कालू सूनी-सूनी निगाहों से सामने पसरे खाली मैदान को एक टक देख रहा था।

मद्दी चल रही थी। कोई गहमागहमी न थी। किसी तरह की मारा-मारी भी न थी। ग्राहकों का अकाल पड़ रहा था। भोंदू खाली बैठा ऊंघ रहा था। कालू ही था जिसकी आंखों में नींद नहीं चिंता डोल रही थी। कई बार सोचा था कि भोंदू को भगा दे। लेकिन आज कल उसे दरकार थी भोंदू की। बहुत थकान चढ़ जाती थी उसे। लगा था कि बढ़ती उम्र अब उसके घुटने तोड़े दे रही थी।

तभी एक कार आकर सामने रुकी थी। कालू का मन खिल उठा था। राम चरन के जाने के बाद कार के ग्राहक आना ही भूल गए थे। आज मुद्दतों के बाद कोई भूला भटका लौटा था। कालू न जाने कौन से गहरे सोच में डूब गया था।

“खाना नहीं खिलाओगे?” राम चरन कालू के सामने खड़-खड़ा पूछ रहा था।

चकित निगाहों से कालू ने राम चरन को देखा था। राम चरन उसे आज कोई बड़ा सेठ साहूकार लगा था। राम चरन के बदन से उठती इत्र की महकारों ने कालू को जगा दिया था। सहसा उसे याद हो आया था वो .. वो मैला कुचैला राम चरन गंधाता, भूखा और आग्रही आंखों से याचना करता राम चरन। लेकिन आज ..

“उसी का नसीब क्यों नहीं जागा?” – कालू ने टीसे कर स्वयं से ही प्रश्न पूछा था।

“हां-हां!” कालू को होश लौटा था तो बोला था। “खूब .. खूब खाना खिलाऊंगा!” वह कहता रहा था।

तभी सुंदरी कार से उतर राम चरन के साथ आ कर खड़ी हो गई थी। कालू ने उस अप्सरा जैसी औरत को नई निगाहों से देखा था। दोनों का जोड़ा जम रहा था। दोनों जैसे एक दूसरे के पूरक थे। परम प्रतापी थे, हंसों का सा ये जोड़ा ..

“बड़ी तारीफ करते हैं तुम्हारी और तुम्हारे घर के खाने की।” सुंदरी ने कालू को सराहनीय निगाहों से देख कहा था।

लजा गया था कालू। उसकी पलकें झुक गई थीं सुंदरी के स्वागत में। उसे तो उम्मीद ही न थी कि वो अप्सरा उससे संवाद करेगी। लेकिन ..

अपनी पिछली यादों में डूबे-डूबे कालू ने उन्हें दो थालियां पकड़ाई थीं। भोंदू ने दो स्टूल कपड़ा मार कर उनके लिए रख दिए थे। उन दोनों ने प्रेम पूर्वक भोजन किया था। और कालू भी स्नेह के साथ सेवा में जुटा ही रहा था। आज दिन के उजाले में सहस्रों सूरजों का उजास कालू के आस पास डोलता रहा था। इससे पहले कि फिर अंधेरा घिर आए कालू राम चरन से कुछ पूछ लेना चाहता था।

लेकिन कालू का बंद मुंह खुला ही न था। उसे मांगना बुरा लगा था।

खाना खा कर वो दोनों अब जा रहे थे। कालू उन दोनों को मुग्ध भाव से देख रहा था। कोई स्वप्न था – सुख स्वप्न जो अब विदा ले कर भाग रहा था।

“मास्टर ..!” राम चरन ने कार के पास पहुंच कर आवाज दी थी। “आओ तो जरा!” उसने कालू को पुकारा था।

लपकता हुआ कालू राम चरन के सामने आ कर खड़ा हो गया था।

“ये लो!” राम चरन बोला था। “एग्रीमेंट है! तुम्हारे नाम रेस्टोरेंट का एग्रीमेंट – सुनहरी लेक कॉम्पलैक्स में! आ कर कभी भी पॉजेशन ले लो!” राम चरन ने कालू को अब अपांग देखा था।

कालू की आंखें भर आई थीं। कालू के होंठ कांप रहे थे।

“तुमने दोस्ती निबाही राम चरन, पर हमें उम्मीद न थी।” कालू बस इतना ही कह पाया था।

“उम्मीद पर ही तो दुनिया खड़ी है मास्टर!” कह कर राम चरन मुसकुराया था।

राम चरन और सुंदरी के जाने के बाद कालू ने भी स्वीकारा था कि राम चरन जैसे लोग अभी भी जिंदा हैं और तभी शायद संसार चल रहा था।

रेहड़ी रोक आज पहली बार कालू ने ढोलू शिव के चरणों में सर रख कर प्रणाम किया था।

पंडित कमल किशोर एक अजूबे को घटते चुपचाप देखते रहे थे।

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

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