कुंवर खम्मन सिंह ढोलू ने पंडित कमल किशोर को बुला भेजा था।
राम चरन को बिना कोई सूचना दिए पंडित जी कुंवर साहब से मिलने चले गए थे। वो जानते थे कि ढोलू शिव का वार्षिक मेला लगने को था। कुंवर साहब ने उसी की बाबत बात करनी थी। पंडित जी तनिक घबराए हुए थे। राम चरन को लेकर ही सारी ऊहापोह थी। उन्होंने अभी तक कुंवर साहब को राम चरन के बारे कोई सूचना न दी थी। जबकि राम चरन ..?
राम चरन जब से आया था पंडित कमल किशोर के पौ बारह हो गए थे।
“सारी दुनिया ऐश कर रही है फिर मैं अकेला ही क्यों ..?” पंडित जी जाते-जाते सोच रहे थे। “कुंवर साहब को ही लें तो – ढोलू सराय के वो अकेले वारिस थे। कभी ये सराय यू ही एक बीहड़ था। तब तो सब सूना-सूना पड़ा था। लेकिन आज तो चप्पा-चप्पा गुलजार था। कुंवर साहब जायदाद बेचते नहीं थे केवल किराए पर उठाते थे। एक-एक इंच जमीन आज करोड़ों की थी। सुनहरी झील के साथ जो खम्मन सिंह हेड़ा कॉम्पलेक्स बन रहा था – खरीददार लाइन में खड़े थे। कीमतें सर से ऊपर थीं। कई बार उनका भी मन आया था कि सुमेद के नाम एक फ्लैट बुक करा दें। लेकिन पैसा ..?
“इतना पैसा आए तो कहां से आए?” पंडित जी सोच में पड़े थे। “अब राम चरन ही कोई गुल खिला दे तो ..” उनका मन तनिक हुलस आया था। “सब चोर डकैत ही तो हैं। राजे-रजवाड़े तो नाम के थे। सब ने जोर जबरदस्ती रियासतें बनाई थीं और पैसे कमाए थे। अब सब उनका था। मांगने पर कौन देता है? कुंवर साहब भी ..
“अकेले थे कुंवर साहब!” पंडित जी का बोध जागा था। “इंद्राणी के संतान हुई ही नहीं। लाख कोशिश की थी – उन्होंने भी लेकिन ढोलू शिव ने उन्हें पुत्र रत्न का वरदान नहीं दिया। न जाने क्यों? बहिन थी – सो विधवा थी। उसने लाख कहने पर दूसरी शादी की ही नहीं। कुंवर साहब के साथ ही रहती थी। कुल तीन ही प्राणी थे और जायदाद ..?”
डूबते को तिनके की तरह राम चरन ही याद हो आया था।
“कालू राम चरन को दो वक्त पेट भर भोजन कराता था। उसने अपने कुर्ते पाजामे भी राम चरन को पहनने के लिए दे दिए थे। लेकिन .. लेकिन ..? अचानक पंडित जी को राजेश्वरी पर क्रोध हो आया था। राजेश्वरी बेहद कंजूस थी। और सुमेद ..? कितना-कितना चाहा था उन्होंने कि किसी विधि से कुंवर साहब सुमेद को गोद ही ले लें। लेकिन हमारी वर्ण व्यवस्था भी तो अजीब है। किसी राजपूत को ही लेंगे – पंडित जी जान गए थे।
वो ये भी जानते थे कि राम चरन के आने से कालू खूब कमाने लगा था।
“कालू अपने काम का माहिर है।” पंडित जी को एहसास हुआ था। “मैं तो कुंवर साहब का नौकर ही हूँ।” एक गिरे-गिरे भाव को महसूसा था उन्होंने। “राम चरन को मंदिर में रखने के लिए उन्हें पूछना तो चाहिए था। पंडित जी को फिर से याद आया था। “नहीं! अभी नहीं। वक्त आने पर ..” पंडित जी ने अपने होंठ सी लिए थे। वो राम चरन को हरगिज भी किसी को सोंपना न चाहते थे। जनम कर्म में ये एक ही मौका मिला था जब उनका गरीबी पीछा छोड़ सकती थी वरना तो ..
आज पहली बार था कि पंडित कमल किशोर का मन कुंवर साहब का वैभव देख न जाने कैसा-कैसा हो आया था।
आलीशान पुराने चलन के महल तिबारे चारों ओर खड़े थे। शाही ठाट-बाट के उजड़े बिगड़े आकार प्रकार पंडित कमल किशोर के साथ ठिठोली करने लगे थे। वक्त आज है – वक्त जाता है लेकिन अपना असर अवश्य छोड़ कर जाता है – पंडित जी सोच रहे थे। इनका भी कभी वक्त था। राज-पाट था। हुकुम-हुकूमत थी। सब गुलजार था। लेकिन अब – मात्र तीन प्राणियों के बीच वक्त चुपचाप आ बैठा था।
साल में एक बार जब ढोलू शिव का मेला लगता था तभी यहां चहल पहल होती थी। एक सप्ताह तक लोगों का आना जाना लगा रहता था। देश विदेश के लोग आते थे और ढोलू शिव के उपासक इन दिनों बढ़ चढ़ कर दान देते थे।
एक उजाले की तरह – एक अभिलाषा की तरह अचानक ही राम चरन पंडित जी के जेहन में उग आया था।
“नहीं-नहीं! कुंवर साहब से राम चरन का जिक्र नहीं करूंगा!” पंडित जी ने मन में तय कर लिया था।
राम चरन पंडित कमल किशोर के लिए वो मीठी गोली था जिसे वो न उगल पा रहे थे न निगल पा रहे थे।

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड