मिलन -विछोह की धूम्र-रेखा !!
वो एक विरहा की रात थी ! चांदनी रात थी !! पारुल और राजन के बीचों-बीच यों ही आ कर खड़ी हो गई थी . मिलन-विछोह की धूम्र-रेखा सी ये रात कुछ अजब-गज़ब खेल खेल रही थी . राजन विचित्र लोक के आलोक में अकेला खड़ा था . पारुल त्रिभुवन पैलेस के प्रांगण में अकेली टहल रही थी . दोनों के भीतर एक भू-डोल भरा था . दोनों अपने-अपने पक्ष के लिए एक दूसरे को मनाना चाहते थे ….बतियाना चाहते थे …..और वो आगोश ….वो आलिंगन …और वो ….सब कुछ – जो दोनों भोग-भुगत चुके थे ……दुहराना चाहते थे …..! लेकिन …..
“त्रिभुवन पैलेस में आप कल सुबह ग्यारह बजे आमंत्रित हैं ! आप शाही महमान होंगे और आप का आगत-स्वागत राजसी ठाठ-बाट से किया जाएगा !!” रमणीक .
राजन ने इस निमंत्रण पत्र को बार-बार पढ़ा था ……कई बार पढ़ा था …..पर उस की समझ से सब बाहर था ! उस ने दुनियां तो देखी थी …वह जीवन की तमाम उंच-नीच से भी गुजर गया था …पर यह एक ऐसा मुकाम था जो उस के लिए नितांत नया था !
“क्या चाहती है, पारुल …?” स्वयं से प्रश्न पूछा था , राजन ने . “वो पुराने संबंध ….?” वह सोचने लगा था . “वो पारुल का सामीप्य ….वो सुगंध ….वो सुन्दरता …वो आमंत्रण …..और वो प्रेम -सौहार्द ….?” राजन विक्षिप्त था . “उस के बिना तो कोई सौदा नहीं बनेगा ….” उस ने एक निर्णय लिया था .
“कैसे-कैसे सौदा बनेगा ….?” पारुल एक उलझन को सुलझा नहीं पा रही थी . “कैसे धन मांगेगी ……राजन से …?” वह कोई भी युक्ति नहीं सोच पा रही थी .
काम-कोटि और विचित्र लोक पैसे के भूखे थे ! जैसे-तैसे ही पारुल काम चला पा रही थी . जो शान-शौकत और शाही रीति-रिवाज़ वहां चल पड़े थे …..वो सब धन चाहते थे और ….अब धनाभाव के कारण मरणासन्न थे . लेकिन पारुल चाहती थी कि वो सब जिन्दा रहे …..अतीत जी जाए …..राज-पाठ लौट आए ….राज-वंश फिर से फलने=फूलने लगे …..और चक्रवर्ती बनने का सपना भी …….पैर पा जाए ! पारुल को …राज-माता बनना अब अच्छा लगाने लगा था .
“धन की गंगाएं नहीं बहेंगी ……तो राज-पाठ डूब जाएगा !” रमणीक का कथन था . “क्या आता है …..? बगीचों का लगान ….दुकानों का किराया ….और …कुछ फुटकर …….! कुल मिला कर – ऊंट के मुंह में जीरा ….!!” हंसा था , रमणीक . “नहीं चलेगा , राज -माता …जी ….!! धन …..”
“बहेंगीं …..धन की गंगाएं ……, रमणीक ! सब्र करो ……” पारुल आम कहती रहती थी .
कल ग्यारह बजे राजन से मुलाक़ात होनी थी . पारुल तय न कर पा रही थी कि ….राजन से किस तरह मिले …?
“किस तरह मिला जाए …..कल पारुल से …..?” राजन भी सोचे जा रहा था . “वही शूट ….लाल टाई …..और …..!” उस ने निर्णय लिया था . यह सावित्री का दिया शूट था . उस में वह बहुत जंचता था . उसे भी ये शूट लाल टाई के साथ खूब फबता था . “पारुल को पाना होगा …..हर कीमत पर …..हासिल करना होगा ……” राजन सोचे जा रहा था . “पारुल के बिना …..”
“राज-माता का शाही परिधान ….हीरों का सेट ……और ….चांदी की चप्पलें …..चलेंगी …!” पारुल ने तय किया था . “शाही-शान के साथ मिला जाए …!” उस का अपना मत था . “एक तीर से कई निशाने लगाने जो हैं ……..!!” वो हंसी थी . “राजन …..बहुत काम का आदमी है ….!” उस का अनुमान था . “आँखों पर प्रेम की पट्टी बाँध कर …..आदमी को शीशे में उतारना आसान होता है .” मुस्कराई थी , पारुल . “बेबकूफ है …..सावित्री …..जो …..”
“ज़रुरत पड़ी तो सावित्री का सहारा ले लूंगा !” राजन सोचे ही जा रहा था . “पारुल ……सावित्री के ऊपर से न जाएगी . सावित्री में …..कुछ है ….अलग से ही कुछ है …..जो …..” सावित्री के आभारों के नीचे दबा लगा – राजन !
“सावित्री क्या सोचेगी ….?” पारुल सतर्क थी . “क्या कभी ….राजन के साथ …..?” उसे विचार ने आ घेरा था .
कितनी लंबी होती है , रात ….? सूरज को तो आना ही होता है . और वक्त किसी का गुलाम नहीं होता ! राजन ठीक ग्यारह बजे शाही महमान बना त्रिभुवन पैलेस पहुंचा था . उस के आगमन पर ….तुरही बजी थी ….और मजीरों का-सा संगीत प्रस्फुटित हुआ था . राजन का मन-प्राण कमल-सा खिल गया था . उसे लगा था कि ….वह असाधारण-सा कोई प्राणी है …और प्रकृति उस के स्वागत में ….पारुल का रूप धार आ खड़ी हुई है !
“क्या छटा है , रे ….!!” पारुल को देख राजन ने लंबी आह भरी थी . “ओये , रे …..! तेरा …तेहा …….?” उस ने मन में कहा था . “विश्व -नायका का …ये मनोहारी रूप ….! चांदनी-सी खिली है …उस के आस-पास !! शुभ्र-धवल हीरों ने पारुल को प्रकाशित-सा कर दिया है …..और रत्न-जडित साडी ने उस के स्वरुप को दहका दिया है …! चांदी की चप्पलों में उस के सुंदर पैर कितने मोहक लग रहे हैं ….? क्या छटा है ….क्या रूप-लावण्य है ……? और वो होटों पर धरी ….वैजन्ती-मुस्कान …..?”
“आप का स्वागत है …..!!” पारुल ने धीमे पर मधुर स्वर में कहा था .
“आप का आभारी हूँ ……!!” राजन के मुंह से निकला था .
दोनों की आँखें आ मिली थीं . निर्निमेष दोनों एक दूसरे को निहारते रहे थे . राजन काले शूट और लाल टाई में किसी भी राज-कुमार से कम न जंच रहा था ! चहरे पर खिंची पुरुषार्थ की रेखा पारुल का मन मोह रही थी . आमने-सामने खड़े दोनों …..आंदोलित थे ! लेकिन आजू-बाजू खड़ी औपचारिकता उन्हें मिलने से रोके खड़ी थी .
“शाम का भोजन साथ-साथ करेंगे ….!” पारुल ने कहा था .
“…….” चुप था , राजन . कैसे कहता कि वो इस पल के बाद बिना पारुल को पाए जीएगा नहीं !
“विचित्र -लोक में ही आउगी ….मैं !” पारुल ही बोली थी .
अपने मनोभावों को मुठ्ठियों में कसे राजन लौट आया था !!
अनभोर में ही काम-कोटि पर शाम उतर आई थी . विचित्र-लोक उस शाम की आभा को ओढ , और भी मोहक लग रहा था . चारों ओर की खामोशी और भरा …सकून …..राजन को मोह-पाश में बांधे था . उस की आँखों में इंतज़ार था …..आशा थी ….उल्लास था और था एक अडिग इरादा !
आज पारुल ने आना था . उस के मोहक स्वप्न ने उस तक चल कर आना था . उस के आगोश मैं ………?
यों पारुल के आगमन पर होने वाली तमाम तैयारियां मुकम्मल हो चुकी थीं .
जब आसमान पर चाँद उगा था ….तभी काम-कोटि की कार नंबर सात आ कर विचित्र-लोक में रुकी थी . पारुल के लिए ….राजन ने कार का दरवाजा खोला था . पारुल ने बाहर निकलने के लिए राजन से हाथ माँगा था ! राजन तनिक सहमा था . कहीं पारुल का पवित्र हाथ गन्दा न हो जाय ….वह अपना हाथ आगे बढाने से डरा था . लेकिन ……
“मैं धन्य हुआ , योर ….ग्रेस ……!” राजन गड़बड़ाया भर था . “आप …आईं ….! ….आप …..”
“पारुल नहीं कहोगे …..?” हँस कर बोली थी , वह . “अब मैं तुम से मिलने आई हूँ . ” उस ने एक चुहल के साथ कहा था .
पारुल का परिधान देख राजन हैरान था . जो छटा उस ने राज-माता की देखी थी …..उस छटा का पारुल बिलकुल विपरीत थी . एक साधारण सी सिफोन की साडी में अपने बेहद कोमल गात को लपेट …वो अस्त-व्यस्त बालों को कन्धों पर बखेरे ….और बे-मामूल-सी चप्पलों में ….राजन के सामने खड़ी थी .
चाँदनी छिटक आई थी . विचित्र लोक आलौकिक आभा से आलोकित हुआ लग रहा था .
“चलो !” राजन ने पारुल की कमर में हाथ डाला था . “मैं ……मैं ….!”
“मैं नाराज हूँ !” पारुल हँस कर बोली थी . “उल्हाना है …कि ….तुम ने ……..”
“सिर्फ …जान ही नहीं दी …..?” राजन कह रहा था . “हुगली में तो कूदा ही था ….” उस ने जोर का ठहाका लगाया था .
“ओह,सच …..?” चहकी थी , पारुल . “क्या ड्रामा था , वह …..?” उस ने पूछा था . “मैंने अखबार में पढ़ा था ……तो लगा था कि ….सावित्री के साथ कहीं ……….?”
राजन ने मुड़ कर पारुल की आँखों में झाँका था . एक शरारत उन आँखों में …डोल-फिर रही थी . राजन का मन भी फूल-सा हलका हुआ लगा था . वह उबर-सा आया था .
“पारुल .! ……वो अजीव ही घटना बन गई ….!!”
“सच में क्या हुआ था ….?”
“सच में तो ….मैं …..तुम्हें …..पकड़ने के लिए ……” रुक कर राजन ने पारुल की आँखों में झाँका था . “पूरी रात हुगली के किनारे …..तुम्हारे जाने के शोक में बैठा रहा था ! फिर जब हुगली का पानी वापस समुद्र में लौटने लगा था ….और न जाने कैसे उस पानी ने तुम्हारा प्रतिबिम्ब उभर आया था ……साक्षात् …..तुम्हीं थीं …..और मोहक भंगिमा में तुम्हीं ने मुझे पुकारा था ….! बस ……., ! मैंने तुम्हें पाने के लिए ….ज्यों ही हाथ बढाया …कि …..गपाक पानी में ……”
“ओ-हो-हो …..!! हा-हा-हा …..!!!” पारुल अट्टहास से हँसी थी . “ओह, राजू ….?” उस ने राजन की बलैयां लीं थीं . “यू ….आर …सिम्पली ग्रेट ..!” वह कह रही थी . “पुअर …सावित्री के सर से आज तक इल्जाम नहीं उतरा है कि …..?”
उतरेगा भी नहीं …..!” राजन गंभीर था .
“क्यों …..?”
“जब तक मुझे …..पारुल नहीं मिल जाती ….मैं न मानूंगा …..!” उस ने तड़क कर कहा था .
“बहुत …पाजी ….हो ….!” पारुल ने सोफे पर बैठते हुए कहा था .
औपचारिकताएं आरंभ हुई थीं . पारुल ने राजन की पसंद को ही पीना माँगा था ! और राजन ने ‘वोदका’ पीने का आग्रह किया था . उसे लग रहा था कि ….आज पारुल के मिलन को वो अपने मन को कठोर किक दे कर मनाएगा …….आज वह पी कर नाचेगा ……गाएगा …..शोर मचाएगा कि ……उस ने पारुल को पा लिया है ….जीत लिया है ….!!
“मुझे जाना होगा ……..,जल्दी ही जाना होगा …..!” पारुल ने अचानक ही उठते हुए कहा था . “लेट’स …हैब डिनर …?” पारुल का आग्रह था .
राजन को जैसे फालिज मार गया ….वह अवसन्न हो कर पारुल को देख रहा था .
“जल्दी क्या है ……?”पारुल कह रही थी . “वक्त है ….पंद्रह दिन का वक्त है ……हमारे पास ….!” वह हंसी थी . “खुशियों को हमेशा बाँट कर खाना चाहिए , राजू !” पारुल ने राजन के गाल पर हलका-सा चपत जड़ा था . “डॉन’ट ….बिहैव ….लाइक ए …..”
“कल …फिर ……?”
“पूरा प्रोग्राम मिल जाएगा , तुम्हें !” पारुल प्रसन्न थी . “पूरे पंद्रह दिनों की ……डिटेल तैयार है ……! विचित्र-लोक अपने तमाम किए वायदे पूरे करेगा ….!”
“और ….और ……, तु-म ……?”
“मैंने कोई वायदा किया ही नहीं है ….!!” पारुल मुक्त परिहास में बह-सी गई थी . “मुझे कोई बंधन …..बांध कर ही नहीं देता , राजू !”
“मैं ….मैं ….तुम्हें …..”
“फिर से हुगली में कूदोगे ………?” पारुल जाते-जाते बिफर कर हंसी थी . “परछाइयों को ….कोई नहीं …बाँध पाता , राजू !” उस का कहना था .
……………..
श्रेष्ठ साहित्य के लिए – मेजर कृपाल वर्मा साहित्य …!!
