मुनीर खान जलाल का मन आज उड़ते हवाई जहाज के आगे-आगे उड़ रहा था।

उसे उम्मीद थी – सोलहों आने उम्मीद थी कि उसका खलीफात में शामिल होना अब निश्चित था। ढोलू शिव का खजाना अब उसका खजाना था। और पूरा हिन्दुस्तान अब सी के नाम लिखा जाना था। फिर हैदराबाद उसकी नई नवेली राजधानी और जन्नते जहां एक साकार हुई कल्पना सा राज महल और फिर संघमित्रा ..

लंबे पलों तक वह संघमित्रा के पवित्र हुस्न को उंगलियों से सहलाता रहा था। उसने संघमित्रा की आंखों में झांक अपने लिए स्वीकार खोजा था। जब कोई उत्तर न आया था तो तनिक निराश उदास हो कर वह सीट पर पीछे खिसक कर बैठा रहा था।

उसे याद आ रहा था कि किस तरह वह सलमा के प्यार में पागल हो गया था और उसके तलवे चाटता था। लेकिन सलमा तो नारंग की दीवानी थी – उसी के तलवे चाटती थी। और .. और ये सुंदरी? सुंदरी ने तो उसे एक गरज मान कर ग्रहण किया था – शायद। वह उसके तलवे नहीं चाटती थी। वह शायद – शायद क्यों सही मायनों में आज भी महेंद्र की ही थी। जब भाभी जी ने याद दिलाया था तो वह लौटी थी – राम चरन के लिए। वरना तो ..

और ये शगुफ्ता जो उसके हाथ को अपने दोनों हाथों में लिए साथ बैठी थी – उसके तलवे चाटती है। लेकिन क्यों? एक नॉर्मल औरत थी शगुफ्ता लेकिन ..

“हम दोनों अकेले रहेंगे उस अटलांटिक महासागर में सुदूर बसे द्वीप पर। और ..” शगुफ्ता का किया निर्णय मुनीर खान जलाल को याद हो आया था। “बड़ा ही सुंदर द्वीप है। कुल चालीस लोगों के घर हैं। वो सब भी हमारे होंगे। आदमियों से ज्यादा तो वहां पशु पक्षी हैं। चारों ओर से द्वीप हरी मोथा घास से घिरा है। कभी ज्वालामुखी था। लेकिन अब शांत हो गया है।” शगुफ्ता उसे बताती रही थी।

“लेकिन .. लेकिन मेरे भीतर तो अब आ कर ज्वालामुखी फूटा है।” मुनीर खान जलाल ने अचानक अपने अंदर झांका था। “वहां संघमित्रा के सिवा और कोई निवास नहीं कर पाएगा अब।” वह महसूस रहा था। “खलीफात में वो रहेगा, संघमित्रा रहेगी और उनकी रिआया – और बस।” उसने एक निर्णय ले लिया था। “अरब सागर के उस पार का संसार अब उसका रहेगा और ..”

इस बार वो अपने पुरखों वाली गलती नहीं करेगा। उसे अनायास ही याद आया था अपना परदादा – जोरावर सिंह और याद हो आया था उनका किशनगढ़ का साम्राज्य। “पाकिस्तान क्यों चले गए थे दद्दा?” वह स्वयं से पूछ बैठा था। “कोई पागल ही होगा जो हिन्दुस्तान छोड़ कर जाएगा।” वह गलती मान रहा था।

शगुफ्ता ने मुनीर का सपना तोड़ दिया था। वह अपने दिवा स्वप्न में अब किसी न किसी तरह मुनीर खान जलाल को शामिल कर लेना चाहती थी।

“मंजूर अहमद क्यों नहीं आया?” मुनीर खान जलाल ने अचानक ही एक बेतुका प्रश्न पूछ लिया था।

“मैं ही नहीं लाई उसे।” शगुफ्ता ने तुरंत उत्तर दिया था।

“क्यों ..?” मुनीर भी दूसरा प्रश्न पूछ बैठा था।

“कोढ़ में खाज हो जाता मंजूर!” शगुफ्ता हंसी थी। “अपने हसीन ख्वाब को मैं उसके साथ साझा न करना चाहती थी।

“लेकिन क्यों? मंजूर अहमद तो ..”

“होता कोई नहीं है – किसी का!” दो टूक उत्तर था शगुफ्ता का। “मैंने अब तुम्हें पा लिया है मुनीर। मैं अब ..” शगुफ्ता ने अब मुनीर के दोनों हाथ अपने हाथों में भर लिए थे।

“तो क्या रिपोर्ट नहीं करने मेरे बारे?” मुनीर खान जलाल ने शगुफ्ता की गुप्त नस टटोली थी। “तुम्हें तो लौट कर बताना होगा कि ..”

“अब नहीं।” शगुफ्ता नाट गई थी।

“लेकिन क्यों?”

“जान जाओगे तो तुम भी ..” शगुफ्ता ने बात को जान मान कर अधूरा छोड़ दिया था।

उन दोनों की आंखें मिली थीं। उन दोनों ने प्रश्न पूछे थे। उन दोनों ने उत्तर नहीं दिए थे। वो दोनों चुप थे। वा दोनों अपने-अपने खयालों में लौट गए थे।

हवाई जहाज अपनी उड़ान पूरी कर मंजिल पर आ कर उतर गया था।

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

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