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स्नेह यात्रा भाग आठ खंड तेरह

sneh yatra

“बाई द वे एक अहसान पूछ लूं – इजाजत हो तो?” नवीन ने एक चुभते बेगाने भाव को दो दोस्तों के बीच कटे बकरे की तरह उलटा लटका दिया है।

मैं इस उलटे टंगे बकरे की कुर्बानी से एक कुंठा के साथ बंध गया हूँ। उसकी धमनियों से टिप-टिप बहता खून एक दोस्ती की आहूति पर चढ़ती अच्छाई है जो अब देखते देखते चुक जाएगी!

“पूछ लो!” मैंने सर्द आवाज में उत्तर दिया है।

मैं जानता हूँ कि जो हमारे बीच कुछ लगाव संबंध था वो टूट गया है। जो एक सुखद मैत्री का भाव कभी गले से लिपटने को बाध्य करता था अब नहीं रहा है। हम दोनों अपने-अपने पक्षों के बेतुके बचावों के लिए अब जूझ जाएंगे, लड़ जाएंगे, भिड़ जाएंगे और एक दूसरे को काटते तरांसते रहेंगे और फिर ..?

“मुझे चुनाव में तुम्हारी मदद चाहिए!”

“जितना बित है जरूर दूंगा!”

“मुझे तुमसे एक वायदा भी चाहिए!”

“क्या?”

“त्यागी से कट कर दो!” नवीन ने कट शब्द किसी सांप के मुंह से तोड़ कर विषेला दांत जैसा मेरे हाथ में थमा दिया है।

नवीन वास्तव में होशियार और पैंतरे का चुस्त लगा है। वह जानता है कि त्यागी को परास्त करने के लिए उसे कहां से काट छांट करनी है। लेकिन जो वायदा नवीन मुझसे ले रहा है वो वायदा मुझे नंगा करके रख देगा। मुझे त्यागी से नहीं अपने आप से भय लग रहा है।

“वायदा करना एक ओर और वायदा तोड़ना दूसरी ओर .. और ये तोड़-फोड़ ..?”

“हां! तोड़-फोड़ का नाम ही राजनीति है!”

“मुझे भली नहीं लगती।”

“लेकिन तुम तो मेरे लिए कर रहे हो! मत भूलो दलीप हम एक दूसरे का संबल हैं, हम साथी हैं, हम उम्र हैं और हमारी जिम्मेदारियां समाज के प्रति समान हैं!” नवीन ने अब मुझे शब्द जाल में बांध कर बहकाना चाहा है।

“नवीन! मैं वायदा करके नहीं तोड़ता। तुम्हारी मदद जी जान से करूंगा पर ..”

“ओके दलीप! जरूरत पड़ी तो मांग लूंगा! चल, खाना खाते हैं।”

मैं और नवीन खाना खाते-खाते देस-विदेस के बारे में उखाड़-पछाड़ करते-करते ठंडे निवाले निगलते रहे हैं। नवीन एक निराशा को पी कर भी स्वस्थ लग रहा है। वायदा न पा कर भी उदास नहीं है और न उसने मेरा कोई अहित सुझा कर अपने किए एहसान गिनाए हैं। मैं नवीन से डरने लगा हूँ। उसमें अंदर गहरी खाइयां खुदी लगी हैं जहां हर भारी भरकम बात समा जाती है।

नवीन से छुटकारा पाते ही मैं फैक्टरी की ओर भागा हूँ। खूब तेज भागता रहा हूँ और अपनी सामर्थ्य नापता रहा हूँ। नवीन आज फिर एक विंड स्क्रीन पर चिपकी चुनौती सा मुझ पर हंसता लग रहा है। मैं साफ-साफ शब्दों में अपना मत पेश करता कोई हारा खिलाड़ी लग रहा हूँ जो हार खा कर भी हार से सहमत नहीं है।

“मुक्ति!”

“सर, आप पहुंच गए?”

“हां! तुम यहीं चले आओ!” कह कर मैंने इंटरकॉम काट दिया है।

मुक्ति के आने से पहले मुझे कोई युक्ति सोचने का फिकर चढ़ा है। मैं हर हड़ताल, हर उपद्रव और हर विरोधी आवाज को इस ढंग से कुचलना चाहता हूँ कि वो आवाज मरे नहीं बल्कि अपना पक्ष बदल दे। मैं स्टाफ की बुराई नहीं चाहता, उनकी रोजी-रोटी पर लात नहीं मारना चाहता या कि उन्हें काम करने के लिए प्रेरित करना उचित समझता हूँ।

“मुक्ति, कपूर आ सकता है?”

“देख लेते हैं सर। मान सिंह को ..”

“नहीं! किसी और को बुलाने भेजो, चुपचाप!”

मुक्ति बाहर चला गया है। कपूर ज्यादा दूरी पर नहीं रहता। मुझे पता है कि कपूर जरूर आएगा!”

“कपूर! तुम्हें क्या चाहिए?” मैंने सामने बैठे घबराए कपूर से पूछा है।

“सर! ये डांगरी पहन कर काम पर आना ..?”

“मैंने पूछा है – तुम्हें क्या चाहिए?” मैंने अपना प्रश्न दोहराया है।

“सर ..” कपूर चुप है।

“नौकरी नहीं चाहिए?” मैंने सवाल पलट दिया है।

कपूर भय से कांप उठा है। मैं जानता हूँ कि कपूर की आंखों के सामने घर, गृहस्थी, बढ़ती मांगें, कीमतें तथा आमदनी सभी घूम-घूम कर यही प्रश्न पूछ रही हैं जो मैंने पूछा है।

“देखो कपूर! कल अगर हमने तुम्हें .. सिर्फ तुम्हें ही निकाल दिया तो तुम्हारा साथ कोई नहीं देगा। हम सिर्फ यही चाहते हैं कि तुम इस हड़ताल-वड़ताल में सक्रिय भाग मत लो।”

“सर! वह ..” कपूर ने बोलने का प्रयत्न किया है।

“तुम पढ़े लिखे समझदार व्यक्ति हो। यों तनिक झूठ-मूठ हू-हल्ला में पड़ कर बात खत्म कर दो! सांप मरे न लाठी टूटे ..” कह कर मैं हंस गया हूँ।

कपूर तनिक हंसा है। मैं जानता हूँ कि उसको बात समझ आ गई है। जो जितना ज्यादा पढ़ा लिखा हो उतना ही ज्यादा कायर होता है। कपूर को नौकरी से कहीं ज्यादा मोह है। गोपाल या जीत जैसी कच्ची और कठोर भावाभिव्यक्ति से कपूर आहत नहीं है। वह मान गया है।

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

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