“मैं तो बचपन में ही बर्बाद हो गई थी सर!” शगुफ्ता ने आज पहली बार अपने जीवन के रहस्यों से पर्दा उठाया था। “मेरे कजिन भाई जान ने मेरी सलवार का नाड़ा खोल दिया था। तब मैं तेरह साल की थी। उसने कमरे का दरवाजा बंद कर दिया था। उसके मैंने हाथ जोड़े थे। मैं रोई थी – कहा था भाई जान मुझे क्यों बर्बाद करते हो? मैं .. मैं .. तुम से? मैं वास्तव में ही महमूद से प्यार नहीं करती थी।

मेरे सपने थे। मेरा एक काल्पनिक प्रेमी था। मैं उसी की थी और वह मेरा था। बहुत लगाव था। लेकिन जब महमूद ने हमला किया था तो मैं ..”

“मैं .. मैं मर जाऊंगी महमूद भाई!” बिलख कर मैंने गुहार लगाई थी।

“इलहान मत भर।” महमूद ने मुझे डांटा था। “औरत का और काम क्या है?” वह गरजा था।

“तुमने .. मेरा मतलब .. कि तुमने ..?” मुनीर शायद कुछ पूछना चाहता था लेकिन चुप हो गया था। उसकी कुछ समझ में न आ रहा था कि क्या कहे।

“27 आदमियों का परिवार था लेकिन मेरे लिए कोई बोला तक न था। महमूद दबंग था। “मेरा हक है तुम पर!”

“हां! हक तो होगा। लेकिन ..?” मुनीर खान जलाल के अपने भाव भी रिसने लगे थे। “क्या हक होता है – किसी का?” उसने स्वयं से ही प्रश्न पूछा था। “कौन सा हक है – मुझे?” वह टीस आया था। “भिखारी बना खड़ा हूँ। वो भी नकली भिखारी। हाहाहा! वॉट ए ब्लाडी जोक?” मुनीर ने एक बार रीते आसमान को आंख उठा कर देखा था।

“सच मानो, सर मैं .. मैं आज भी और अब तक भी अपने उस प्रेमी को पाने के लिए तरस-तरस गई हूँ। वो मुझे प्यार करता था – गले लगाता था और कसमें खाता था कि ..”

“ख्वाबों का हिसाब किताब अलग ही होता है शगुफ्ता।” मुनीर तनिक मुसकुराया था। “जब ये जिंदगी नंगे पैरों जमीन पर चलती है तो नजारा अलग ही होता है। औरों को क्यों – मुझे ही देख लो।”

शगुफ्ता मौन थी। शगुफ्ता को मुनीर की कहानी कम दहलाने वाली न लगी थी।

“भिखारी बन कर ही सही भारत तो जा ही रहे हो सर!” शगुफ्ता हंसी थी। “हो सकता है कोई परी पल्ले पड़ जाए। मेरी तो कोई आस रही नहीं अब जो ..”

मुनीर खान जलाल को याद है कि मात्र किसी परी की कल्पना से उसे भीतर से सजग कर दिया था। एक वफादार औरत पाने का उसका मन अभी तक न भरा था।

“परियों की तो कहानियां ही हैं, शगुफ्ता।” मुनीर ने प्रतिवाद किया था।

“नहीं सर! हिन्दुस्तान में तो आज भी परियां हैं, सतियां हैं, पतिव्रता हैं और विदुषी भी ऐसी-ऐसी स्त्रियां हैं जो राज काज तक संभाल रही हैं। एक हमीं हैं जो बुरके में बंद हैं। एक हमीं हैं जो हाजिर हैं और कोई भी उनका नाड़ा ..”

वो रात बड़ी रोमांटिक थी। शगुफ्ता और मुनीर अपने-अपने घाव दिखाते रहे थे और एक दूसरे का मन बहलाते रहे थे। स्त्री और पुरुष की कहानियां, मिलन और विछोह के किस्से ही थे – और जन्म जन्मांतरों की यादें थीं – पता लगता था कि एक सती नारी ने मृत पति को जिंदा करा लिया और एक स्त्री ने अपने प्रेमी को पाने के लिए अपने आप को बेच दिया।

रात भर शगुफ्ता और मुनीर खान इसी तरह की कल्पनाओं में उलझे सुलझे दो उजड़े दयारों की तरह अपनी-अपनी कहानी कहते रहे थे।

लेकिन आज तो मुनीर खान जलाल एक बेहद नए सूरज को उगते देख रहा था। एक नया सवेरा हो रहा था – जहां चिड़िया चहक-चहक कर उसे संघमित्रा के बारे नई-नई बातें बता रही थीं।

मुनीर आज आपा भूल रहा था। वह कौन था, क्या था और क्यों था – उसे कुछ याद नहीं था। उसे अब मात्र संघमित्रा ही दिखाई दे रही थी। वह उसे बुला रही थी। वह उससे बतियाना चाहती थी। वह भी चाहता था कि अपनी कहे और उसकी सुने। वह चाहती थी कि .. वो ..

“इश्के आलिया!” मुनीर ने नया संवाद बोला था। “तुम्हारे लिए नया संसार बसाऊंगा – जन्नते जहां! वहीं रहेंगे हम दोनों, मेरी जान। बनाया होगा किसी ने ताज महल लेकिन मैं तुम्हारे लिए ..”

जिंदगी सपनों का खेल है। जिंदगी खोने पाने का हेल-मेल है। नया पुराना होता है और पुराना नया हो जाता है।

मुनीर को अहसास हुआ था कि आज एक प्रेम का नायाब अंकुर उसके दिल दिमाग में उग आया है। अब से संघमित्रा ही उसके जीवन का अभिप्राय है।

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

Discover more from Praneta Publications Pvt. Ltd.

Subscribe now to keep reading and get access to the full archive.

Continue reading