आज 26 जनवरी 2022 है और कल की सी बात है – 26 जनवरी 1973!
पूरा घटनाक्रम मुझे याद है। याद भी क्यों न हो – ये घटना थी भी अभूतपूर्व! हमारी रेजीमेंट 223 मीडियम 1971 के युद्ध में भारतीय सेना के तोपखाने की सर्वश्रेष्ठ यूनिट का पद पा गई थी। और यही कारण था कि कुल तीन साल पुरानी इस रेजीमेंट को 26 जनवरी 1973 के गणतंत्र समारोह में साझी होने का निमंत्रण मिला था। रेजीमेंट को 1968-1970 के दौरान बेलगांव में खड़ा किया गया था और मैं रेजीमेंट का पहला ऑफीसर था जो बेलगांव पहुंचा था और मुझे रेजीमेंट का प्रथम कमांडिंग ऑफीसर होने का श्रेय मिला था।
1970 में 223 मीडियम रेजीमेंट के देहरादून स्थित 25 डिवीजन में पहली बार सम्मिलित किया गया था। 1971 के नवंबर महीने में ही हम फिरोजपुर फाजिलका सेक्टर में युद्ध लड़ने चल पड़े थे। सैनिकों के लिए युद्ध में जाना एक बड़ा सौभाग्य माना जाता है क्योंकि रेजीमेंट का इतिहास लिखने के लिए युद्ध में प्राप्त की उपलब्धियां ही महत्वपूर्ण होती हैं।
रेजीमेंट युद्ध में जा रही थी। मैं युद्ध में जा रहा था। मेरा बेटा आशीष तब कुल 6 माह का था और मैं भी तब 30 साल का था। जवानी जैसे जंग को चुनौती देने चल पड़ी थी – ऐसा लगा था मुझे। कुसुम और मेरा बेटा घर लौट रहे थे। मुझे खूब याद है जब मेरे पैर छूते वक्त कुसुम की आंखों से आंसू टपक गये थे।
“नहीं कुसुम नहीं!” मैंने स्नेह पूर्वक कुसुम को वर्जा था। “तुम्हारे ये आंसू ..”
“श्रद्धा के आंसू हैं!” कुसुम का उत्तर था। “एक वीर सैनिक के प्रति श्रद्धा ..” कुसुम का गला रुंध गया था।
मैं कृतार्थ हो गया था। न जाने क्यों मेरे मन ने कहा था – तुम नहीं हारोगे कृपाल! तुम एक सती का आशीर्वाद लेकर चल रहे हो युद्ध में! विजय होगी – और अवश्य ही होगी – मेरा मन भी मान गया था।
फिरोजपुर के किले में हमारा ऑफीसर मेस लगा था।
जैसे हम ही राजा थे और अब फिरोजपुर हमारी जागीर थी। यह भी सच था क्योंकि फिरोजपुर बराज जो कि सतलज नदी पर बनी थी सामरिक दृष्टि से एक बहुत ही महत्वपूर्ण टारगेट था। जहां हमें इस बराज के फायदे थे, वहीं दुश्मन के लिए भी ये एक गेटवे टू दिल्ली था। अगर दुश्मन किसी तरह से बराज पार कर जाता तो आगे फिरोजपुर शहर ही था और उसके बाद तो दिल्ली का रास्ता भी खुला था।
लेकिन हम सभी जानते थे कि ये एक असंभव अभियान था। हमें उम्मीद थी कि दुश्मन का आक्रमण खेमकरन पर ही आयेगा और वहां हमारी मुकम्मल तैयारियां थीं। चूंकि पूर्वी पाकिस्तान में दुश्मन मार खा रहा था ओर खबरें आ रही थीं कि ढाका कभी भी हमारे हाथ आ सकता था, अत: पंजाब सेक्टर में दुश्मन का आक्रमण होना लगभग तय था। पाकिस्तान ने ठान ली थी कि वो पूर्वी पाकिस्तान की हार की भरपाई पंजाब को लेकर करेगा और सच में ही पाकिस्तान ने अपनी पूरी ताकत युद्ध में झोंक दी थी।
लो जी! हम पर दनादन फायर आ रहा था।
सतलज के उस पार हमारा एक बटालियन ग्रुप तैनात था। चूंकि बॉडर कुल 10 किलोमीटर ही आगे था अत: बाकी की फॉरमेशन सतलज के हमारी ओर ही तैनात थी। हां! तोपखाने के तीन ऑफीसर तैनात थे और पूरी डिवीजन आर्टिलरी हमारे हुक्म के इंतजार में थी। हम सब की आंख खेमकरन पर लगी थी और हमें उम्मीद थी कि ..
लेकिन हुआ तो गजब ही था।
दुश्मन एक टेंक ब्रिगेड ग्रुप लेकर हम पर चढ़ बैठा था। हमारी अग्रिम चौकियों को रोंदता हुआ वह शहीद स्मारक तक आ पहुंचा था। पहली बार ही था जब टेंकों के सामने टेंक न होकर पैदल सेना अड़ी थी ओर जान हथेली पर लेकर लड़ी थी। तोपखाने का फायर खुला था। कैप्टन डी के शर्मा बराज के साथ बनी स्टील टावर पर बैठा था और उसे पूरा सामने का दृश्य नजर आ रहा था। उसने तोपखाने का फायर खोला था और चढ़ाई करते दुश्मन के कदम रोक दिये थे।
दुश्मन के पास पैटन टेंक थे जिन्हें किंग ऑफ दी बैटल कहा जाता था। और अब उनका मुकाबला कर रही थी हमारी पैदल सेना। लेकिन आज गजब ढाने का नम्बर तोपखाने का था। हमारी 130 एम एम तोपें रूस की बनी थीं। इनमें टेंकों को तोड़ने के लिए खास तौर पर गोले बने थे। ये गोले टेंक के भीतर घुस कर फटते थे और पूरे टेंक को नष्ट कर देते थे। टावर पर बैठा डी के अब दुश्मनों की होली दीवाली मना रहा था। एक के बाद एक टेंक धराशायी हो रहा था लेकिन दुश्मन का जोर जुल्म कम होता ही न लग रहा था।
गंभीर स्थिति पैदा हो गई थी।
दुश्मन के टेंकों का ये ब्रिगेड ग्रुप न रुक रहा था, न झुक रहा था और न ही हार मान रहा था। हमारी सेना में इन टेंकों ने कयामत बांटी थी। लहूलुहान हुए सैनिक जान पर खेल कर लड़ रहे थे। मौतें हो रही थीं लेकिन हम बेपरवाह हुए लड़ रहे थे। अचानक ही बाएं से टेंकों का एक ट्रुप छूटा था और बराज पर आ चढ़ा था। पहला टेंक बराज के बीचो बीच आ पहुंचा था और अन्य दो भी खरामा-खरामा बराज पर आगे बढ़ रहे थे।
एक कोहराम जैसा खड़ा हो गया था। अगर ये टेंक बराज पार कर जाते और बाकी का टेंक ग्रुप भी कनैक्ट हो जाता तो फिरोजपुर हमारे हाथ से निकल जाता। लेकिन तभी बराज के उड़ाने के आदेश पहुंच गये थे। बराज के मध्य का दर उड़ा था तो दुश्मन का टेंक सीध सतलज में जा गिरा था। उसके बाद अन्य दो टेंक भी सतलज में जा गिरे थे ओर क्षतिग्रस्त हो गये थे!
सुबह का धुंधलका था और तभी हमारे वायु वीर आ पहुंचे थे।
अब हमारे तालियां बजाने का वक्त था। एक के बाद दूसरा टेंक कच्चे घड़ों की तरह हवाई जहाजों की मार के नीचे टूटे थे और देखते देखते टेंकों का श्मशान बन गई थी युद्ध भूमि।
फिरोजपुर के नगर वासियों ने हमारी रेजीमेंट 223 मीडियम को सेवियर ऑफ फिरोजपुर का खिताब दिया था और हमें सम्मान सभा में बुला कर हमारा आभार व्यक्त किया था।
और हां! इस घटना से प्रेरित होकर मैंने भी एक कहानी लिखी थी – 24 घंटे! यह कहानी धर्मयुग में प्रकाशित हुई थी और मुझे मेरे पाठकों के प्रशंसा पत्र भी प्राप्त हुए थे।
हमारी रेजीमेंट 223 मीडियम को भी इस युद्ध की जीत में श्रेय मिला था ओर हम आज 1973 की गणतंत्र दिवस की परेड में भाग ले रहे थे।
कड़ाके की ठंड थी। ओपन जीप में खड़ा मैं अपनी बैटरी की अगुआई करता मैं ठंड से न कांप रहा था बल्कि एक उमंग और उत्साह से लबालब भरा था। चारों ओर खूब चहल-पहल थी। पूरा देश ही मुझे देख रहा था और मैं आहिस्ता आहिस्ता सलामी मंच के समीप आता जा रहा था। सामने आते ही मैंने राष्ट्रपति श्री वी वी गिरी को सैल्यूट दागा था। जब उन्होंने मेरी सलामी स्वीकार की थी तो मेरी आंखें चमक उठी थीं। किसी भी सैनिक की जिंदगी के लिए ये एक महत्वपूर्ण मुकाम था।
“पापा! आपने मुझे सैल्यूट दिया था न?” मेरा बेटा आशीष मेरी गोद में बैठा पूछ रहा था। मैं उसका प्रश्न ताड़ गया था।
“हां हां! मैंने तुम्हें सैल्यूट दिया था!” मैंने उसकी बात मान ली थी।
“और मैंने भी आपको सैल्यूट दिया था।” वह चहका था। “देखा था न आपने?”
“हां हां! देखा था बेटे! मैंने उसे दुलारते हुए कहा था और चूम लिया था।
एक सैनिक के सैल्यूट की कीमत सैल्यूट ही होता है! इसे और किसी करेंसी से नहीं खरीदा जा सकता।
1971 की इस गौरवपूर्ण घटना को भारतीय सेना के इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में लिखा गया था और जनरल सैम मानिकशॉ को पहली बार फील्डमार्शल की उपाधि से विभूषित किया गया था। बांग्लादेश बना था और ढाका में हुए पाकिस्तानी फौज के आत्मसमर्पण की कहानी भी लिखी गई थी। विदाई समारोह के बाद धौलाकूआं क्लब में पार्टी थी।
आगंतुकों में फील्डमार्शल सैम मानिकशॉ के साथ साथ चोटी के लोग आमंत्रित थे। देशी विदेशी सब थे ओर सब के लिए व्यवस्था भी थी! आप अपने ढंग से पी सकते थे और उन उन्माद भरे पलों को जी सकते थे – जो भारत की आन बान शान बन चुके थे।
लेकिन हमारा यंग औफीसर्स का जमघट तनिक सा उदास था।
भारत ने इतनी बड़ी जंग जीती थी। सैम मानिकशॉ फील्ड मार्शल बने थे। लेकिन हम लोगों को खाली हाथ छोड़ दिया गया था। हमें तो उम्मीद थी कि कुछ सैलरी बढ़ेगी नहीं तो फ्री राशन मिलेगा। लेकिन वैसा कुछ न हुआ था। कहा गया था – बांग्लादेश बनने में देश का बहुत पैसा लगा था। अब सैनिक कोई धरना घिराव तो करते नहीं और अपनी नाराजगी प्रकट करने का उनका अंदाज भी अलग ही होता है।
पार्टी जोरों पर थी। मादक संगीत की धुन हमें उठाए उठाए डोल रही थी। सैम मानिकशॉ भी एक खूबसूरत यंग लेडी के साथ ठुमके लगा रहे थे। और तभी लैफ्टीनेंट महेंद्र यादव ने उनके कंधे पर टेप मारी थी।
“यस, यंग मैन!” सैम मुड़े थे और महेंद्र से पूछा था। उस सुंदर महिला ने भी महेंद्र यादव की हिमाकत पर उसे घूरा था। “वॉट कैन आई डू फॉर यू?” सैम ने पूछा था।
“सर! यू रिमैंबर वी मैट ऑन डोडा पिकिट?” महेंद्र ने पूछा था।
सैम जानते थे कि वो कभी डोडा पिकिट पर महेंद्र से नहीं मिले थे।
“ओ यस यस! वी मैट महेंद्र!” उन्होंने उल्लसित होते हुए कहा था।
“सर यू नो वी बिकेम फ्रेंड्स .. एंड ..”
“यस यस! वी बिकेम फ्रेंड्स!” सैम ने हामी भरी थी। “सो वॉट नाउ?”
“सर! एक फोटोग्राफ आप के साथ! वी आर फ्रेंड्स!”
“हां हां! बुलाओ फोटोग्राफर को!” सेम तपाक से बोले थे!
और जब महेंद्र और सैम का फोटो हो रहा था तो हम सब हंस रहे थे। लेकिन हमारे सीनियर ऑफीसर महेंद्र को मारक निगाहों से देख रहे थे। लेकिन सैम ने फिर से डांसिंग फ्लोर पर जाकर नृत्य आरंभ कर दिया था।
लेकिन एक छोटे अंतराल के बाद ही महेंद्र ने फिर से सैम के कंधे पर टेप मारा था।
“वॉट नाउ महेंद्र?” पलट कर सैम ने पूछा था। “वी आर फ्रेंड्स आई नो!” सैम का उलाहना था।
“सर! ए फोटोग्राफ विद माई यूनिट औफीसर्स!” महेंद्र की नई मांग थी।
“ओके! कॉल योर यूनिट औफीसर्स!” सैम ने कहा था और नृत्य छोड़ कर फोटो खिंचवाने की तैयारी करने लगे थे।
कोहराम जैसा मचा था। हमारे कमांडिंग ऑफीसर कर्नल औजला की आंखें मशालों सी जल रही थीं। लेकिन करते भी तो क्या? हम सब इकट्ठे हुए थे और सैम के साथ फोटो खिंचवाया था। पूरी पार्टी में लोगों ने उस अद्भुत दृश्य को देखा था। सब लोगों का अंदाज था कि हम लोगों की अब खैर न थी।
दिन का सूरज चढ़ते न चढ़ते हमें उम्मीद थी कि अब कोई न कोई फोन आएगा और हम लोगों के साथ खूब जूतम-पैजार होगी। रात की उस घटना को हम भी कहां भूले थे। लेकिन कमाल ये हुआ था कि दिन ढल गया था रात भी हो गई थी लेकिन कहीं से कोई फोन नहीं आया था।
“सैम इज माई ट्रस्टिड फ्रेंड!” महेंद्र ने खुश होकर नारा दिया था।
“एंड ही इज ए ग्रेट जनरल!” हमारी टोली ने भी सैम की जय जयकार की थी।
“थ्री चियर्स फॉर सैम!” हमने उस शाम को भी जश्न की तरह मनाया था।
