बलूच वॉज ए हैप्पी गो लक्की मैन।

कैरियर के सिवा वो किसी और के बारे में कतई सीरियस न था।

“मुझे चीफ तो हर हाल में बनना ही है, यार मुनीर।” वह कहता रहता जबकि हर कोई जानता था कि कोई पागल सरकार ही होगी जो उसे चीफ तैनात करेगी।

औरतों के बारे में भी बलूच की राय बिलकुल उलट थी। डब्बा खड़काना – उसके शौक में शामिल था। डब्बा खड़काने का मतलब था – कोई भी सुंदर औरत माने एक डब्बा और उसके साथ कुछ भी कर गुजरना माने कि उसे खड़काना। और वह जब भी डब्बा खड़का कर आता था मुझे जरूर बताता था। क्यों कि मैं ही एक था जो उसे बलूच दी ग्रेट कहता था और वो उसे सुनने का आदी हो गया था।

गश्तियों के साथ मस्ती करना बलूच का दूसरा शौक था।

गश्ती वो औरतें थीं जो आसानी से उपलब्ध थीं। एंड इन लाइट मूड – बलूच उनके साथ भी हो लेता था। और खूब मस्ती मारता था। कभी कभार वो मुझे भी इस अभियान में शामिल कर लेता था। पेट भर कर दारू पीते रहना और उन औरतों के साथ रंगरलियां मनाते रहना उसका अनूठा शौक था। मैं जब बोर होने लगता था तो उन्हें छोड़ कर भाग आता था।

बलूच के बीबी बच्चे यू के में थे। घर से वो धनी मानी बाप का बेटा था। बलूच खूब उड़ाता खाता था। पैसे की तो कभी परवाह ही न करता था। यारों का यार था बलूच और न चाहते हुए भी वह मेरा जिगरी यार बना हुआ था। उसकी और कितनी औरतें दोस्त थीं – कोई नहीं जानता था।

फ्रांस की ट्रिप से लौटा था बलूच तो मेरे लिए एक कैबरे की कहानी लाया था।

“वॉट ए वूमन यार?” उसने मुझे कैबरे की कहानी सुनाई थी। “कैबरे देखते-देखते मेरा तो वो हाल हुआ कि – अगर दारू का घूंट न लगाता तो ..” उसने मुझे आंखों में घूरा था। “यू मस्ट सी कैबरे मुनीर। है एक वैसी ही औरत। बाई गॉड! तू उसे देख लेगा न तो ..”

“मुझे क्या जरूरत है बे?” तनिक तुनक कर कहा था मैंने। मुझे इस तरह का कोई शौक था ही नहीं।

“है भाई है!” बलूच ने कई बार अपनी मुंडी हिलाई थी। “तुझे जरूरत है। तभी तो ..” वह जोरों से हंसा था। “दर्शन तो कर एक बार! औरत मीन्स ..?” उसकी आंखें शरारत से नाच रही थीं।

मैं बलूच को कभी से भी सीरियसली नहीं लेता था। बलूच की बात माने कि कुत्ते की लात। वो खुद किसी के बारे में सीरियस न था। उसे अपने सिवा बाकी सब तो बेवकूफ ही नजर आते थे। और यही कारण था कि सलमा उसे कभी घास न डालती थी। उसका दोस्त तो था – पर एक दूरी पर था। जबकि बलूच हर संभव कोशिश करता था कि किसी तरह सलमा ..

मैं भी बलूच को उसके जाते ही भूल जाता था।

संघमित्रा के अदूषित हुस्न को छूने से परहेज ही ठीक था – मेरा विवेक बता रहा था। लेकिन मन इस बात को न मान रहा था। कह रहा था – ये तो अल्लाह का किया करिश्मा है और अल्लाह का हुक्म है कि हर हिन्दू महिला तुम्हारा हक है। लूट लो। सुमेद उसका कुछ नहीं है। और आचार्य तो लालची है। साथ नम्बर बंगला पा कर तो अंधा हो जाएगा।

“बलूच होता तो क्या करता?” एक अजीब प्रश्न मेरे जेहन में कुलबुलाया था। “हरगिज नहीं छोड़ता संघमित्रा को – किसी भी कीमत पर – किसी भी हाल में – वो तो ..”

बलूच नहीं घबराता था। किसी भी सुंदर और मनभावन औरत को छू देता था और उसे पटा लेता था। लेकिन मैं संकोच करता था। मुझे तो शर्म आती थी कि मैं किसी औरत से कुछ मांगूं! सलमा से भी मैंने कभी कुछ न मांगा था। उसी ने पुकारा था, बुलाया था और निकाह किया था। सुंदरी ने भी तो मुझे स्वयं ही पा लिया था और ..

“क्या हो जो संघमित्रा स्वयं ही मुझे पुकार ले?” वह संघमित्रा के कोकिल कंठ से आते मधुर और प्रेमिल शब्द सुनने लगा था। “कैसा हो जो आचार्य प्रहलाद उसे ..” वह कई पलों तक प्रहलाद के बारे सोचता रहा था। “और अगर सुमेद ..?” अब वह कुछ अशुभ सोचने को था।

अचानक मुनीर खान जलाल खलीफा बना रत्न जड़ित सिंहासन पर बैठा था। और संघमित्रा उसके साथ बैठी मुसकुरा रही थी।

यही अंतिम स्वप्न था – जिसे राम चरन देखता ही रह गया था।

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

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