यों पिटते पिटते आप पागल भी हो जायें तो कौन पूछता है?
भैंस तो लाठी वाला ही ले जाएगा! जीतता तो बलवान ही है लेकिन लड़ेगा तो जरूर इंसान क्योंकि हैवानों की लड़ाइयां तो होती नहीं हैं! हमने अहिंसा का प्रयोग सफलता पूर्वक किया था और कहा था – ये रहा अमोघ अस्त्र और अब हमें कोई हरा नहीं सकता! यह भी आत्मा की तरह अजर अमर है – हमने कहा था!
लेकिन तभी चीन ने हमें पीट दिया!
पीटा भी बुरी तरह से था। उसने हमारी अहिंसा पर तरस तक नहीं खाया था और हमारे गुट निरपेक्ष होने की खूब खिल्ली उड़ाई थी। हम तो गिड़गिड़ाते ही रह गये थे 1962 में लेकिन वह अगले सोपान चढ़ गया था।
आश्चर्य तो था ही कि भारत – एक इतना विशाल देश जिसमें जनसंख्या के ठठ के ठठ भरे पड़े थे चीन के डर की वजह से कांप रहा था – खड़ा खड़ा।
अब आकर हमने प्रश्न पूछा था कि हमें नपुंसक किसने बनाया?
तब अचानक राष्ट्र का बोध लौटा था और बोला था – बाबले बच्चों! सल्तनतें घूरों के घरों में बैठ कर कायम नहीं होतीं! ये तुम्हें किसने समझा दिया कि झोंपड़ियों में रहकर और बिना ढाल तलवारों के तुम इस पैदा हुए बेजोड़ राष्ट्र की रक्षा कर पाओगे? तो क्या तुम लड़ोगे ही नहीं! तुम अपना हक भी हासिल नहीं करोगे! और तुम भाई भाई के नारे लगाते लगाते अपना सर्वस्व दान में दे दोगे?
सवेरा हो गया है! उठो और लड़ना सीखो! चलो लाम पर। उठाओ बंदूक और होने दो धांय धांय का निनाद! तब .. हॉं हॉं तभी कांपेंगे इन बेईमानों के कलेजे! और तभी .. तुम ..!
वक्त का यही आदेश था अत: मैं भी लड़ना सीखने मसूरी एक्सप्रेस में सवार हो इंडियन मिलिट्री एकेडिमि देहरादून में सामरिक प्रशिक्षण लेने चला गया था!
“मेरा नाम अजय मित्र है!” एक मेरा ही हमउम्र था जो अचानक आ मिला था। “लगता है तुम भी आई एम ए चल रहे हो?” उसने अचानक पूछ लिया था। “मैं इंजीनियर हूँ। मुझे लैफ्टीनैंट का पद मिला है। और मैं भी ..”
“ग्लैड टू मीट यू!” मैंने प्रसन्नता पूर्वक अजय से हाथ मिलाया था। “चलो! एक से दो तो हुए!” मैंने भविष्य की ओर इशारा किया था।
“हॉं हॉं! अब तो देश भक्तों का काफिला बनता ही चला जाएगा!” अजय मित्र ने भी खुशी जाहिर की थी।
स्टेशन से टैक्सी लेकर हम दोनों एकेडिमि पहुंच गये थे! वह शनिवार का दिन था – मुझे ठीक से याद है – आज भी!
छुट्टी थी अत: कैडिट गाउन और स्लीपिंग सूट पहने यूं ही घूम रहे थे। हमें आया देख सारे इकट्ठे हो आये थे। अब हम से उनका परिचय होना जरूरी ही था!
“आई एम लैफ्टीनैंट अजय मित्र!” मेरे साथ आये अजय ने अपना परिचय दिया था।
मैं अभी तक सिकुड़ा-सिमिटा चुपचाप खड़ा था। मुझे उन लोगों के इरादे अच्छे न लगे थे!
“स्वागत है लैफ्टीनैंट साहब!” उनमें से एक लंबा चौड़ा कैडिट बोला था। उसने गाउन पहना हुआ था। वह हंस रहा था। “उठाओ अपना अपना सामान अपने अपने सरों पर!” उसने आदेश दिये थे।
“एंड फॉलो मी!” अब एक दूसरे ने हुक्म दागा था। “पहले तुम्हें कंपनी का कंपाउंड दिखाता हूँ!” वह कह रहा था।
“और आप भी शायद कोई जनरल होंगे?” जब मुझे भी प्रश्न पूछा गया था तो मैं सारी कहानी समझ गया था।
हम दोनों का खूब जुलूस निकाला गया था। फिर हमें हमारे केबिन में लाकर छोड़ा गया था और शाम के खाने पर कौन से कपड़े पहनने थे ये बताया गया था। मैस में जाकर भी हम दोनों को दो आइटम की तरह इधर उधर सजाया बिठाया गया था। और जब हम कैबिन में लौटे थे तो टूट चुके थे।
अगला दिन इतवार का था – छुट्टी का दिन! और हम दोनों का कल क्या होगा यह सोच कर ही हमारे पसीने छूटने लगे थे।
“पार्टनर!” मेरे कैबिन का दरवाजा अचानक बोल पड़ा था। मैंने आहिस्ता से किवाड़ खोल कर झांका था। अजय मित्र था। “टैक्सी आ गई है!” अजय ने बताया था। “मैं तो चला।” उसने सूचना दी थी। “चलना हो तो बोलो?” उसका प्रश्न था। “थैंक्स गॉड मैंने टैक्सी वाले का नम्बर ले लिया था!” अजय प्रसन्न था।
संग्राम आरम्भ होने से पहले ही हमारी फौज में भगदड़ मच गई थी – मैंने सोचा था। और जब जंग जुड़ेगी तब तो न जाने क्या होगा? अब मैं अकेला छूट रहा था और जो कल होना था उसने तो मेरे मूंह का जायका ही खराब कर दिया था। तो क्या मैं भी भाग लूँ – प्रश्न था।
“तुम जाओ अजय!” मैं अचानक बोला था। “मैं यूं न भागूंगा!” मैंने अपने इरादे व्यक्त किये थे। “करने दो इनको ये जो करते हैं!” मैंने अब कमर कस ली थी। “एक न एक दिन तो ..?” मैंने अब अपनी आकांक्षाओं को पुकार लिया था!
अब हम संग्राम की बातें करते हैं! देखते हैं कि लड़ाई लड़ना, लड़ाई जीतना और लड़ाई हारना है क्या?
“हार जीत का एक सिलसिला है – कृपाल, ये लड़ाई!” मेरा विवेक अब मुझे बता रहा था। “आज जय तो कल पराजय! आज घी घना तो कल मुट्ठी चना!” वह हंसा था। “विचलित हो जाना ही हार जाना है – और बने रहना ही जीत है!”
“तो बने रहते हैं!” मैंने भी निर्णय ले लिया था।
एक सप्ताह की रगड़ा पट्टी और अनाम विपदाओं के बाद अब मुझे सब सामने खड़ा नजर आ गया था!
“कायर!” मैंने जैसे रण छोड़कर जाते अजय मित्र के लिए अपशब्द कहे थे। “देश की लाज बचाने आये थे तुम और .. और .. अपनी भी लाज न बचा सके!” मैंने उसे उलाहना दिया था।
प्रशिक्षण आरम्भ हुआ था। गजब की गहमागहमी थी। जानलेवा एक भाग दौड़ थी। कभी हम काठ का घोड़ा कूद रहे थे तो कभी रस्से पर लटके थे। कभी क्लास में हम अंग्रेजी का पाठ पढ़ रहे थे तो कभी मैदान में पड़े फील्ड क्राफ्ट की सिखलाई ग्रहण कर रहे थे। कभी खेल कूद हो रहे थे तो कभी हम सिनेमा देखने भी जा रहे थे। मन ने अब सपनों में भटकना बंद कर दिया था और अब मुझे मिलिट्री एकेडिमि अच्छी लगने लगी थी।
अनुशासन के नाम पर अगर हमने बिना स्टाइल के छींक भी दिया तो समझो कि गये काम से!
और हमारा सबसे बड़ा बैरी तो ड्रिल स्क्वैयर बन गया था। हम सबकी लिबर्टी बंद थी और शर्त थी कि जब तक हम ड्रिल स्क्वैयर पास नहीं करते हम बाहर लिबर्टी पर घूमने नहीं जा सकते। एक दिन था या कहो छुट्टी वाला दिन ही था जब हम लिबर्टी पर बाहर देहरादून शहर में घूमने जा सकते थे। और लिबर्टी पर जाने के लिए भी हमारा लिबास तय था। हम सूट टाई और फैल्ट कैप पहन कर ही बाहर जा सकते थे। देहरादून के लोग तो ये जानते थे कि हम कौन थे लेकिन बाहर वालों के लिए तो हम अजूबा ही थे।
लग रहा था कि ड्रिल स्क्वैयर पास करते न करते हमारा ये जीवन तो बीत ही जाएगा! हर बार – बार बार किसी न किसी गलती पर हमें फेल कर दिया जाता था। कोई इक्का दुक्का ही पास होता था। और वो जब लिबर्टी पर जा रहा होता था तो हमारा कोई जानी दुश्मन ही होता था!
आइये देखते हैं कि ये ड्रिल स्क्वैयर आखिर बला क्या था।
यूनिफोर्म टनाटन होनी चाहिये। हेयर कट लिया होना चाहिये। राइफल साफ सुथरी हो और जूते शीशे के मानिंद चमक रहे हों। इसके बाद आपके एक्शन और री एक्शन आते थे। आंखों की पुतलियां तक न घूमें और सीना बाहर की ओर तना हो। जब राइफल के साथ ड्रिल हो रही हो तो उसे एक खिलौने की तरह उछाला जाये ओर महसूस किया जाये! वर्ड ऑफ कमांड के अनुसार हमें चलना, फिरना, घूमना, लौटना और भागना सब करना होता था। शरीर से पसीना चूने लगता था और थकान से चूर चूर होकर ही हम ड्रिल स्क्वैयर से लौटते थे!
एक जंगी मोर्चा था – जनाब!
“यार! हर बार फेल हो जाते हैं – कृपाल!” मेरा नया मित्र मुखोपाध्याय निराश था। “और ये साला होरेशियो ..?” उसने एकेडिमि के सुबेदार मेजर का कोसा था। उसका नाम तो हरनाम सिंह था लेकिन सारे कैडिट उसे इसी नाम से पुकारते थे। कैडिट ने सारे शिक्षकों को उनके नाम दे रक्खे थे!
एक लंबा चौड़ा, गोरा चिट्टा और छह फुट लम्बा सिक्ख था – ये हमारा होरेशियो उर्फ हरनाम सिंह – सुबेदार मेजर! और यूं भी जितने भी हमारे शिक्षक थे सब के सब बेजोड़ थे और अपने अपने क्षेत्र में अपना और कोई सानी न रखते थे! हमारे लिये यही हमारे आदर्श थे और हमें इन जैसा ही बनना था!
“इस बार तो हो ही जाएंगे पास!” मुखो मुझे दिलासा दे रहा था। “पूरी तैयारी करते हैं के पी!” उसका प्रस्ताव था। “अबकी बार किसी गलती की गुंजाइश ही न छोड़ेंगे!” उसका इरादा था जिसके साथ मैं भी पूरी तरह से सहमत था।
हम दोनों रण बांकुरों की तरह इस बार पूरी सामर्थ्य के साथ मुकाबले में उतरे थे। ड्रिल की कवायद पुरजोर चल रही थी। पसीने पसीने हो गये थे हम। उम्मीद थी हमें और उस उम्मीद के सहारे ही मन प्राण को काबू किये हम एक के बाद दूसरा सोपान चढ़ते ही जा रहे थे!
“जी सी वर्मा .. फॉल आउट!” ड्रिल साब हुक्म सिंह ने चिल्ला कर आदेश दिया था।
मैंने स्क्वाड से बाहर आने की ड्रिल करते हुए हुक्म सिंह साब के सामने आकर जोरों से पैर पटक कर ‘थम’ किया था और उनकी आंखों में देखा था।
“नैकेड ऑन परेड!” हुक्म सिंह साब फिर से चिल्लाए थे।
मैं घबरा गया था। मैं परेड पर नंगा खड़ा था – उनका कहना था। लेकिन .. लेकिन नहीं! मैं तो यूनिफोर्म पहने था और मैंने ..
“ये क्या है ..?” हुक्म सिंह साब ने पोइंटर से मेरी कमीज के टूटे हुए बटन को हिलाते हुए पूछा था। “सैविन रैस्ट्रिक्शनस!” उन्होंने तुरंत सजा सुनाई थी और अपनी छोटी डायरी में नोट कर ली थी।
मैं फिर से फेल हो गया था लेकिन मुखो पास हो गया था।
“कहां फंसे आकर यार!” मैंने मुखो से शिकायत की थी। “इतनी पढ़ाई लिखाई अगर कॉलेज़ में करते तो टॉप कर जाते! लेकिन यहां .. बटन टूट जाए तो नैकेड ऑन परेड!” मैंने हुक्म सिंह साब की नकल निकाली थी।
“साला जिराफ है!” मुखो भी गरियाने लगा था। “कसाई है कसाई!” उसने हुक्म सिंह साब को फिर कोसा था। “जान मांगता है! मजाल है कि ..!” मुखो को भी मेरे फेल होने का गम था।
और अंत में मैं भी पास हो गया था। देर आये दुरुस्त आये – हम दोनों ने राहत की सांस ली थी। अब हम दोनों का मन था कि लिबर्टी पर चला जाये और खूब मौज मस्ती की जाये!
उन दिनों हमारे सपने बहुत बड़े बड़े थे लेकिन हमारे मन बहुत छोटे छोटे थे!
लिबर्टी से लौटते लौटते हम देर से पहुंचे थे। हमने खूब जश्न मनाया था। हम दोनों महा प्रसन्न थे। हमें लगा था कि हमने जीवन की पहली जंग जीत ली थी और अब तो हमें रोकने वाला कोई इस धरती पर पैदा ही नहीं हुआ था। लेकिन तभी मुखो दौड़ा दौड़ा चला आया था और बेदम होता हुआ बोला था – यार के पी मर गये! हेयर कट ..?
“जा कर ले ले ना?” मैं बोला था।
“नाई तो चले गये!” मुखो ने मुझे सूचना दी थी। “साला कल तो कबाड़ा हो जाएगा!” वह घबरा गया था।
“कोई नहीं यार!” मैंने उसे धीरज बंधाया था। “आ बैठ मैं करता हूँ कुछ!” मैंने मित्र की मदद के लिए अपने सारे सुख त्याग दिये थे। “अब देख!” मैंने कहा था।
“यार तनिक साइड में ..?” मुखो ने आपत्ति उठाई थी।
“चल बैठ!” मैंने उसे फिर से बिठा कर अपने रेजर से बगल की किनारी काट कर साफ कर दी थी। “अब बोल?” मैंने पूछा था।
सुबह परेड पर जाने से पहले मुखो ने कहा था “यार के पी यह कुछ बाहर जो दिखता है ..?” “थोड़ी टोपी नीचे खींच ले!” मेरा सुझाव था और हम दोनों परेड पर हाजिर हो गये थे!
सब ठीक ठाक चल रहा था। हरी सिंह साब कवायद करा रहे थे। अचानक मैंने होरेशियो को आते देखा था। मैं तनिक डरा था। मैं जानता था कि होरेशियो की नजर गिद्ध की नजर थी! वो न जाने कैसे आसमान से ही सब कुछ देख लेता था और हुआ भी वही था!
“फॉल आउट जी सी मुखोपाध्याय !” होरेशियो ने हुक्म दागा था।
और जब मुखो स्क्वाड से बाहर आकर उनके सामने आकर खड़ा हुआ था तो उन्होंने एक ही झटके में उसकी टोपी खींच ली थी। अब क्या था! मेरा किया कराया सब उजागर हो गया था। अब न हंसते बन रहा था न रोते! सभी ठुन ठुन कर धीमे धीमे हंस रहे थे! ड्रिल साब हरी सिंह का चेहरा काला पड़ गया था!
और कोढ़ में खाज ये कि सामने से घोड़े पर सवार हमारे एकेडिमि के एडज्यूटेंट महाराज कुमार भवानी सिंह जी चले आ रहे थे। “मर गये!” मेरे मुंह से निकला था और अब वास्तव में ही एक अद्भुत ड्रामे का दृश्य बन गया था।
“किसने दिया आपको ये हेयर कट?” जोरों से पूछा था होरेशियो ने तो मुखो बुरी तरह से हिल गया था।
“जी सी वर्मा ने साब!” मुखो ने मेरा नाम उगल दिया था।
“फॉल आउट जी सी वर्मा!” उनका अगला हुक्म आया था और मैं भी एक अभियुक्त की तरह मुखो के साथ आ खड़ा हुआ था।
महाराज कुमार भवानी सिंह जी को शायद ये हास्य व्यंग का दृश्य बेहद पसंद आया था। वो तनिक से मुसकुराए थे और घोड़ा मोड़ कर चले गये थे!
“थैंक्स गॉड!” मैंने मन में कहा था। “एक ग्रह तो गया!” मैंने राहत की सांस ली थी।
अब होरेशियो ने मुझे घूरा था!
“जी सी वर्मा! आप यहां ऑफिसर बनने आये हैं या नाई?” ललकारा था मुझे होरेशियो ने। “सेविन रैस्ट्रिक्शनस फॉर बोथ!” सजा सुनाई थी उन्होंने हम दोनों को और चले गये थे!
आज तक और अब तक मेरे कानों में कहे वो शब्द घनघनाते रहते हैं! एक आदर्श को पाने के लिए हमें हजारों अनादर्शों को ना कहना होता है और यही है हमारा सच्चा संग्राम!

मेजर कृपाल वर्मा