी ने पूछा है।

“नहीं तो! पर ये नदिया ..?”

“नदिया ..? हाहाहा! तुम क्या नए प्रेमी हो जिसके सामने ये स्थितियां उभरती हैं?”

“ताना मारोगी तो जरूर पार कर जाऊंगा ..”

“और यूं पड़े भी कब तक रह सकते हो?”

“जब तक तुम पास खड़ी रहोगी ..”

“परछाइयों से खिलवाड़ करना खतरनाक होता है!”

“लेकिन मैं तो सारे खतरे सर पर उठाए हूँ। फिर क्यों डरूं?”

“पर महाबली कहीं पहुंचोगे भी या ..?”

“आज नियति की निरख परख में निकला हूँ। देखता हूँ कहॉं ले जाती है।”

“तुम जिद्दी हो!”

“हूँ तो!”

“मैं चली!”

“जाओ!”

सोफी के जेहन से उतरते ही मुझे अपनी ही बात याद आती है। अपनी नियति मुझे एक प्रवंचना लगने लगती है जो अंधेरे में मुझे ठगती रहती है। ये दाना डालती है – और मैं हर बार उसे निगल जाता हूँ और जब परिणाम सामने आता है तो फसाना दूसरा ही होता है।

एक सर्द हवा बदन पर काबू पाती लगी है। मेरे अंग प्रत्यंग अंदर धंसती ठंडक के साथ ठंडे पड़ते लगे हैं। मुझे एक कमजोरी का एहसास होता लगा है। उसी वक्त मेरे अंदर का अहंकार बोल उठता है!

“उठते हो या गिन दूं गिरो में?”

“अरे यार ..?”

“यार प्यार कुछ नहीं! नो भाई बंदी! चलो उठो!” अहंकारी दलीप इशारा पा कर उठ खड़ा हुआ है।

चारों ओर मद्धिम फूटते प्रकाश में पैनी नजरें चुभो कर मैं कोई नदी पार करने का उपाय खोज लेना चाहता हूँ – कोई नौका, पेड़ का कटा तना या अन्य कोई तैरने वाली वस्तु जो मेरा सहारा बन जाए बस! निगाहें डोल कर लौट आई हैं और एक करुण कहानी का अंत कर गई हैं।

ठिठका सा मैं अब इस शांत बहती जलधार के पारावार नाप लेना चाहता हूँ। फिर अपनी अज्ञानता के मात्र एहसास पर खीज उठता हूँ। मैं अपने आप को गरियाने लगता हूँ – तुम तो साले हो ही गधे! तुम क्या जानो कि धारा के वेग से उसकी गहराई भी पता चल जाती है।

गहराई शब्द याद आते ही मैं अपने अंदर ही अंदर कुछ नापने लगता हूँ। शायद इन चंद खतरे के पलों में मैं जरूर एकाध इंच बढ़ गया हूँ। बढ़ने की यही खुशी मुझसे एक और खतरे से जूझने को कहती है। लगा दे छलांग दलीप! अगर पार हुआ तो उस पार और डूब गया तो गया!

बिना किसी कायर भाव की अनुमति लिए मैं इसी संकेत पर शांत जलधार के धरातल पर छपाक से अपने शरीर को दे मारता हूँ। क्षणांश के लिए मैं उसी ठंडे धरातल पर जड़ जाता हूँ और पानी की ऊपरी सतह तक उभर आता हूँ। हाथ स्वचालित गति से पानी को कौली में भर-भर कर पीछे फेंकने लगे हैं और शरीर अग्रगामी हो गया है। मैं एक निर्बाध गति पा गया हूँ। शांत वातावरण हाथ के छपाकों से खिन्न हुआ कोसने लगता है। मुंह में हंसती खेलती लहरें पानी भर जाती हैं तो मैं छोटी-छोटी कुल्लियां कर के पानी बाहर फेंक देता हूँ और तोले दो तोले पानी जो अंदर चला जाता है गांठ की ठंडक मुझ में छोड़ देता है। मेरी निगाहें धुंधलके में मिले कगार को हर बार तलाश आती हैं, फासले से लड़ आती हैं और मुझसे गतिमान रहने को कह जाती हैं। मेरे शरीर से बंधे कपड़े मुझे कोई जुड़ी इकाई से लग रहे हैं पर कभी कभार खलने लगते हैं क्योंकि ये एक अनचाही बाधा बन जाते हैं।

फासला घट जाता है और मेरा साहस हर बार उस पार को चुनौती दे आता है। मैंने अपनी बची जान की टोह ली है तो लगा है सात समुंदर पार कर जाने तक मैं नहीं थकूंगा! अपनी इस अथक शक्ति की खोज पर मैं खुश हूँ।

किनारे के बिलकुल पास पैर टिका कर मैं खड़ा हो गया हूँ। आधा बदन पानी से बाहर आते ही ठंडी हवा की गिरफ्त में आ जाता है। मैं जड़ियाने लगता हूँ। किनारे पर खड़ा-खड़ा मैं निर्वसन हो गया हूँ और शरीर हवा की तानाशाही के सामने पिटता लग रहा है। मैं वापस पानी के परिधान में घुस जाना चाहता हूँ पर यह जान कर कि ये सही उपाय नहीं है अपने किसी अन्य तोड़ को खोज लेना चाहता हूँ जहां हवा सीधा घात न कर पाए।

दो कदम आगे बढ़ते ही पैर जवाब दे गया है। एक असह्य वेदना के सीखचों में जकड़ा मैं परास्त होकर गिर जाना चाहता हूँ। वही मेरा अहंकार आकर मुझे साध लेता है – यों मत गिरो दलीप! इस तरह अपने आप को हालात के हवाले मत करो। नदी के इस कछार में पड़े रहे तो जरूर पकड़े जाओगे।

मैं तीसरा कदम आगे बढ़ाने की हिम्मत टटोल रहा हूँ। दांती भींच की अपने आप को दुत्कार रहा हूँ, गरिया बैल की तरह कई तरह के चोभाओं से मार की है तो साहस हुआ है। तीसरे पैर पर शरीर का बोझ आते ही कच्चे बांस की तरह पैर लचक गया है और मैं धरती देखते-देखते बचा हूँ। वही गन्ने की मदद करती टेक याद हो आई है।

आगे बढ़ कर ठिकाना खोज लेने की चाह के चाबुक जब मेरी डूबती गैरत की पीठ पर बजे हैं तो मैं दो हाथों और एक पैर के सहारे उठे कगार पर चढ़ गया हूँ। भीगे कपड़ों से लिपटी रेत छिटक कर एक आत्मीयता जाहिर कर रही है और मेरे बदन की गरमी का भारी अंश खाती लग रही है।

मुझे लग रहा है कि मैं अब ठंडा हुआ कि जब ठंडा हुआ!

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

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