राम चरन की बड़े तड़के ही आंख खुल गई थी। वह उठा था और तैयार होने लगा था।
आचार्य प्रहलाद ने अपने आने का कोई समय नहीं बताया था अतः राम चरन नहीं चाहता था कि पहले वाली गलती फिर हो जाए। इस बार वह कोई गलती करना ही न चाहता था। उसने अपने मन में आचार्य प्रहलाद के आगत स्वागत की सारी तैयारियां कर ली थीं। ही वॉन्टेड टू प्रेजेंट हिज बैस्ट सैल्फ दिस टाइम। पहली बार ही था कि उसके मन ने, उसके प्राण ने और उसके संपूर्ण ने संघमित्रा को ईमानदारी से चाहा था। संघमित्रा अकेली ही थी जिसने उसको अंतरतम से आहत किया था, मोहित किया था और पगलाने की हद तक पार कर दी थी।
“इतनी जल्दी आज कहां ..?” अचानक सुंदरी ने आ कर पीछे से प्रश्न किया था। राम चरन बमक गया था। जैसे उसकी चोरी पकड़ी गई हो – वह घबरा गया था। “बड़े चाव से सज वज रहे हो?” सुंदरी मुसकुरा रही थी।
“अरे यार! है एक आफत!” राम चरन ने पैंतरा बदला था। “वो .. वो काशी वाला है न एक पंडित!” राम चरन ने झूठ बोलना चाहा था।
“संघमित्रा के फादर की बात कर रहे हो क्या?”
“हां-हां – शायद वही, बंगला मांग रहा है। पंडित कमल किशोर की तरह ..”
“तो दे दो न! ये तो पुण्य का काम है। ये लोग तो वैसे भी समाज से ज्यादा कुछ मांगते नहीं।” सुंदरी का सुझाव था।
सुंदरी फिर से सोने चली गई थी। उसकी अभी तक नींद पूरी नहीं हुई थी। राम चरन की खटर पटर ने उसे जगा दिया था।
“आइए-आइए आचार्य!” आचार्य प्रहलाद के आगमन पर राम चरन प्रफुल्लित हो उठा था।
“मैं तो धन्य हुआ कि आप जैसे प्रकाण्ड विद्वान मेरे तनिक से आग्रह पर ..”
“छोड़िए भी राम चरन बाबू!” आचार्य प्रहलाद ने सोफे पर बैठते हुए कहा था। “हम तो साधारण मनुष्य हैं। मालिक तो प्रभु हैं।” वह तनिक हंसे थे। “या फिर मालिक आप हैं।” आचार्य ने राम चरन के भव्य ऑफिस को देखते हुए कहा था। “बड़े वैभव के मालिक हैं आप, राम चरन बाबू!”
“आप का स्वागत है आचार्य!” राम चरन ने मौका न छोड़ा था। “लीजिए नम्बर सात बंगले की फाइल। ये रही चाबियां! रहिए उसमें ..”
आचार्य प्रहलाद ने राम चरन को जैसे दिव्य दृष्टि से देखा था, पहचाना था और एक स्वयं का निर्णय लिया था।
“रक्खो-रक्खो इसे।” आचार्य प्रहलाद बोले थे। “मैं अकेला क्या करूंगा बंगले का?” आचार्य प्रहलाद का प्रश्न था।
“चाय तो लीजिए! और ये स्नेक्स – प्योर वैजीटेरियन हैं। हल्दी राम के हैं।”
“भाई चाय तो पीएंगे!” हंसे थे आचार्य प्रहलाद।
“आप नहीं तो संघमित्रा रह लेगी?” राम चरन पत्ता फेंकना न भूला था। “आचार्य जी ये सात नम्बर बंगला ..” राम चरन बंगले की कीमत बताते-बताते रुक गया था।
“फिर तो मैं संघमित्रा से पूछ ही बताऊंगा!” आचार्य प्रहलाद फिर से वार बचा गए थे।
अब राम चरन अधीर हो उठा था। उसे लगा था कि वह आज सब कुछ हार जाएगा।
“कब तक बताएंगे?” राम चरन का प्रश्न था। वह आज मौका खोना न चाहता था। “बड़ी डिमांड है सात नम्बर की।” उसने आचार्य को आगाह किया था।
“लेकिन वह तो सुमेद के साथ चार बजे की फ्लाइट से हैदराबाद चली गई। और मैं आज शाम की गाड़ी से काशी चला जाऊंगा।” एक पवित्र हंसी हंसे थे आचार्य प्रहलाद। “मुझे तो कुटिया में रहने का अभ्यास हो गया है राम चरन बाबू। हमें महल नहीं सुहाते।” एक बेबाक बात आचार्य प्रहलाद के होंठों से फूलों की तरह झर-झर झरी थी। “चलता हूँ।” वह उठे थे और चले गए थे।
राम चरन आज हार गया था। लेकिन वो हारना तो चाहता ही न था।
“अब तो जंग जुड़ेगी!” मुनीर खान जलाल का ऐलान था। “इन जनेऊ धारी ब्राह्मणों को एक बार समूल नष्ट करना ही होगा।” उसने स्वयं से वायदा किया था। “संघमित्रा तो अब मेरी हुई” – उसने स्वयं को वचन दिया था।
मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड