“आप के पसंदीदा चॉकलेट भेजे थे, मिल गए न?” जुनैद का अमेरिका से फोन था।

“मिल गए!” राम चरन ने उत्तर दिया था। वह जानता था कि भेजे हथियारों की पुष्टि कर रहा था जुनैद। “थैंक्स एनीवे।” राम चरन की आवाज में दंभ था, दर्प था, उल्लास था और था एक अभिमान। वह अब मानसिक तौर पर तो एक मोनार्क ही था।

“आ नहीं रहे हो?” जुनैद ने अगला प्रश्न पूछा था।

“क्यों?” राम चरन ने भी प्रति प्रश्न पूछा था।

“आप की .. वो .. आई मीन .. वो यहां है।” जुनैद का स्वर शरारती था। “मैं तो सोच रहा था कि आप की फरमाइश अवश्य आएगी। गीता का ज्ञान बटोोर रहे हैं अपने अमेरिकन। हाहाहा।” जुनैद खुल कर हंसा था। “आ जाइए आप भी। कुछ नहीं तो ज्ञान तो हाथ लगेगा ही।”

“कमिंग!” राम चरन का अविलंब उत्तर था। “मिला दोगे न?” सीधा प्रश्न पूछा था उसने।

“चांस तो है सर।” जुनैद खुश था। “रैस्ट डिपेंड्स ऑन यौर लक।”

“आई एम वैरी लक्की् जुनैद।” राम चरन हर्षित था। अल्लाह ने उसे अब एक साम्राज्य सोंपना था – वह जानता था।

अचानक राम चरन कई लंबे पलों तक जुनैद के बारे ही सोचता रहा था।

“क्या जुनैद भी अमेरिका को ले बैठेगा?” सीधा प्रश्न चला आया था राम चरन के दिमाग में। “क्या यूरोप भी एक अलग खलीफात बन सकता था? और क्या अरब अमीरात अकेला ही ..? क्या अब तेल खत्म होने पर अरब के अमीर गरीब हो जाएंगे? और क्या ..?”

“वक्त किसका साथ देगा किसी को पता नहीं।” राम चरन ने विचार को खारिज कर दिया था। और अब वह संघमित्रा से मिलने की दौड़ में शामिल हो गया था।

कौन काम कहां पड़ा था, या कि कौन सी जरूरत दरवाजा खटखटा रही थी – राम चरन बिना इसकी परवाह किए संघमित्रा से मिलने के सपने देख रहा था।

“पूरा अमेरिका पागल कर दिया है – इस तुम्हारी ..!” जुनैद हंसा था। “न जाने क्या घुट्टी पिलाती है इन प्यासे अमरीकनों को कि ये ..?”

“प्यासा तो मैं भी हूँ जुनैद!” राम चरन ने मन में कहा था। “एक बूंद प्रेम के पानी की – एक बूंद भी नसीब हुई तो मान जाऊंगा कि अल्लाह मुझ पर मेहरबान हैं।

जुनैद ने काम बना दिया था। संघमित्रा से एकांत में मिलने के लिए कुछ मिनट मिल गए थे। राम चरन का मन फूल सा खिल उठा था। वह तन, मन और प्राणों से इस मुलाकात को एक नया रंग दे देना चाहता था। वह जान लेना चाहता था कि क्या संघमित्रा उस के ऐशियाटिक अंपायर की मलिका बन सकेगी? क्या संघमित्रा ..

“आप तो – सुंदरी दीदी के ..?” संघमित्रा ने सीधा प्रश्न पूछा था।

“ओ हां-हां। जी!” राम चरन चोरों की नाई गिड़गिड़ाया था। “आचार्य जी भी ..?”

“हां। आप ने सात नम्बर बँगले का ऑफर दिया था।” संघमित्रा ने स्वीकारा था।

“लिया नहीं।” राम चरन बोल पड़ा था। “जनरल फ्रामरोज ने लपक लिया।” उसने सूचना दी थी। “आप चाहें तो ..?”

“नहीं। मुझे कुछ नहीं चाहिए। मैं तो काशी में पिताजी की पर्ण कुटीर में ही अपनी साधना पूरी करूंगी।”

“आप .. मेरा मतलब है कि आप क्यों ..?”

“इसलिए कि मन का तार एक बार माया से जुड़ गया तो फिर कभी नहीं टूटेगा!” मुसकुराई थी संघमित्रा। “इन अमरीकनों की भी तो यही बीमारी है। जरूरत से ज्यादा समेट बैठे हैं।” वह तनिक हंसी थी।

राम चरन ने कई बार संघमित्रा को आंखों में देखा था लेकिन वो वार बचा गई थी। उसने अपने हाथों को साड़ी के आंचल में लपेट कर गोद में रख लिया था। राम चरन को कोई रास्ता ही न सूझा था जहां वो जा कर संघमित्रा का स्पर्श कर लेता। और अपना प्रेम संदेश भेज देता।

“मुझे प्रार्थना सभा में जाना है।” संघमित्रा ने कहा था और उठ कर चली गई थी।

तीर खाए कबूतर की तरह राम चरन फड़फड़ाता ही रह गया था।

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