बिना राम चरन के कालू की जंग कठिन हो गई थी।

ढोलू शिव का मेला भरा था। अपार भीड़ थी। ग्राहकों की लाइन ही न टूटती थी। बिना राम चरन के कालू ही सारा काम संभालता। हां, भोंदू भी साथ था लेकिन राम चरन की तो बात ही और थी। कालू ने महसूसा था कि अंजाने में उसने भी देख-देख कर ही राम चरन से बहुत कुछ सीख लिया था। राम चरन का तो अंदाज ही और था। यहां तक कि बात चीत भी ..

“कहां मर गया!” कालू ने पसीने पोंछते हुए राम चरन को याद किया था। “सारा काम धाम .. सारे सपने ..!” वह बड़बड़ा रहा था। “क्या फायदा ..?” उसने जुड़ी भीड़ को रीती-रीती निगाह से देखा था।

कालू को लगा था कि राम चरन के साथ-साथ उसके बड़ा होने के सपने भी नदारद होने लगे थे। सब कुछ टूट गया था – बिखर गया था। नया कारीगर रखता तो कैसे? मुंह फाड़कर पैसे मांगते थे लोग। उसे तो डर था कि कहीं भोंदू भी न भाग जाए!

सुंदरी ने अपने सपनों को स्वयं ही साकार कर लिया था।

झूठे बरतन धोता राम चार उसे गंदी नाली में पड़ा हीरा लगा था। अपनी चतुर उंगलियों से उसने उस हीरे को उठा लिया था और अपने मनोनुकूल तराशा था। अब राम चरन घर का खाना नहीं सुंदरी के हाथों का बना खाना खाता था। सुंदरी ने शो रूम जाकर राम चरन के कपड़े ऑडर पर बनवाए थे। कालू के पुराने कुर्ते पाजामे और रमा के बनाए राधे श्याम छाप कपड़े सुंदरी ने गरीबों को दान कर दिए थे। अब राम चरन ..

घर के खाने की रेहड़ी के सामने कार आ कर रुकी थी तो कालू उल्लसित हुआ था। आज कल कार वाले भी कालू के क्लाइंट थे। अचानक कालू को राम चरन याद हो आया था। कार वालों को बड़ी चतुराई से हैंडिल करता था – राम चरन।

“सॉरी पार्टनर! मैं आ न पाया ..!” अचानक कालू के कानों ने सुना था तो उसने निगाहें उठा कर सामने खड़े ग्राहक को देखा था। पर वह तो राम चरन था। सफारी सूट में सजावजा वही राम चरन ..? कालू ने कार पर निगाह डाली थी। ड्राइविंग सीट पर कोई परी बैठी थी। कालू की सांसें रुक गई थीं। “चलता हूँ!” राम चरन ने फिर कहा था।

“ख .. ख .. खाना तो खाते जाओ!” कालू कठिनाई से कह पाया था।

“हां-हां! आएंगे किसी दिन खाना खाने!” वह तनिक सा हंसा था और चला गया था।

“कहां से कहां चढ़ गया राम चरन?” कालू ने जाते राम चरन को देख आह भरी थी।

कालू का जीने का जायका ही बिगड़ गया था। घर लौटते वक्त उसने आज ढोलू शिव के मंदिर को देखा तक न था और न ही ढोलू शिव को प्रणाम किया था। “मेहनत करने वालों को तुम भी कुछ नहीं देते।” उसने ढोलू शिव को उलाहना दिया था।

“क्या हुआ?” श्यामल ने कालू के बिगड़े चेहरे को देख कर पूछा था।

“राम चरन ..”

“आ गया ..?”

“हां!”

“फिर तो तुम्हें खुश होना चाहिए? लेकिन ..”

“वो हमारा राम चरन नहीं – उसका राम चरन था।” कालू ने व्यंग किया था।

“तो ..?” श्यामल भी भ्रमित थी तो प्रश्न पूछा था।

“वो तो फरिश्ता था – श्यामल! किसी हूर के साथ कार में बैठ कर आया था!”

“ओ मैया!” श्यामल भी बौरा गई थी। “जे का हुआ राम जी! ई कौन भरम निकला?” वह भी अनुमान लगाने लगी थी।

श्यामल और कालू एक दूसरे को प्रश्न वाचक निगाहों से घूरते रहे थे – बहुत देर तक!

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

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