गतांक से आगे :-
भाग -७५
राजन ने आँखें खोली थीं ….!!
एक हलचल का जन्म हुआ था. कोई जैसे अजूबा घट गया हो – ऐसा लगा था. लगा था – किसी मरी लाश ने ऑंखें खोल दी हों. और अब वो अपने होने .. न होने के सवाल पूछ रहा हो. राजन चकित दृष्टि से सामने उजागर हुए संसार को देख रहा था!
“अब कैसे हैं आप ..?” कामिनी पूछ रही थी.
“क्यों ..?” राजन ने चौंक कर पूछा था. “ठीक तो हूँ!” उसने उत्तर दिया था. “हुआ क्या था .. मुझे जो ..?” वह पूछ लेना चाहता था.
लेकिन कामिनी चुप बनी रही थी. और भी कोई नहीं बोला था. डॉक्टर की बात ही सच थी. वह कोमा में चला गया था .. और अब लौट आया था. राजन को भी शनै शनै सब याद आने लगा था. उसे याद आया था .. लास्ट का सीक्वेंस ‘सत्ता ..अठ्ठा ..और ..” और फिर उसे याद है की उसे कुछ याद नहीं रहा था!
“पत्तों को किसी से मुर्रव्वत नहीं होती!” राजन ने आहिस्ता से कहा था और वो मुस्कुराया था. “अच्छा ही हुआ .. सब जाता रहा!” उसने लम्बी उच्छावास छोड़ी थी. “पों का माल पों!!” उसने मुहं बिचकाया था. “कौनसी गाढ़ी कमाई थी?” वह बुदबुदा रहा था. “अब कमाऊंगा .. मेहनत करूँगा .. पसीना बहाऊंगा ..” उसका नया इरादा उठ खड़ा हुआ था!
“खाने तक के लिए नहीं बचा!” कोई कह उठा था.
“मेरे कौन से बच्चे भूखे बैठे हैं!” जोरों से हंस दिया था राजन. लेकिन न जाने कैसे भक्क से उसे अपना परिवार याद हो आया था. साबो सामने खड़ी थी. उसका बेटा -कन्हिया उसे बुला रहा था ..
राजन कलकत्ता चला आया था! एक भरा पूरा वक्त था – जो उससे हाथ मिला रहा था. वह हीरो था – यहाँ का! लोग उसे और साबो को जानते थे .. सेठ धन्नामल का दामाद था वो .. कर्नल जेम्स का वो शिष्य था .. और ..
“कन्हिया ..!” आवाज साबो की थी. “तूने फिर शरारत की न! मै तेरी ..!”
“बेकार में लडती हो माँ!” कन्हिया कह रहा था.
कोई उत्सव चल रहा था! वृन्दावन और मथुरा से लोग आये हुए थे. राजन ने देखा था – कर्नल जेम्स और कैरी भी थे. छितर और सुलेमान सेठ भी सेवा में लगे थे. उसका भी मन आया था के सेवा में जुट जाये! लेकिन वह कन्हिया को देखने लगा था. देखता ही रहा था .. बिलकुल उसी जैसा था .. वही नाक नक्श .. घुंगराले बाल .. चमकीले सफ़ेद दांत .. और गठीला बदन! दर्शनीय युवक था – कन्हिया! मन आया था के उसे बाँहों में समेट ले .. उसे बता दे के .. वह उसका पिता .. राजन था .. और ..
सावित्री चली आई थी. वह दुबक गया था. लेकिन उसकी निगाहें सावित्री पर ही टिकी हुईं थी. न न कुछ न बदला था! कितना तेजोमय चेहरा था – साबो का! सती थी – साबो .. साबो ..! गला रुंध गया था राजन का. हिम्मत ही न हुई थी की वह सावित्री को पुकार लेता!
“कन्हिया .. किसको कहेगा तू मैया!!” वृन्दावन से आये लोग गा उठे थे. एक अच्छा संगीत संगम खड़ा हो गया था. राजन का मन फिर हुआ था की भजन मण्डली के बीच बैठ वह कान्हा के रंग में रंग जाये. लेकिन उसकी हिम्मत टूट गई थी.
“चल बे बम्बई ..!” किसी ने उसके कान में कहा था. “पारुल .. है वहां! टूट गया तो क्या .. सपना तो है ही! क्या पता .. तेरी तरह वह भी आँखें खोल दे ..?”
बम्बई जाते वक्त ही राजन फिर से जिन्दा हो गया था!
“मै सीड मनी न दे पाउँगा!” राजन ने स्पष्ट कहा था. “मेरा हिसाब ..”
“अब क्या बचेगा .. तुम्हारा ..?” सामने बैठी केशियर लड़की हंसी थी. “सेठ कुछ नहीं देगा!” उसने बता दिया था.
भूली याद की तरह .. अचानक ही राजन को संभव याद हो आया था. उसने तुरंत ही फोन मिलाया था. संभव ने सब कुछ सँभालने का वायदा किया था. कहा था – फिकर करने की कोई जरुरत नहीं .. तुम्हारा हिस्सा तुम्हे मिलेगा राजन!
राजन को लगा था की आज फिर से उसकी रगों में खून दौड़ने लगा था. फिर से वह एक कामना पुरुष बन गया था और फिर उसके सपने उसी के पास आ बैठे थे! बम्बई की बयार में न जाने क्या जादू था की मरियल से मरियल स्वप्न भी जी उठता था!
“तू फिर आ गया बे .. हिजड़े ..?” केतकी ने उसे आते ही आड़े हाथों लिया था.
“क्यों ..? तेरे बाप का है क्या .. सब!” गरजा था राजन. “जितना तेरा है .. उतना ही मेरा है ..!” उसने आत्म विश्वास के साथ कहा था. “पारुल .. मेरी है ..!”
“चल, निकाल बोतल!” केतकी हंसी थी. “पता करते हैं .. किसका .. कितना ..!” उसने सुझाव दिया था.
और .. उस वीरान हुए समुद्र तट पर केतकी और राजन रात भर सब्जबाग उगाते रहे थे!!
ग्यारह बज चुके थे! चन्दन और पारुल के आने का इंतजार था!!
और वक्त के पंखों पर बैठ वो दोनों एक दर्शनीय जोड़े जैसे आहिस्त आहिस्ता डाइनिंग हॉल में चले आये थे. एक उल्हास उनके साथ ही चला आया था. बच्चे एक साथ हरकत में आ गए थे. बलि और खली ने चल कर पहले चन्दन के पैर छुए थे .. और फिर दोनों पारुल की ओर चले थे. लेकिन पारुल ने दो कदम पीछे लेते हुए बच्चों को चरण स्पर्श करने से वर्ज दिया था. चन्दन हलके से दरका तो था पर फिर संभल गया था.
और जब दोनों बेटियों ने माँ और चन्दन को प्रणाम किया था तो चन्दन जैसे सोते से जगा था. उसे लगा था – प्रणाम करती वो दो लड़कियां अभी अभी चाँद से उतर कर आयी चंद्रकलाएँ थी. सुघड़ .. सौम्य .. और उनसे एक सभ्यता की सुगंध आ रही थी – जो उसने पहली बार महसूस की थी. हैरान था चन्दन उन दोनों युवतियों के सौन्दर्य को देख कर! उसने मुड कर पारुल को देखा था. कूड़ा थी – पारुल .. उसे लगा था! उसने दोनों बेटियों को धरोहर की तरह अपनी दोनों भुजाओं में समेट लिया था. बलि और खली के चेहरे खिल गए थे!
“कैसी हैं .. हमारी .. बुलबुल ..?” चन्दन की आवाज मधुर थी .. सौहार्द टपक रहा था और अचानक ही एक एकात्म स्थापित हो गया था!
“हम तो ठीक हैं ..!” शब्बो ने कहा था.
“पर .. आप दुबले हो गए हैं!” लब्बो ने उलहना दिया था.
हंसी का एक चक्रवात उठा था और हॉल में भरी चुप्पी को उड़ा ले गया था!
नाश्ता लगा हुआ था. सामने सोफे पर साथ साथ बैठे चन्दन और पारुल फब रहे थे. कविता उन्हें एक टक निहारती रही थी. ‘ये तोता तुम्हारे हाथ लगा था!’ कोई कविता से कह रहा था. ‘गँवा दिया मुर्ख!’ एक एहसास हुआ था कविता को. ‘केतकी ने बिगाड़ा .. उसका खेल!’ कविता ने अपनी गलती पकडली थी. कविता को अपने ऊपर रोष चढने लगा था!
“आखिर तुम्हे .. अड़चन क्या है ..?” कविता ने पारुल को सीधे सीधे पूछा था. “मिया बीबी राजी .. तो .. काजी ..?” कविता की आवाज ऊँची थी .. बेटों की माँ होने का दर्प था उस आवाज में.
“देखिये ..!” पारुल ने बात कटी थी. पारुल की आवाज सौम्य .. सरल और सीधी थी. उसने कविता को विनम्रता के साथ संबोधित किया था. चन्दन को अच्छा लगा था. बेटियां भी प्रसन्न थीं. “हम .. लोग ‘राजे रजवाड़ों से’ बिलोंग करते हैं!” पारुल सीधे मुद्दे पर आ गई थी. “राज घरानों से रिश्ते आ रहे हैं ..! महाराजा ..”
“हु हु हु हु! हा हा हा हा !!” कविता हंसने लगी थी. “अरी मेरी .. मंद्बुधि बहिन .. किस दुनिया में जी रही है, तू ..?” उसने आँखे नचाते हुए चारों ओर देखा था. अन्य सभी के चेहरों पर ख़ुशी खेल रही थी. चन्दन चुप था. डरा हुआ था. “कौन पूछता है .. राजे रजवाड़ों को ..?” कविता ने प्रश्न उछाला था. “कुछ के पास तो खाने के लिए रोटी नहीं है!” उसने उपहास उड़ाते हुए कहा था. “मेरे बेटे .. कौन से राजकुमारों से कम हैं ..?” कविता ने अबकी बार चन्दन को भरपूर निगाहों से देखा था.
पारुल ने अपनी दोनों बेटियों को विवश आँखों से देखा था. लेकिन उसे मौन ही हाथ आया था. क्यूंकि वो दोनों तो उसे पहले ही दर्पण दिखा चुकीं थीं. और उसका था कौन जो हिमायत लेता? अंत में उसने चन्दन से ही आहिस्ता से कहा था – हम दोनों पति पत्नी हैं – हमारे बच्चे .. आपस में ..? चन्दन ने कुछ सोचते हुए कहा था – इन अ ब्रॉड सेंस .. इट मेक़स नो सेंस ..!!
“चूहा है .. चन्दन!” संभव की आवाजें आ रही थीं. “ये तुम्हारा कामना पुरुष .. कायर है!!”
“अरे, शूटिंग के बाद शादी हो जाये तो क्या हुआ ..?” कविता की धारदार आवाज फिर गूंजी थी.
उठता तूफ़ान पारुल को उड़ा ले गया था!!
लेकिन न जाने कैसे .. पारुल के भीतर ही भीतर एक ज्वालामुखी सुलगने लगा था. गरम गरम लावा बह कर उसके दिमाग में भरने लगा था. लगा था – इस लावे ने पारुल के भीतर का भरा सौम्य – कोमल सौहार्द – स्नेह – प्यार सद्भावना – सब जला डाला है! उसके भीतर जुडी स्नेह प्रेम की डोर उसे टूटती नज़र आई थी. एक विस्फोट होने को था. पर पारुल ने उसे हथेली रख कर रोक लिया था. शादी शूटिंग के बाद हैं उसने स्वयं को समझाया था. वक्त है .. स्थिति को सम्हालने का पारुल! किसी ने उसे समझाया था!!
और फिर न जाने कैसे पारुल की आँखों के सामने रोते – बिलखते बाबूजी आकर खड़े हो गए थे. सेकिया परिवार ने उसे खरीद लिया था .. और उसके गरीब माँ बाप मना न कर पाए थे! आज उसकी बेटियों को कविता और चन्दन ने उससे छीन लिया था .. और वह जान कर भी कुछ न कर पा रही थी! निपट अकेली पारुल की आत्मा छटपटा रही थी!!
और लौट आया था – वही दृश्य .. जब संभव ने आकर उसकी बंद छुड़ाई थी .. उसे आजाद किया था .. और समीर सेकिया .. को ..! पुरुष .. पुरुषार्थी .. हिम्मत बहादुर .. वचन का पक्का .. और .. और हाँ .. सच्चा प्रेमी अगर कोई था – तो वह संभव ही था. उसने आज मान लिया था!
संभव को ही पुकारा था पारुल ने!!
क्रमशः
मेजर कृपाल वर्मा साहित्य