कविता
ओस पी कर दिन जागा है, उजालों से डर कर अंधेरा भागा हैै खामोशी पहरे पर खड़ी है, कोलाहल को दिन सौंपना बाकी है। धुंधलका आन धमका है,साथी अभी भोर होना तो बाकी है। मूंक काफिले बादलों के, रंग रूपहले में बदन बॉधे संघर्षों के साथ उठ चले हैंं, बरसने तक की नियति जीने को शांत खड़े हैं पहाड़़ क्योंं कि, अभी टपर-टपर का शोर होना बाकी हैै।। कृपाल