प्रातः काल की बेला थी। कृष्णा सागर आंदोलित था। सुमेद और संघमित्रा सागर किनारे आ बैठे थे। इस परम एकांत में वो दोनों भी कृष्णा सागर की तरह ही आंदोलित हो उठे थे।
बचपन की यादों ने दोनों को सागर की लहरों की तरह झकझोर कर रख दिया था। दोनों साथ-साथ खेले थे। दोनों आपस में खूब लड़ते थे। साथ-साथ खाते पीते थे और साथ-साथ ही स्कूल जाते थे। दोनों परिवारों में घनिष्ठ प्रेम था। देवकी और राजेश्वरी दोनों सगी बहनों से भी ज्यादा अपनी थीं। कमल किशोर और प्रहलाद दोनों काशी संस्कृत विद्यापीठ में प्राचार्य थे और सगे भइयों की तरह रहते थे।
लेकिन पंडित कमल किशोर के अचानक दिल्ली आने के बाद से दोनों परिवारों का आना जाना तक न रहा था।
“ये सब करने की प्रेरणा कहां से मिली सुमेद?” संघमित्रा ने बीच में बैठी चुप्पी को तोड़ा था। “इतना सब कर डाला है कि ..” संघमित्रा ने क्रांति वीर आश्रम को आंख उठा कर देखा था।
“तुम से किस कदर लड़ जाता था – याद है न?” विहंस कर सुमेद बेला था। “न जाने क्यों लड़ना मुझे बुरा नहीं लगता मित्रा!”
“किस से लड़े?” संघमित्रा ने आंखें नचाते हुए पूछा था।
“हेडली से!” सुमेद ने सीधा उत्तर दिया था। “मां तो मुझे कलक्टर बनाना चाहती थी। तब पिताजी ने कुंवर साहब की सिफारिश पर मेरा एडमीशन मैरी एंड जॉन्स स्कूल में करा दिया था। वहां का प्रिंसीपल हेडली हिटलर था। स्कूल में घुसते ही अंग्रेजी बोला – उसका हुक्म था। और जो अंग्रेजी नहीं बोल पाता था उसकी केनिंग होती थी। छोटे-छोटे बच्चों की आंखों में भरे आंसू मैं आज भी नहीं भुला पाया हूँ मित्रा!” चुप हो गया था सुमेद।
सुमेद उस विगत में लौटा था जिसके लिए वो आज भी लड़ रहा था।
“मैं उन मां बाप को कोसता मित्रा जो मोटी फीस देकर अपने नन्हे मुन्नों को उस जल्लाद हेडली के हवाले कर जाते जो उन्हें विदेशी भाषा सीखने के लिए मजबूर करता और ईसाई धर्म की शिक्षा देता।”
“तुम क्यों लड़े – हेडली से?” संघमित्रा ने बात काटी थी।
“इसलिए मित्रा कि तीस मिनट पहले स्कूल में ईसा के बारे प्रवचन होते थे। फिर चर्च जाना होता था। उसके बाद क्लास लगती थीं।”
“तो ..?”
“तो मुझे ये बुरा लगता था। मैंने प्रेयर में जाना बंद कर दिया था।”
“फिर ..?”
“फिर हेडली ने पंडित जी को पेशी पर बुलाया, धमकाया, डराया और बताया कि वो मुझे स्कूल से निकाल देगा।”
“फिर ..?”
“फिर मैं सीधा हेडली के ऑफिस में जा कर उस से भिड़ गया था। सच कहता हूँ मित्रा कि मुझे कुछ हो गया था। मैंने हेडली को गालियां बकीं, उसे धमकाया, उसे बताया कि वो हमें गलत शिक्षा दे रहा था, अपने धर्म का प्रचार कर रहा था, वो जल्लाद था, बच्चों को पिटवाता था और देश के लिए गद्दार था। उसके बाद स्कूल से बैग उठा मैं घर चला आया था।”
“फिर ..?”
“मां बहुत-बहुत रोई थी। पंडित जी गुमसुम ही बने रहे थे। लेकिन मुझे स्कूल छोड़ने का कोई गम न था, मित्रा! मेरा मन कहता – इस हेडली का खून कर दे, कॉन्वेंट स्कूल की बिल्डिंग पर बम मार कर उड़ा दे, इंकलाब जिंदा बाद के नारे लगा और सोते देश को जगा। तब मुझे एहसास हुआ था मित्रा कि मैं तो एक क्रांतिकारी था। मैं शहीद होने आया था। मुझे तो आजादी की मशाल जलानी थी। मुझे तो भारत को अंग्रेजों और अंग्रेजी से मुक्त कराना था।”
सहसा संघमित्रा तालियां बजाने लगी थी।
“मैं स्वागत करती हूँ अपने क्रांतिकारी का!” उसने सुमेद के दोनों हाथों को अपने हाथों में भर लिया था।
सुमेद की आंखें अमर प्रेम के आंसुओं से लबालब भरी थीं।
मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड