कच्ची जमीन पर खड़ा राम चरन पक्के मनसूबे बांध रहा था।
मंदिर के गर्भ गृह का ये एकांत उसे असीम आजादी बांटता था – चाहे जो सोचने की और चाहे जो मंसूबे बनाने बिगाड़ने की। यहां तक पहुंचने का एक ही बड़ा कारण था – उसकी अपनी महत्वाकांक्षा। वह मोर्चे मारना चाहता था – एक के बाद एक। बहुत हद तक उसने सफलताएं हासिल की थीं। वह हर बार जीता था। लेकिन ..
लेकिन इस बार तो उसने हद ही पार कर दी थी। आसमान से भी ऊंचा लक्ष्य लिया था राम चरन ने। क्या करता? उसके पास यही एक विकल्प बचा था। कुआं और खाई के बीच आ खड़ा हुआ था वह – इस बार!
अचानक दरवाजे पर दस्तक हुई थी।
राम चरन उछल पड़ा था। उसकी सांस रुक गई थी। उसका गला सूख गया था। उसके हाथ कांपने लगे थे। रात – इतनी रात गए कौन था जो दरवाजा खटखटा रहा था? राम चरन का शक पंडित कमल किशोर पर गया था। उसने अभी तक गलती तो कोई की ही न थी, फिर ..? पंडित पढ़ा लिखा था, विद्वान था .. और .. वह ..
लंबे पलों तक जब दरवाजा नहीं खुला था तो सुंदरी को क्रोध चढ़ने लगा था। उसका शक सच होने को था। जरूर कोई औरत थी – राम चरन के साथ, वह मान लेना चाहती थी।
राम चरन ने आहिस्ता से दरवाजा खोला था और सुंदरी को देख लिया था।
“अ.. अ .. आप?” राम चरन ने हकलाते हुए प्रश्न पूछा था। उसकी आवाज धीमी थी, मधुर थी और आग्रही थी।
“अंदर आने को नहीं कहोगे?”
“हां-हां आइए! आप का ही .. अपना ..”
सुंदरी अंदर आई थी और राम चरन ने आहिस्ता से दरवाजा बंद कर लिया था।
सुंदरी और राम चरन पाए उस पवित्र मंदिर के एकांत में आमने सामने खड़े थे। सुंदरी के दिल की धड़कन तेज हो गई थी। राम चरन की भुजाएं फड़क उठी थीं। उसने महसूसा था कि जन्नत की हूर उसके सामने आ खड़ी हुई थी। सुंदरी के गेसू उसके कंधों पर झूल रहे थे। आंखों में अनोखे आग्रह खेल रहे थे। होंठों पर आमंत्रण आ बैठे थे। मिलन .. वो .. बस मिलन ही था – जो अब आना था।
राम चरन ने पहले प्रहार किया था। सुंदरी को बांहों में समेट उसने अपने होंठों को सुंदरी के होंठों पर जड़ दिया था। सुंदरी राम चरन के आगोश में समाई अब पिघलने लगी थी। न जाने कब तक ये उन्माद छाया रहा था। खोने पाने का ये सिलसिला चलता ही रहा था – अनवरत! स्पर्श सुख, आलिंगन और समर्पण का परम सुख दोनों को खूब-खूब सताता रहा था।
“आ .. आप?” राम चरन होश में आया था तो बोला था।
“आप की – सुंदरी ..?”
“मं जू र!” राम चरन ने सुंदरी को माथे पर चूम लिया था।
देर रात घर लौटी सुंदरी सोच रही थी – प्यार .. नहीं-नहीं – उन्माद .. नहीं-नहीं निरा पागलपन! पहली बार सुंदरी को इस पागलपन की अनुभूति हुई थी। महेंद्र के साथ तो .. प्यार था! लेकिन कभी-कभी औरत ही आवारा हो जाती है, पागल हो जाती है और सब कुछ हार जाती है – मात्र एक पुरुष को पा जाने के लिए!
राम चरन के सौभाग्य ने आज फिर उसकी पीठ थपथपाई थी। जो होना होता है – वह हो कर ही रहता है, राम चरन मान गया था। असंभव, संभव होता रहता है, अजूबे भी घटते रहते हैं और आदमी भी हारता जीतता रहता है।
यूं ही चलते-चलते हंस गया था राम चरन!
मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड