राहुल राठौर की खोज में सोफी ने नीमो की ढाणी का चप्पा-चप्पा खोज मारा था। पर वह उसे कहीं ढूंढे न मिला था।

“कहां बावली हुई घूम रही है?” मां सा ने उसे तलाश के बीच ही पकड़ लिया था। “क्या खो गया है तेरा री?” उन्होंने प्रेम पूर्वक पूछा था।

मां सा की आवाज में गजब का सौहार्द, प्रेम और अपनत्व था। मां सा कभी अपने जमाने की परम सुंदरी स्त्रियों में से एक होंगी – सोफी ने महसूसा था। उनका स्वभाव शहद जैसा मीठा था। उनका रख-रखाव प्रकृति का प्रतिरूप जैसा लगता था। लगता था जैसे सारे संसार को वही धारण किए हैं और सबका लालन-पालन भी उन्हीं की इच्छा से हो रहा है। सोफी का बैरागी हुआ मन मां सा के चरणों में जा कर लेट गया था।

“मैं .. मैं .. उसे ढूंढ रही हूँ मां सा!” सोफी बौराई सी बोली थी।

“घुमक्कड़ है। भाज गया होगा कहीं!” मां सा हंसी थीं। “चल! मैंने तेरे लिए चा बनाई है।” वह फिर से मुसकुराई थीं। “आज मैं भी तेरे साथ चा पियूंगी।” उन्होंने विहंसते हुए कहा था।

मां सा के साथ चाय पीते-पीते सोफी उनके साथ बहुत अंतरंग होती चली गई थी। उसे लगा था जैसे उसकी अपनी मां का कोई अंश भाग कर यहां पहुंच गया हो। लगा था – मां सा उसी की मां हों और उसे जानती हों।

“कहां होगा राहुल?” सोफी ने उन्हें फिर से पूछा था।

“ले रहा होगा किसी की खोज खबर!” मां सा हंसी थीं। “ये इसका स्वभाव है सोफी। ये कभी एक चित्त हो कर बैठ नहीं पाता।” वह तनिक रुकी थीं। उन्होंने सोफी के उद्विग्न मन को पहचाना था। “हम से तो बचपन में ही दूर रहा। अजमेर अपनी मौसी के यहां रहकर पढ़ा-लिखा। वहीं से इसे घुमक्कड़ी की आदत पड़ी।”

“क्या करता है राहुल, क्या आप नहीं जानतीं?”

“बताए तब न!” वह मुक्त हंसी हंसी थीं। “अकेला वारिस है हमारा। लाढ़ प्यार की संतान है, इसके बापू सा का देहांत ..” मां सा की आंखें सजल थीं। “बड़े ही वीर थे, जांबाज थे और जंग में ही उनकी जान गई।” अब मां सा के आंसू बह चले थे।

सोफी को सर रॉजर्स का चेहरा याद हो आया था। वियतनाम की लड़ाई के किस्से उसे जबानी याद थे। जब वह वियतनाम की जेल तोड़ कर भाग निकले थे तब पूरे विश्व में तहलका मच गया था। लेकिन ये राजपूत लोग ..? वह ठहर कर कुछ सोचने लगी थी।

“जान देना ..?” सोफी ने प्रश्न किया था। “और जान लेना ..?”

“इन्हें तो छल से मारा था बेटी।” मां सा बताने लगी थीं। “अपनों ने ही घात किया।” उनका दो टूक उत्तर था।

घात – कोई अपना ही, बहुत अपना ही कर सकता है, यह तो सोफी भी जानती थी। हर आदमी को इन बहुत अपनों से बहुत सावधान रहना चाहिए, उसने सोचा था।

“राहुल ..?”

“पेट में था।” मां सा बताती हैं। “प्राण दे देती मैं तो सोफी। मुझे तो सती होने का शौक था। मैं तो चाहती थी कि चिता में इन के साथ बैठ जाऊं पर .. राहुल ..? दादी सा का आदेश था कि मैं सती न होऊं।”

“दादी सा ..?”

“हां, दादी सा – नीमो सा जिनके नाम पर ये ढाणी बनी है – वो भी विधवा थीं। इनके दादा का देहांत भी राणा जी की रक्षा में प्राण देने पर हुआ था। उनके उपरांत में हमें यह जागीर मिली थी। वो भी सती थीं पर” मां सा रुकी थीं। “चल! तुझे दिखाती हूँ, इस ढाणी का इतिहास।” वह उठी थीं। सोफी भी उठी थी। दोनों चल कर एक गुप्त तहखाने नुमा कमरे में पहुंची थीं। “देख! इनका जिरह बख्तर और यह रहा राहुल के दादा जी का फोटो। इनका फोटो और ..”

“ये उनका घोड़ा होगा?” सोफी ने घोड़े के अद्भुत चित्र पर उंगली धरी थी। “उनका चेतक होगा ये?” उसने हंसते हुए पूछा था।

“हां! बहुत ही जांबाज जिनावर था, सोफी। अरबी नस्ल का था। जब लड़ता था तो इसकी आंखों से आग बरसती थी।

सोफी की आंखों के सामने एक बार फिर हल्दी घाटी उठ बैठी थी। अनायास ही वह तलवारों की खनक और घोड़े की टापों को बजते सुनने लगी थी। अचानक ही राजपूतों के जांबाज किरदार और उनकी पत्नियों के जौहर उसे याद हो आए थे।

“नीमो राणा भी बहुत सुंदर थीं।” मां सा बताती हैं। “ये देख – उनका चित्र!” मां सा प्रसन्न थीं। “ये नौ लखा हार इनके दादा जंग में जीत कर लाए थे। और ये जो अंगूठी में हीरा जड़ा है ..?”

“कैसे होता है मां सा कि आप लोग एक पुरुष को ही अपना सर्वस्व मान लेते हैं?”

“हो जाता है सोफी।” मां सा मुसकुराई थीं। “सब हो जाता है।” उन्होंने स्वीकार में सर हिलाया था। “खेल सारा मन का है। राजा मन ही चुनता है। और मन का किसी को मान लेना कोई सहज काम नहीं है।” उन्होंने अपना जीवन दर्शन सामने धरा था। “स्त्री का मन जिस पुरुष पर आ जाए ..” वह तनिक रुकी थीं। फिर उन्होंने सोफी की आंखों में कुछ टटोला था। सोफी का मन मां सा की निगाहों के सामने से भाग खड़ा हुआ था। शायद उन्होंने सोफी के चोर मन को पकड़ लिया था। “तुम्हारा मन ..?” फिर उन्होंने प्रश्न भी किया था।

“मैं .. मेरा .. मेरा मतलब मां सा कि .. मैं तो सैर करने भारत आई हूँ।” सोफी घबरा गई थी। वह सच को पी गई थी।

“खूब सैर करो।” मां सा ने हंस कर सोफी को आशीर्वाद जैसा दिया था। “खूब घूमो फिरो।” उन्होंने दोहराया था। “ये राहुल भी तो तुम्हारा जैसा ही सैलानी है।” उन्होंने विहंस कर बताया था। “न जाने कब जा कर सुधरेगा?” उन्होंने आह छोड़ी थी।

“पर आप को क्या लेना देना?” सोफी ने टोका था।

“लेना देना तो है सोफी।” उन्होंने सोफी को सीधा आंखों में देखा था। “एक बहू ही ला देता!” वह बोली थीं। “घर सूना-सूना पड़ा है और आंगन अभी तक कोरा है। बच्चे की किलकारियां सुनने को मेरा मन तरस जाता है, सोफी! अकेला ही मरद तो है यह राहुल! मैं चाहती हूँ कि ..।” वह चुप हो गई थीं।

सोफी भी चुप थी। मां सा का कहा सब एक कल्पना बन कर सोफी के सामने नाच उठा था। बच्चे .. उसके बच्चे .. राहुल के बच्चे – किलकारियां भरते .. नाचते कूदते और शरारत करते बहुत सारे बच्चे और उनके बीचों बीच जूझती कूदती मां सा। कितना सुंदर विचार था। एक सुंदर सपना था।

“तू समझाना इसे!” मां सा ने चुप्पी तोड़ी थी। “दोनों हमउम्र हो शायद तुम्हारी बात मान ले।” उन्होंने मधुर वाणी में एक भोला आग्रह सामने रख दिया था।

मां सा ने अपने मन की बात कह डाली थी लेकिन सोफी अपने मन की बात कैसे कहती? वह चुप ही बनी रही थी।

“ऊंट भाग गया नानी।” किसी ने आवाज लगाई थी।

“आई ..!” मां सा एक चलाचली में चली गई थीं। “तू देख सोफी ये सब! मैं लौट कर आती हूँ।” उन्होंने जाते-जाते कहा था। “ये मरा ऊंट तो खून पी लेगा मेरा।” उन्होंने कोसा काटी की थी।

सोफी अब अकेली थी। मां सा का कहा सुना अब उसके कान बार-बार सुन रहे थे। राहुल वहां नहीं था पर वह था वहीं। उसके बिलकुल पास खड़ा था – राहुल! और उसका मन? मां सा का कहा वह सब कुछ समझ गई थी। सोफी को लेकर मां सा ने मनसूबे बना लिए थे। लेकिन क्यों?

मन की बहक से पीछा छुड़ाने की गरज से सोफी ने तहखाने की छानबीन आरंभ कर दी थी। जैसे अब वह एक इतिहास की कब्र खोद रही थी – एक के बाद दूसरी अजीब वस्तुएं उसे देखने को मिल रही थीं। एक संग्रह था – मां सा के परिवार का संग्रह जिसमें समय कैद था। कई सारे काल खंड – जिन्हें जिया गया था, वहां अमर बने बैठे थे। राजपूतों के इस विगत के वैभव से न जाने क्यों उसे प्यार हो गया था। उस इतिहास के बीचों बीच सोफी भी मां सा का चोला पहन खड़ी हो जाना चाहती थी।

अचानक ही सोफी की नजर एक बंद छोटी अलमारी पर पड़ी थी। एक छोटा ताला अलमारी के मुंह पर लटक रहा था। जिज्ञासा वश ही सोफी ने उस ताले को छू कर देखा था। मजबूत था – ताला। सोफी ने फिर से अलमारी को निरखा परखा था। दीवार में धंसी वह अलमारी न जाने कितनी गहरी हो – उसने सोचा था। फिर जिज्ञासा ने उसे अलमारी के भीतर झांकने के लिए बाध्य किया था।

अब सोफी वही थी – जो वह थी। एक शिक्षा प्राप्त जासूस की तरह ही उसने उस लटके ताले को चुटकियों में खोल दिया था। आहिस्ता से अलमारी में झांक उसने चंद फाइलें, डाइरियां और एक एलबम बरामद कर लिए थे। यह उनके घराने का इतिहास था शायद। सब लिखित में था सोफी ने सोचा था।

एक-एक पन्ना कुरेदती सोफी समय का ज्ञान ही भूल गई थी।

राहुल का पूरा बचपन था, उसका यौवन था और था उसके किए कारनामों का एक व्यौरा। परिवार के ब्यौरे भी थे। फिर चलते-चलते सोफी की टक्कर एक अजीब सी फाइल के साथ हुई थी।

“स्काई लार्क ..?” देखते ही सोफी चौंक पड़ी थी। “यह फाइल .. और यहां?” उसने प्रश्न किया था। फिर फाइल को पलटा था। “ओह माई गॉड!” आश्चर्य से वह बमक पड़ी थी। “कॉन्ट्रैक्ट लैटर?” उसने स्वयं से कहा था। “यू ब्लडी स्पाई!” वह चीख पड़ी थी।

सर रॉजर्स के हस्ताक्षर पहचानने में सोफी को दिक्कत नहीं हुई थी।

सर रॉजर्स का दैदीप्यमान चेहरा सोफी के सामने था।

“आखिर मैं हूँ तो तुम्हारा बाप ही, सोफी!” वह विहंस कर कह रहे थे। “कोई बाप यों अपनी बेटी को अकेला कैसे छोड़ देगा?” उनका कथन था।

सोफी की आंखें अचानक ही सजल हो आई थीं।

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मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

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