“तुम्हारे लौटने के बाद दोनों को एक साथ फांसी पर लटका देंगे।” राम चरन शगुफ्ता की आवाजें साफ-साफ सुन रहा था। हवाई जहाज लंबी उड़ान पर था। लेकिन राम चरन का सोच आज उसके ही आस-पास आ बैठा था। “ये तो तुम्हें काम होते ही हैंडओवर कर देंगे। कोई खलीफात नहीं – हमें तो ये कनवर्टी कहते हैं – हिन्दू मानते हैं।”
“मैं भी अब किसी को कुछ नहीं मानता।” राम चरन ने स्वयं से कहा था। लेकिन उसकी ये बात उसके विगत ने नहीं मानी थी।
“तुम तीन गाढ़े दोस्त थे, याद आया मुनीर?” विगत बोला था। “क्या दोस्ती थी, रे।” उसे भी याद हो आया था। “रहना सहना, खाना पीना, जीना मरना – सभी तो साथ-साथ था। नारंग हम तीनों का मुखिया था। सब नारंग की बात मानते थे। और .. और हां! सलमा हम तीनों की हथेली पर एक शहद की बूंद सी आ बैठी थी। तब वो हम तीनों की थी। हमारी जान थी – जिंदगी थी – प्यार थी – लाढ़ थी और जीने का एक आधार थी। हम जुदा होंगे, यों लड़ेंगे – यों खपेंगे ये तो कभी सोचा ही न था। हां! पहले सलमा ने बेवफाई की। बलूच ने सारे वायदे तोड़े और मैंने बलूच की चाल पर नारंग और सलमा की हत्या की। तीन सेना के डेकोरेटेड सोल्जर भांग के भाड़े मिट्टी में मिल गए।” राम चरन ने उखड़ी लंबी सांस को रोका था। एक वेदना का ज्वार उसकी सांस के साथ बाहर भाग गया था।
“कुछ बनना बिगड़ना अपने हाथ में नहीं होता।” राम चरन ने मान लिया था। “आगे भी क्या होगा और क्या-क्या घटेगा – क्या पता?” राम चरन का दिमाग आज चक्कर खा रहा था। “खलीफात के लिए तो अब काम नहीं करना।” उसने एक निर्णय लिया था। “लेकिन ..” उसकी खाली-खाली निगाहें शून्य में जा कर ठहर गई थीं।
निरुद्देश्य से इन पलों को जीता राम चरन कांपने लगा था।
“क्या हुआ ..?” लगा जैसे संघमित्रा ने प्रश्न पूछा था।
उछल पड़ा था राम चरन। पहली बार उसने संघमित्रा का संवाद सुना था। पहली बार उसने संघमित्रा के चेहरे पर बैठे उन आत्मीय पलों को पढ़ा था। पहली बार उसे लगा था कि एक नए जीवन का संचार उसके मन प्राण में हुआ था।
“ये .. ये बड़ी ही धोखेबाज दुनिया है संघमित्रा।” राम चरन संभल कर बोला था। “तुम इधर मत आना। एक बार आ जाने के बाद तो ..”
“मैं तो ब्रह्मचारिणी हूँ।” संघमित्रा मुसकुरा रही थी। “संसार के सुख दुख से परे रहती हूँ – मैं।” वह हंसी थी और चली गई थी।
राम चरन का उजड़ा बिगड़ा मन संभल गया था। संघमित्रा की मात्र एक झलक ने उसे फिर से जिंदा कर दिया था। कहीं एक नए आरंभ का उदय हुआ था। सारे विगत को भूल राम चरन संघमित्रा के साथ कुछ नया-नया रच बस कर बैठ जाना चाहता था। कुछ ऐसा जो सब से अलग हो, निराला हो और केवल और केवल उन दोनों के बीच ही हो। पहले की तरह ..
“क्या दोगे संघमित्रा को?” किसी ने राम चरन से प्रश्न पूछा था।
“ढोलू शिव का खजाना।” एक उत्तर भाग कर स्वयं ही बाहर आ गया था।
राम चरन को आश्चर्य हुआ था। वह तो भूल ही गया था – ढोलू शिव से प्राप्त खजाने को। उसे तो याद ही नहीं रहा था कि वो राम चरन ढोलुओं का दामाद था। उसे सहसा याद आया था कि वो तो हिन्दुस्तान को जीतने वाला था और उसकी राजधानी हैदराबाद में होनी थी।
उसमान ने उस्मानिया सल्तनत की नींव डाली थी – उसे याद आया था। अरब सागर के उस पार उस्मानिया सल्तनत खूब फली फूली थी। लेकिन ईसाइयों ने ..
“इस बार नहीं हरा पाएंगे ईसाई!” राम चरन ने एक सामरिक सच्चाई सामने रख दी थी। “अगर एशिया सल्तनत की नींव जलाल रख दे तो?” एक नया और नायाब प्रश्न पैदा हुआ था।
अरब सागर के इस पार अगर ऐशिया सल्तनत की नींव पड़ती है और उसका उत्तरदायी जलाल होता है .. तो ..?
राम चरन ने आंख उठाई थी तो उसने संघमित्रा को हंसते हुए देख लिया था।
राम चरन खाली हाथ दिल्ली नहीं लौटा था।
मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड