साक्षी
उपन्यास अंश :-
“आसमान का अनंत स्वरुप अब मेरी आँखों के सामने था. मेरे बंकर का द्वार बंद कर खड़ा बर्फ का राक्षस तोप के गोले की मार से पानी-पानी हो, पिघला खड़ा था. युद्ध-भूमि की ओर मेरा मार्ग प्रशस्त करता मेरा ही कोई इष्ट अम्बर पर खिले इक्का-दुक्का सितारों पर बैठा मेरा हंस-हंस कर स्वागत कर रहा था और कह रहा था, “अपना ये साम्राज्य संभालो चौहान ! अब तुम अंधे नहीं हो ….!! समर्थ हो …., उठो और युद्ध करो ….”