गतांक से आगे :-
भाग -५१
कलकत्ता ब्रिज-मंडल बना खड़ा था !
कृष्ण जन्माष्टमी का महोत्सव था. प्रकृति कलकत्ता पर अब की बार कुछ ज्यादा ही प्रसन्न थी. काले-काले बादलों के हुजूम आसमान पर टहलते नज़र आते थे. वर्षा की भारी और मीठी-मीठी पड़ती फुहारें मेघ मल्हार जैसी गाती फिर रही थी. मन-मानस ही नहीं जर्रा-जर्रा हरा हो उठा था .. प्रसन्न था और कृष्ण कन्हयाँ के जन्म दिवस पर अतिरिक्त रूप से उत्साहित था !
सावित्री अपने कृष्ण कन्हयाँ का जन्म दिन मना रही थी.
एक बड़े .. नहीं-नहीं, एक अंतर्राष्ट्रीय उत्सव का आयोजन हो रहा था. कृष्ण महानायक थे .. पूरा विश्व ही उन्हें पूजता था. अतः सावित्री ने इस उत्सव को एक अलग ही रंग दे डाला था. देश और विदेश की पत्र-पत्रिकाओं में उत्सव की चर्चा थी और खुला आमंत्रण था कि श्रद्धालु उत्सव में आने से संकोच न करें .. चले आयें और केशव का जन्मदिन अपनी तबियत से मनाएं ! पूरा कलकत्ता आमंत्रित था. मथुरा जी से भारी तादात में पण्डे-पुजारी, कलाकार और कथाकार पधारे थे. पूरे एक सप्ताह का आयोजन था और एक मुकम्मल व्यवस्था थी – जिस मे आगत-स्वागत से लेकर विसर्जन समारोह तक हर आगंतुक के लिए सुविधाएँ प्राप्त थीं.
“सूरज !” सावित्री ने कुछ लोगों को निजी तौर पर निमंत्रित किया था. “बच्चों समेत आना है, तुम्हे.” सावित्री बता रही थी. “पूरे एक सप्ताह रहना है.”
“पर .. लेकिन ..” सूरज गड़बड़ाया लगा था.
“मेरा और कोई तो है नहीं !” सावित्री ने कहा था “तुम हो ..सो ..”
“हम सब आयेंगे, दीदी !” फ़ोन पर अब सूरज की पत्नी बोल रही थी. “आप चिंता न करें ..” उसने सावित्री को आश्वस्त कर दिया था.
अब सब सावित्री ने संभव और रमेश के हवाले कर दिया था. लेकिन हाँ ! राजन और पारुल दो ऐसे व्यक्ति थे – जो महत्वपूर्ण थे .. और नहीं भी थे ! सावित्री ने दोनों को निमंत्रित किया था. जन्म दिन कृष्ण कन्हयाँ का था .. विश्व के नायक का था .. फिर सावित्री छोटा नहीं होना चाहती थी !
रास-लीलाओं का आयोजन कलकत्ता के लिए एक महान आकर्षण बन गया था.
“खा… लियो .. सारो .. माखन ?” यशोदा जब रंगमंच पर जोरो से फटकारती कृष्ण को तो जमा लोग जम कर तालियाँ बजाते. “मटकियाँ भी तोड़-फोड़ डाली .. और छींका भी तोड़ दिया ?” वह लपक कर सामने खड़े बाल कृष्ण का कान पकडती तो लोगों की आह रित जाती.
“मेने नहीं खायो, मैया !” बाल कृष्ण कहते. “मै .. मै .. तो बहुत छोटा हूँ, माँ !” वह बताते. “उधर देखो ! वो .. दाऊ ..!” रुआंसी आवाज में बाल कृष्ण कहते.
और ब्रिज की बजती बांसुरी .. अलगोजा .. और ढोलक पर पड़ती थाप दर्शकों का मन मोह लेती. कैसा विचित्र माधुर्य बरसता रंगमंच पर ! लगता – गोकुल .. बरसना .. वृन्दावन .. मथुरा और समूचा ब्रिज ही कलकत्ता में आ बसा था !
पूरा का पूरा माहोल कृष्ण मय होता चला जा रहा था !
आगंतुकों के आने का ताँता लगा हुआ था. व्यवस्था में अगुआ छीतर और सुलेमान सेठ थे. दोनों सेठ धन्नामल के वफादार आदमी थे. सेठजी उनके मालिक ही नहीं – उनके धर्म ईमान सब थे ! उन जैसे महान पुरुष आज देखने तक के लिए नहीं मिलते थे.
रमेश ने सबके आने जाने की व्यवस्था संभाली थी तो संभव ने खाने पीने का दायित्व लिया था. और हाँ, सूरज और उसकी पत्नी ने तो सारे घर-बार को ही संभाल लिया था.
“आप मेरे तीन को संभालो दीदी और मै संभालती हूँ आपके इकलौते कन्हयाँ को !” सूरज की पत्नी कह रही थी. मेरा दायित्व रहा .. कन्हयाँ को खिलाने, नहलाने .. सजाने और चन्दन लगाने का !” उसने प्रसन्नता पूर्वक कहा था.
“उत्सव का आधा खर्चा मै उठाऊंगा.” सूरज ने कहा था.
“क्यों ..?”
“क्यों कि .. मै आपका छोटा भाई हूँ, दीदी !” सूरज की आवाज एक आभार के नीचे दब कर उठी थी. “आप .. देवी हैं. आप .. श्रेष्ठ हैं .. आप ..”
“ओह .. मेरे छोटे ..!!” सावित्री ने सूरज को बाँहों में भर लिया था. “आज मै अकेली नहीं रही, रे!” सुबक रही थी सावित्री. “आज .. मै ..” उसका गला रुंध गया था.
सूरज और सरिता तथा उनके तीनो बच्चों ने चार चाँद लगा दिए थे. लगा था – सावित्री के पास एक भरा-पूरा परिवार था. वह कहीं से भी अकेली न थी.
संभव का फोन था. सावित्री से बात करना चाहता था. जरुरी कोई सूचना थी. सावित्री चौंकी थी. वह जानती थी कि संभव छोटी-मोटी किसी बात के लिए उसे कभी परेशान न करता था. उसने झपट कर फ़ोन लिया था.
“हाँ, रे! क्या हो गया ?” सावित्री ने उत्तेजित होकर पूछा था.
“बहुत कुछ !” संभव की आवाज रहस्यमय लगी थी. “बहुत कुछ .. दीदी.” वह कह रहा था. “आपको आना पड़ेगा !” उसने प्रार्थना जैसी की थी.
“क्यों ..? ऐसा क्या है, जो तुम ..”
“ऐसा ही कोई है जो .. आपसे बिना मिले ..”
“कौन ..?”
“आइये आप…!!” संभव ने फ़ोन काट दिया था.
सावित्री अनुमान लगाते लगाते थक गई थी .. पर समझ ही न पड़ी थी कि ऐसा कौन था जो सीधा उसके पास नहीं आ सकता था ? उसे संभव के बुलाने पर जाना तो था ही. एक असमंजस में डूबी डूबी जब वह संभव के सामने आई थी तो उसने एक गेरुआ वस्त्रों में सुसज्जित विदेशी व्यक्ति की ओर इशारा किया था.
“मिस्टर .. कैरी ..!!” संभव ने घोषणा की थी. “आपके ..!” वह चुप हो गया था.
“मित्र ..!” कैरी ने कहा था. “पुराना .. आपका .. अँधा आशिक !!” वह कहते कहते लजा गया था. “और अब .. ” उसने सावित्री के पैर छुए थे. “मेने सब त्याग दिया है, मेरी प्रेरणा ! मै अब .. कृष्ण का अनन्य भक्त हूँ. मै .. अब एक सन्यासी के सिवा कुछ नहीं हूँ !” उसकी आँखें सजल थी.
“आप हमारे आदरणीय मेहमान हैं.” सावित्री ने कैरी को आगोश में भर लिया था. “आइये ! आपक स्वागत है !!” सावित्री ने विहंस कर कहा था.
“राजन ..?” कैरी का प्रश्न था. वह जानना चाहता था की राजन था कहाँ ?
“वहां है !” सावित्री ने संयत स्वर में कहा था. “राजन ने अभी सन्यास नहीं लिया है, कैरी !” उसने हँसते हुए कहा था.
जोरों का ठहाका लगा था. लगा था जैसे उन सब ने मिलकर धन, माया, मोह और काम-क्रोध का उपहास उड़ाया था !
तभी दृश्य पर एक और विशिष्ट व्यक्ति उपस्थित हुआ था.
नयन विस्फ़ारित सावित्री उस व्यक्ति को देखती ही रह गई थी. हुलिया बहुत गिर गया था .. फिर भी पहचान के परे न था. सावित्री ने दो तीन छोटे-छोटे कदम लेकर बीच के फासले को तय किया था. फिर उसके पैर कांपने लगे थे .. तो वह उस व्यक्ति के ऊपर जा गिरी थी. उस व्यक्ति ने भी सावित्री को बड़ी ही सावधानी से अपनी बाँहों में सहेज लिया था. सावित्री फफक-फफक कर रो रही थी .. उसकी हिलकियां बंध गई थीं .. वह संभल न पा रही थी.
“मत रो बेटी ! मत .. रो ..!” वह आदमी आग्रह कर रहा था. “मै .. और तुम .. एक से अभागे हैं, साबो !” वह कह रहे थे. “प्रेम के मारे .. दो .. अभागे !!” वह भी रोने लगे थे. “मै भी .. रास्ता भूल गया ! जब लौटा तो .. सब चौपट हो चुका था. कितने दिन डोला हूँ, इंग्लॅण्ड में .. कितने कितने प्रयत्न किये हैं कि मै अपने आप को वहां पा लूँ .. खोज लूँ ! लेकिन .. कहाँ ? मेरा जन्म तो जैसे भारत में ही हुआ हो और मै .. भारत को ही नहीं भूल पाया हूँ !” उन्होंने आंसू पोंछे थे. “लौट आया हूँ, साबो ! तुम्हारे पास .. भारत माता के पास और .. और ..” उन्होंने छीतर और सुलेमान सेठ को रोते हुए देखा था. “अपने बच्चों के पास ..” उन्होंने उन दोनों को बाँहों में ले लिया था.
“कर्नल जेम्स हैं !” सबको स्वयं ही परिचय मिल गया था.
“मेने राजन को फोन किया है.” कर्नल जेम्स बता रहे थे. आता ही होगा !” उन्होंने सूचना दी थी.
लेकिन राजन के आगमन की सूचना पा न किसी को प्रसन्नता थी न गम !
जन्मोत्सव पर बालकृष्ण ही सबकी आँखों का तारा बना हुआ था.
हर कोई उसे ही गोद लेता, खिलाता .. मल्हता .. और उसकी बलेयाँ लेता. कुछ श्रद्धालु लोग उसके चरण छू कर धन्य हो जाते तो कुछ उसकी किलकारियां सुन तरंगायित हो उठते ! कर्नल जेम्स की बगल में आ खड़े राजन ने सामने आने पर बाल कृष्ण को तनिक छुआ भर था ! वह उसके रूप स्वरुप को आश्चर्य भरी आँखों से देखता ही रहा था!
“तुम अपने आप को पहचान नहीं पाए, राजन !” टीस कर कर्नल जेम्स ने कहा था.
“आपके जाने के बाद ही मै .. बह गया !” राजन ने कठिनाई से कहा था. “अब नहीं लौटूंगा, सर !” उसने स्पष्ट कहा था.
मथुरा जी से आये कलाकारों ने कलकत्ता मै खूब नाम कमाया था ! कर्नल जेम्स और मिस्टर कैरी दोनों ही उनके परम मित्र बन गए थे और अब उनके साथ ही वृन्दावन जा रहे थे.
“मै वहीँ रहूँगा, साबो !” कर्नल जेम्स ने कहा था.
“वहीँ आपका आश्रम बना लेंगे! मै भी आती जाती रहूंगी !” सावित्री का सुझाव था.
“और मै ..?” कैरी का प्रश्न था.
“मेरे साथ ही रहोगे !” कर्नल जेम्स ने उसे मना लिया था.
पर पारुल .. चन्दन के खाव्ब को ही जी रही थी!!
क्रमशः……
मेजर कृपाल वर्मा साहित्य