बाज़ार पूरी तरह से सजे हुआ करते थे,वही भीड़-भाड़ बाज़ार में वही रौनक मेले हुआ करते थे,और बाज़ार सजे क्या हुआ करते थे ,आज भी सभी तरह के बाज़ारों में अलग- अलग ही रौनक मेला होता है। अक्सर सुनने में आता है,”अरे!फलाँ बाज़ार चले जाना वहाँ सौदा सस्ता भी मिलता है, और मोल भाव भी अच्छा हो जाता है”। यहाँ जो मोल भाव शब्द है.. माने के अंग्रेज़ी में बार्गेनिंग। खाने-पीने के आइटम को छोड़ कर और सभी प्रकार की चीज़ों में सौदेबाजी की जाती है। खाने-पीने से मतलब है,कि जो बाज़ार में बना हुआ भोजन मिलता है, बस, केवल उसमें सौदा नहीं होता, लेकिन बाकी की सब्जिज़ियाँ और अनेक तरह के खाद्य पदार्थों में तो सौदेबाजी चलती ही है। आप मार्किट में कुछ भी खरीदने जाओ तो यह बार्गेनिंग करने  वालों की अलग ही रौनक होती है। ज़्यादातर सौदेबाजी में हमनें यह अनुभव किया है,कि महिलाएँ ही तेज़ होती हैं। एक चीज़ खरीदने जातीं है, तो इतना मोल भाव करतीं हैं,कि भगवान ही मालिक होता है, बेचारे दुकानदारों का। पुरुष वर्ग हमनें देखा है,की सौदेबाजी में महिलाओं की अपेक्षा थोड़ा पीछे ही रहता है। मार्किट में  सामान खरीदने में ज़्यादा समय नहीं लगता बल्कि जो हम उस सामान को लेकर मोल-भाव करते चले जाते हैं, उसमें लगता है। मोल -भाव कर रहे इन्सान को यह लगता है ,कि शायद दस या बीस रुपये या हद से हद पच्चास सो रुपये बचाकर वो किला फतह कर लेगा, या फ़िर ज़बरदस्त सौदेबाजी कर कोई और ही प्रॉपर्टी खड़ी कर लेगा या फिर रात को दो रोटी न खाकर छह रोटी ज़्यादा खाएगा। क्या है, यह सौदेबाजी …

सौदेबाजी शब्द से हमें हमारा अतीत याद आ जाता है। पूरा अतीत हमारी आँखों के आगे रील की तरह घूमता हुआ नज़र आता है। एक वक्त था,जब हमें शॉपिंग करने का बेहद शौक हुआ करता था,शॉपिंग के नाम पर ख़ासकर जब कभी हमें अपने कपड़े खरीदने हुआ करते थे, तो हम बहुत जल्दी तैयार हो मार्किट की ओर रवाना हो जाया करते थे। कहना तो नहीं चाहते हैं, पर बहुत ही बुरी आदत हुआ करती थी हमारी… दुनिया भर से ज़्यादा वक्त लगा दिया करते थे, कपड़ा पसन्द करने में। मुश्किल से हमें कोई कपड़ा या फ़िर जिस भी ख़ास वस्तु के लिए हम बाज़ार के दर्शन करने आये हैं, पसन्द आ भी जाया करती थी, तो उस वस्तु या फ़िर कपड़े की कीमत को लेकर ही दुकानदार की जान को आ जाया करते थे। इतना भयंकर मोल-भाव करने पर उतर आते थे, कि दुकानदार हमारे पैरों पर गिरने को ही मज़बूर हो जाया करता था, आख़िर में दुकानदार को ही हथियार डालने पड़ा करते थे, और कहना पड़ा करता था,”कि आज के बाद मेरी दुकान पर आप फ़िर कभी मत आना, बिल्कुल सौदा न दूँगा आपको”। उन दिनों जब हम बाज़ार जा यह सब घंटो तक सौदेबाजी किया करते थे,और दुकानदारों से बहस पर बहस करते चले जाते थे,की गई बहस और सौदेबाजी पर हम अपने आप को बेहद बहादुर और होशियार समझा करते थे। और यहीं पर क़िस्सा ख़त्म न करते हुए ,हम अपनी सौदेबाजी के क़िस्से घर आ कर माँ बाबूजी और भाइयों के बीच किया करते थे, हमे बच्चा समझ हमारी इस बुद्धि पर हमे न टोकते हुए हम पर हमारे परिवार के सभी सदस्य हँस दिया करते थे। परिवारजनों की  जो हँसी हुआ करती थी, वो सौदेबाजी पर नहीं बल्कि हमारी बालक बुद्धि पर हुआ करती थी। अपने परिवार वालों की हँसी को हमनें हमेशा ही हौंसला अफ़ज़ाई के तौर पर ही लिया। घर में हमेशा से ही सबकी लाड़ली सन्तान रहें है, तो बस!हमारे ऊपर लाड़ प्यार का असर  कुछ ज़्यादा ही था, सही और गलत में अंतर समझने की बुद्धि थोड़ा ठप्प ही हो गई थी ,हमारी। बचपन से हमनें किसी भी चीज़ का आभाव न देखा था, जो मन में आया कर ही डाला करते थे। परिवार ने हमें इतना स्नेह दिया कि हमारी छोटी-मोटी गलतियों को तो यूहीं नज़र अंदाज़ कर दिया करते थे। लाड़ प्यार में पली-बड़ी औलाद का दिमाग़ थोड़ा सातवें आसमान पर रहता ही है। कहना तो न चाहते हैं, पर सौदेबाजी में तो हम बेवकूफी की कभी-कभी हद ही पार कर दिया करते थे।

सौदेबाजी से हमें हमारे कई क़िस्से याद आ रहें हैं…हुआ यूँ कि एक बार हम छुट्टियों में अपने मायके गए हुए थे। छुट्टियाँ ख़त्म होने जा रहीं थीं, और मायके से हमें अपनी ससुराल वापस आना था। बस,तो हमेशा की तरह माँ और बाबूजी ने हमें हमारा और बच्चों का बजट हाथ में थमाते हुए कहा था,”बेटा जाने का समय आ गया है, अपनी खरीदारी कर डालो”। खरीदारी का नाम आते ही अजीब सी खुशी हमारे चेहरे पर दौड़ जाया करती थी। संयुक्त परिवार होने के कारण सभी बड़े और छोटे परिवारजन हमें  अपनी सलाह देना शुरू कर दिया करते थे,”अरे!उस मार्किट में चले जाना सस्ता सामान भी मिलता है, और फर्स्ट क्लास बार्गेनिंग भी हो जाती है”। इसी तरह से कई मार्किटों के नाम गिना दिए जाते थे।तो बस!फ़िर क्या था,तय हो गया था, कि सरोजिनी नगर मार्किट से इस बार कि खरीदारी करेंगी बुआ।मायके में, भइया भतीजों का काफी  रौनक मेला है, हमारे। भइया भतीजों के भी हम बेहद लाड़ले है, भतीजी हमारी हमारे ही तरह परिवार में एक ही है..

खूब लाड़ किया करती है हमसे। हमारा जाना जब कभी ससुराल से दिल्ली होता है, तो हमसे अक्सर पूछती रहती है, “कब चलेंगे बुआ शॉपिंग पर, में भी साथ ही चलूँगी”। हाँ!एक बात ज़रूर है, हमारी भतीजी के साथ,कि हमारी तरह बार्गेनिंग मास्टर न है। बार्गेनिंग में तो हमनें ही महारत हासिल कर रखी है।

चलो भई फ़िर हम सब हमारी भतीजी सहित तैयार हो गए थे, शॉपिंग के लिए जाने को। मार्किट तय हुआ था, सरोजिनी नगर। घर से टाटा कर गर्मियों की दोपहरी के समय निकले थे। घर के बड़ों ने कह कर भेजा था,”समय से खरीदारी कर घर लौट आना, रात करने की ज़रूरत नहीं है,महानगर है, ये.दिल्ली”। अब निकल तो पड़े थे हम बुआ भतीजी शॉपिंग पर अपनी सुपुत्री सहित, और आ पहुँचे थे, सरोजिनी नगर।


बहुत ही बड़ा और अच्छा बाज़ार है,सरोजिनी नगर। क़ाफी रौनक मेला लगा रहता है, बाज़ार में, ज़्यादातर अंग्रेज़ दिखाई  पड़ते हैं, पूरे बाज़ार में। क्योंकि ग्राहकों का बहुमत अंग्रेजों का है, इसलिए दुकानदार ओने के पौने दाम लगाते हैं, और जमकर एक ही वस्तू पर कमाई कर डालते हैं। अब अंग्रेज़ो को तो यहाँ के मोल-भाव की जानकारी होती नहीं है, जितना दाम दुकानदार लगाते हैं, उतना ही उन्हें दे देते हैं, उस बाज़ार में, यानी के सरोजिनी नगर में यही दुकानदारों और पटरी वालों की कमाई का साधन है। कमाई का ज़्यादा हिस्सा सरोजिनी नगर मार्किट में अंग्रेजों की महेरबानी से ही आता है, अब हमारे जैसे हिंदुस्तानी ग्राहक तो दुकानदार की नैया ही डुबो देते हैं…ठीक देखते हैं न गलत विषय को गहराई में न सोचते हुए हम जैसे ग्राहक तो सौदेबाजी की सीमा ही लाँघ जाते हैं। तो हुआ यूँ  हमेशा की तरह हमनें बाज़ार घूमना शुरू कर दिया था, पूरा बाज़ार घूमनें के बाद हमें मुश्किल से अपने लिए एक कुर्ता पसन्द आया, जो कि एक फेरी वाले भैया पर बाहर लटका हुआ था। सरोजिनी नगर मार्किट में अगर कभी आपका जाना हो तो वहाँ पर पटरी वालों का अलग ही रौनक मेला है, दुकानों से शॉपिंग कम और पटरी वालों से जमकर शॉपिंग होती है, इस बाज़ार में। चलो,भई हमें जैसे तैसे कुर्ता पसन्द आ ही गया था,और हमनें भैया से कुर्ता हाथ में ले पैक तक करवा लिया था..अब कुर्ते की कीमत अदा करने का वक्त था..दुनिया भर की इस एक कुर्ते पर सौदेबाजी तो हम पहले ही कर चुके थे,जैसे तैसे कम से कम दाम कुर्ते के तय करवा भी लिए थे,अब जेब से हमनें पैसे निकाले और दुकानदार भैया को देने लगे, जैसे ही हम दुकानदार के हाथों में पूरे पैसे रखने को हुए थे, वैसे ही हमनें फटाक से पूरे के पूरे पैसे वापिस लिए, और कहा था,”नहीं चाहिए भइया कुर्ता, कुछ ख़ास न लग रहा है,आगे देख लेंगें”। यह कहकर हमारा आगे और पटरी वालों की तरफ़ बढ़ना हुआ था, लेकिन पीछे खड़े भइया का मुहँ देखने लायक था।चेहरा उत्तर गया था,उस इन्सान का जब हमनें हाथ में से पैसे वापस ले एक तो घंटो उस एक कुर्ते के पीछे सौदेबाजी करी और फ़िर यह कहकर की हमें न पसन्द आया है, आपका यह कुर्ता आगे से लेंगें। उस वक्त हमारे द्वारा की गई यह सौदाबाजी या यूँ कह लीजिए बार्गेनिंग आज हमारी समझ से बिल्कुल बाहर है, उम्र के साथ और ज़िन्दगी के तजुर्बों से हमनें जो भी सीखा है , उस हिसाब से तो हम अपनी की सौदेबाजी पर बेहद शर्मिंदा हैं। आज हमें शर्म आती है, अपने किये गए सौदेबाजी के तरीकों पर,जिन पर कभी हम फूला न समाया करते थे। पता नहीं हमारी अक्ल पर कौन से पत्थर पड़ गए थे, कि जब तक दस पच्चास रुपये तक कम न करा लें हमें चैन ही न पड़ता था। आज वक्त ने हमें इतना बदल दिया है,कि हमें सौदेबाजी शब्द से ही चिढ़ महसूस होने लगी है।
खैर!अब जब सौदेबाजी का क़िस्सा छिड़ ही गया है, और बात भी हम हमारी ही कर बैठे है,तो हमें ऑटो वगरैह वाले भइया भी बहुत याद आते हैं,एक-एक पैसे के लिए ज़बरदस्त बहस किया करते थे। कॉलेज के ज़माने में भी इस सौदेबाजी के चक्कर में हमनें न जाने कितने मार्किट छान मारे थे। एक बार तो इस सौदेबाजी के ही चक्कर में हमनें दिल्ली के connaught प्लेस मार्किट को भी छान मारा था। कसम से हद ही कर दिया करते थे,हम भी।
वक्त बदला और हमनें ज़िन्दगी को करीब से देखा। इंसानियत की गहराईओं को समझा,अपने देश के उस हिस्से की ओर करीब से देखा जहाँ की बच्चों के लिए एक वक्त की रोटी कमाना भी मुश्किल हो रहा था। रोटी,कपड़ा और मकान की सच्चाई को बहुत करीब से देखा और समझा।और आज हम खुद पर ही शर्मिंदा होते हुए खुदी से कहते है….क्या है, यह बकवास सौदेबाजी क्यों थोड़े-थोड़े पैसे बचाने के लिए हम  यह भूल जाते है,कि रोटी खाने का अधिकार केवल हमें ही नहीं बल्कि हमारी ही तरह सबको है। क्यों हम यह भूल जाते हैं, कि सबके घरों में बीवी बच्चे होते हैं, हर इंसान की वही दीवाली,होली और सभी त्यौहार होते हैं,जो कि हमारे होते है। लज़ीज़ भोजन पर केवल हमारा ही नहीं सबका अधिकार है। सबका थोड़ा-थोड़ा अधिकार सभी चीज़ों पर हो तो अच्छा लगता है। सौदेबाजी को व्योपार तक हो सीमित रहने देना चाहिए। किसी के पेट पर लात मार कर की गई सौदेबाजी,सौदेबाजी नहीं पाप है। हल्की-फुल्की सौदेबाजी तक ही अपनी खरीदारी को सीमित रखने में ही अपना और सामने वाले का भला है।
बीता हुआ वक्त किसी का भी न लौटा है, लेकिन आने वाले वक्त में हम कोशिश करेंगें की अपने आप को सौदेबाजी का किंग न बनते हुए इंसानियत का किंग बनाये। और अपनी भयंकर रूप से की गई बार्गेनिंग का किसी और सामाजिक कार्य में योगदान करते हुए पश्चाताप करें। किसी वयक्ति विशेष को संकेत न देते हुए, हमे अपने ही द्वारा की गई सौदेबाजी अब पसंद न है। इस लेखन द्वारा आज हम यह प्रण लेते है, कि किसी व्यक्ति विशेष की रोटी के साथ कभी सौदेबाजी न करेंगें जिसका सब पर बराबर अधिकार है।