आंसू

बुरा न मानें :-
आज मेरी आँखों में आंसू हैं ! रोना इस समाजबाद का है. इस के लिए ही रोना है. क्योंकि आज यही आँख की कोर में आकर बैठ गया है. यही तो है – जिस ने सारे राजनैतिक समीकरण फ़ैल करदिए हैं. सारा गेम खराब करदिया है ….और हमारा बनाबनाया बानक खराब करदिया है !
असंतुलन इतना कि – बार-बार तराजू का पलड़ा …असंभावित की ओर झुकता है. लगता है …कि ..हार है …हार अवश्यमभावी है …हार के लिए हौसला जगाना ज़रूरी है ….हार से ही हाथ मिलाने के लिए ….हम विवश हैं ….हार का मुंह देखना जैसे हमारी नियति है ….और हार ….का हार गले में डाल ….उनके सामने डोलन है …जो कभी – झुके-झुके ….रुके-रुके ….सहमे-डरे ..हमारे सामने गिड़गिड़ाते थे ….हम से अभयदान मांगते थे ….हम से ….आँख तक नहीं मिलाते थे ….
लेकिन वही आज हमें ललकार रहे हैं। ..आज हमें चुनौती दे रहे हैं ….! आज वो हमें शर्म के सागर में डुबो देना चाहते हैं ….आज हमें नीचा दिखा कर …हमारी नांक काट लेना चाहते हैं !!
मन तो आता है कि चिल्ला-चिल्ला कर उन का कच्चा-चिटठा खोलें …और सब को बताएं कि ये वही लोग हैं ….जो कभी सडकों पर नंगे-भूखे पड़े नज़र आते थे ! इन्ही लोगों को तो गले से लगा कर हमने यात्रा आरंभ की थी. हमने इन्हें ….रहना,खाना और बोलना तक सिखाया था. इन के मुंह में जुबान ही कहाँ थी ? इन के पास तो बोलने तक का साहस भी नहीं था. इन को पूछता कौन था …? इन के पास न कोई नाम था ….न इन का कोई गांव था ! न गोत था ….न कोई गढ़ था ! ये थे – बे-नाम, बे लगाम !! ये थे – जिन के सरों पर जूते वरसते थे ….जिन को …..
हमने कहा – तुम लोग महान हो ….देश की जान हो ….प्राण हो ….! भविष्य तुम्हारा है .! तुम हमारे पास आओ , हमारे साथ आओ …! हम तुम्हें लेकर आगे बढ़ेंगे …हम तुम्हारा कल्याण करेंगे ….! हम ही तो हैं ….सिर्फ हमीं …जिन को तुम्हारा दुःख-दर्द महसूस होता है …! हमीं हैं जो तुम्हें …रोज़ी-रोटी दे सकते हैं ….और हमीं हैं – जो …..
सच था …हमारा कहा हर शब्द सच था ….!
और फिर हमारी टीम बनी ….हमारी मुहीम तैयार हुई …! हमने बड़े-बड़ों के हौसले तोड़े …होश उड़ाए …उन को नीचा दिखाया – जो आसमान पर थे …! उन को भी ढाया – जो कभी हार ही नहीं मानते थे ! उन घरानों की खबर ली – जो अपने आप को श्रेष्ठ मानते थे! हमने उन से बदला लिया – जो हमें मिटा देना चाहते थे !!
दिन थे – वो ….! तब हमारे लिए रात होती कहाँ थी !! हर वक्त चांदनी रहती थी. रात भी खिली-खिली होती थी. सब कुछ सुख-समुद्र-सा हिलोरें मारता रहता था ….सत्ता के पंखों पर सवार हम सब ….तब देश-विदेश के भ्रमण में मशगूल रहते थे. हम जहां जाते – उस से पहले हमारा ‘नाम’ जाता ! ‘काम’ तो एक कमजोर कड़ी होता है. पर नाम का तो जादू ही अलग होता है ! बिना श्रम के नाम काम करता है …जबकि ‘काम’ श्रम के श्राप से ग्रसित होता है ! हमने ‘नाम’ का ही प्रचार-प्रसार किया ….और सब कुछ अपने ही नाम लिख लिया !
इतिहास के हर पन्ने पर हमारा ही नाम लिखा गया !!
और आप सच मानें , मित्रो कि …हम अपने इसी नाम की ढाल के पीछे बैठ कर – उन तमाम आते हमलों को ओट लेते जो …नंगे बदन सामने पड़ने पर हमें खा जाते …मिटा जाते !!
हमारा विरोध था ….खूब …विरोध था ! हमारे दुश्मन थे …घोर और कट्टर दुश्मन थे ! पर इस ‘नाम’ के करिश्मे ने हमें कमाल कर के दिखाया था.
हमारे दरवाजे अब बंद रहते थे !
आते थे – मित्र और शत्रु ! मिलने आते थे – अपने इरादों पर धार धर-धर कर आते थे – हाथों में गुलदस्ते लिए, बगल में कटार छुपाए, दिमाग में ज़हर घोले और …होठो पर हंसी को संजोए – एक विनम्र भाव होता था ….पर …..आगे -पीछे सब होता था !!
तब इन दरवाजों के दूसरी और से ध्यान पूर्वक उन लोगों के चेहरे पढने के प्रयत्न करते थे – हम !
“ये घाग है। कर्णाटक का है. घमंडी है. रियासत बंद है. जान पर बानी है, तब आया है. ” चर्चा चल पड़ती।
“हमसे क्या ले जाएगा ….?” ठहाका लगता है. “गई इस की -गाडी , छुक-छुक छुक …!!” हम सब एक साथ हंस पड़ते। “कभी इन लोगों का …अदल था ….! ये जनता के पालन हार थे। राजा-धिराज …और न जाने कितने अलंकार …!! सब धन-माल समेट कर बैठ गए थे -पुश्तों के लिए !”
“वक्त का क्या भरोसा …..?” हमीं तो कहते थे. “पुअर चैप …..! आज पैदल चल कर आया है !”
और भी तो कितने थे – जो आते थे ! हम इसी तरह हर किसी का हिसाब लगाते थे। ….हम हर किसी को जान गए थे। ..हम उन के आने से पहले उन के इरादे पा जाते थे ! हमें पता होता था कि कौन महाशय -क्यों पधारे हैं ..? हम हँसते – मखौल उड़ाते ….और सोचते – वक्त किसी को भी माफ़ नहीं करता ! जो करता है – सो भारत है !!
और जब ये कमीना आया था ….तब हमारी हवा सन्ना रही थी। …!!
आज जैसा अँधेरा न था , दोस्तो !
अगली बार मैं ही बताता हूँ -इस की चाल और चालाकियां !!
वैसे मुझे कुछ आता-जाता तो नहीं …पर ….