आज का दिन राम चरन पर बहुत भारी पड़ा था।

रात गारत होती जा रही थी लेकिन राम चरन को नींद नहीं आ रही थी। एक अजीब सी बेचैनी थी – जिसका मर्म वह जान नहीं पा रहा था। बार-बार कालू की रेहड़ी के सामने आ जुटा वो शिकारी जानवरों का झुंड उसे सताने लग रहा था। पहली बार उसने स्वयं सेवक शब्द को चुना था। पहली बार उसने स्वयं सेवकों को प्रत्यक्ष में देखा था। पहली बार कालू ने बताया था कि ..

“कैसे! कैसे .. वो सब वर्दी पहने रेहड़ी को घेरे खड़े थे। सब के पास लाठियां थीं। सब के चेहरे एक अप्रतिभ आशा से चमक रहे थे। सब साहसी थे। सब लड़ाके लग रहे थे। लेकिन .. लेकिन किस से लड़ने जा रहे थे वो?” राम चरन किसी तरह हिसाब न लगा पा रहा था।

“बुराइयों से!” उत्तर राम चरन की ओर से आया था।

राम चरन को तनिक शांति मिली थी। मन हलका हुआ था। एक चिंता जाती रही थी।

“हिन्दू राष्ट्र बनाने का वक्त आन पहुंचा है।” अचानक राम चरन ने सुना था तो वह उछल पड़ा था। “खतरा ..!” राम चरन के होंठ कांपे थे। “ये लोग लड़ेंगे जरूर!” उसने मान लिया था।

“सैक्यूलरिज्म कुछ नहीं – झांसा है!” राम चरन फिर से सुनने लगा था। “हिन्दुओं को मूर्ख बनाया गया है। ताकि ये लोग ..”

“इन्हें कैसे पता लगा?” फिर से राम चरन का प्रश्न था। “इन्हें तो .. भाई-भाई का पाठ पढ़ाया गया था। ये कैसे जान गए कि ..?” पसीने-पसीने होने लगा था राम चरन।

स्वयं सेवकों के बारे में जानने की जिज्ञासा विकट रूप लेती जा रही थी।

“एक परचम पूरी कायनात के ऊपर कायम होगा! फिर सब वही होगा जो मंजूर-ए-खुदा होगा!” किसी ने राम चरन के कान में चुपके से कहा था।

“ढोलू शिव का मंदिर क्यों नहीं तोड़ा सिकंदर लोधी ने?” अचानक राम चरन प्रश्न कर बैठा था। वह अपने भीतर के भय को भगाना चाहता था। “मुबारक मौका था ..” राम चरन सोचे जा रहा था। “अब ..? आज ..?” वह उत्तर नहीं दे पा रहा था।

अपने प्रश्न का पूरा उत्तर पाने के लिए उसने स्वयं सेवकों के कैंप को देख लेना चाहा था। वह जान लेना चाहता था कि ये स्वयं सेवक किस आफत का नाम थे। क्या करते थे ये उस कैंप में? कौन सी सिखलाई चल रही थी – जो नई थी और अभी तक किसी को ज्ञात नहीं थी? कैसे .. कैसे इन टूटी फूटी लाठियों के दम पर ये लोग हिन्दू राष्ट्र बना लेना चाहते थे? कैसे .. कैसे ये लोग मातृ भूमि को ..?

सहसा राम चरन ने महसूस किया था कि ये लोग सब यंग थे, सो प्राउड .. सो रैडी .. एंड सो विलिंग टू सैक्रीफाइज? ये लालची नहीं थे। किसी दूसरे ही लोक के मानव जैसे थे जिन्हें देश प्रेम का नया-नया सबक सिखाया गया था – जबकि यहां तो ये चलन बहुत पुराना पड़ चुका था। अब तो देश प्रेम नहीं – स्वयं प्रेम का चलन था।

“पंडित जी को चकमा दो और चलो! देखो जा कर कैंप को!” राम चरन के मन में विचार कौंधा था। “नहीं-नहीं!” वह तुरंत पीछे हटा था। “पंडित जी को शक हो गया तो?” डर गया था राम चरन। “तो कालू के साथ लौटते वक्त चल पड़ो। कालू सराय के परेड ग्राऊंड तक ..?” उसने फिर से युक्ति बनाई थी। “नहीं-नहीं! कालू को शक हो गया तो और भी बवाल हो जाएगा!” उसने हिसाब लगाया था। “हवा तनिक भी हिल गई तो ..?” राम चरन ने अंतिम निर्णय निकाल लिया था।

फिर भी राम चरन के दिमाग से स्वयं सेवक का विचार धुला नहीं था।

देश के लिए जीना, देश के लिए मरना – आज भी किसी सम्मोहन से कम औकात न रखता था! आज भी अगर देश युवक कुछ ऐसा ही व्रत धारण कर ले तो कुछ भी असंभव संभव हो सकता है।

“लेकिन आज का आदमी औरों के लिए नहीं अपने लिए ही लड़ना चाहता है।” राम चरन को याद हो आया था। “एक चना भाड़ नहीं फोड़ सकता!” हंस गया था राम चरन। “कुछ मनचले लोग कहीं भी होते हैं।” उसने करवट बदली थी और सो गया था।

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

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