
“तुमने उस जॉकी से शादी कर ली !”
एकांत है। सावित्री की सुबह का ये एकांत .. उस का अपना है। पूजा -अर्चना का एकांत है ! आत्मा और परमात्मा से बतियाने का एकांत है !! मोक्ष मांगते पल उस के पास आ कर ठहर गए हैं। उस से अब बतियाना चाह रहे हैं …पूछना चाह रहे हैं …कि अब उसे और क्या चाहिए ?
अचानक सावित्री को बैडरूम में सोया पड़ा राजन …भूली यादों की तरह – याद हो आता है।
गहन निद्रा में निमग्न राजन सोया पड़ा है।सावित्री जाग गई है। वह राजन की उच्छवासें सुन रही है …गिन रही है …और चुपचाप कार्यरत है ताकि राजन की नींद न खुल जाए ! वह नहीं चाहती कि राजन को कोई भी असुविधा आ कर सताए ! राजन को पूर्णरूपेण सहेज लेना चाहती थी – सावित्री ! जैसे राजन उस के लिए एक प्राप्त अमर निधि थी- जिसे किसी भी कीमत पर वह खोना न चाहती थी !
माँ -बाबू जी की तरह सावित्री ने भी राजन के साथ जीने का मन बना लिया था। वह चाहने लगी थी कि उन दोनों के प्रेम के बीच ब्यार तक का प्रवेश वर्जित हो ! वह चाहने लगी थी कि वह और राजन हर पल …हर क्षण साथ-साथ जिएं …साँस से सांस मिला कर चलें …जन्म-जन्मान्तरों तक जीते ही चले जाएं ….एक मन …एक प्राण और …एक जान हो कर जिएं ! वो …दोनों …चौंच-से चौंच मिला कर खाएं …एक दूसरे के साथ डैने मार-मार कर नहाएं …स्वर-में -स्वर मिला कर प्रेम-गीत गाएं ….और उड़ाने भरें …अंतहीन यात्रा पर निकल जाएं …अनंत तक चलते ही चले जाएं ….!!
सावित्री चाहती थी कि वो राजन को …हर सुख दे कर निहाल कर दे और …राजन को फूलों की सेज़ पर सुला कर स्वयं के लिए काँटों की सैया को चुने ! स्वेच्छा से सब कुछ राजन पर निछावर करे …एक सती की प्रेम-तपस्या को स्वीकारले – जहाँ राजन अमर हो जाए – उस का सुहाग ….
नहीं,नहीं ! वह कभी नहीं हारेगी !! सती का सुहाग हमेश-हमेश अमर होता है …
सावित्री ने एक भरपूर निगाह से मंदिर को निहारा था। फिर लौट कर , आराम कुर्सी खींच कर वह अपने फूलों के बगीचे में आ बैठी थी। उस ने निराशा के मुंह पर ताला डाल …आशा का सिंहासन गहा था ! थक कर वह अकेली बैठी अपने निर्णय ले रही थी।
“हम कल पहुंचेंगे , अम्मा …!” सावित्री का स्वर खनक से भरा था। “कर्नल जेम्स तो नहीं आ रहे हैं।” उस ने कहा था।
“क्यों …. ?” गीता ने पूछा था।
“उन की वो ….प्रेमिका बहुत बीमार है !” सावित्री ने बताया था। “वह उसे छोड़ कर भारत नहीं आना चाहते हैं ….उसी की आजीवन सेवा करेंगे …!”
“महान आदमी है , ये कर्नल जेम्स !” गीता के मुंह से अनायास ही निकला था। “मैं कभी सोच भी नहीं सकती थी कि …आज का आदमी …”
“आज भी प्रेमी हैं, माँ !” सावित्री प्रसन्न थी। उस ने राजन का नाम नहीं लिया था। “आज भी ….” वह कहती ही रही थी पर गीता ने कुछ नहीं सुना था।
गीता मौन थी। गीता चिंतित थी। गीता समझ ही न पा रही थी …कि अपनी इकलौती बेटी के उल्लासों का कैसे आदर करे …. ? कैसे मनाए ….उन खुशिओं को …जो बिना बुलाए ही उन के दरवाजे खटखटा रही थी। और कैसे ….कैसे …मनाए सेठ धन्ना मल को ….जो अनसन पाटी लिए बिस्तर पर पड़े थे।
लेकिन कलकत्ता शहर को तो …सावित्री और राजन के आगवन पर जश्न मनाना ही था।
हवाई जहाज़ के खुले दरवाजे से उन दोनों ने कलकत्ता हवाई अडडे पर उमड़ आई भीड़ को देखा था ! अथाह सागर था – लोगों का। कमाल ही था कि …कि पूरा चराचर जैसे उन के आगत-स्वागत में आ खड़ा हुआ था ! लोग हाथ हिला-हिला कर उन के आगमन का स्वागत कर रहे थे। फिर लोग उन्हें फूलों के गुलदस्ते दे रहे थे ….भेंट दे रहे थे …सम्मान दे रहे थे …प्रशंशा कर रहे थे ….! पत्रकार प्रश्नों के बाद प्रश्न पूछे जा रहे थे ….फोटोग्राफर चित्र लेते-लेते बाबले हो चले थे ….! भीड़ का उन्माद कम न हो रहा था। उमड़ा तूफ़ान लौटने का नाम ही न ले रहा था …!!
वो दोनों बेहद प्रसन्न थे …आल्हादित थे ….!
लेकिन सावित्री की उड़ती निगाहें हर बार भीड़ में गोते खातीं और खाली ही लौट आतीं !
न बाबू जी थे …और न ही अम्मा कहीं दिखाई दी थीं ! सावित्री का जलता-बुझता चेहरा राजन ने देख लिया था। उस ने समझ लिया था कि …ज़रूर ही कुछ था …जो उस की समझ से परे घट रहा था।
“क्यों नहीं , आये ….? क्या हो सकता है ….?” सावित्री का प्रश्न था।
“कुछ भी हो सकता है …!” उत्त्तर राजन ने दिया था। “घर चल कर पता चल जाएगा !” उस ने कहा था। “डोंट वरी ….!” उस की राय थी।
होटल हिन्दुस्तान में सब कुछ होना था। एक महान उत्सव जैसा कलकत्ता शहर मना रहा था। राजन को होश ही न था। उसे चारों और से लोगों ने घेरा हुआ था। सावित्री का मन उड़ गया था …और …और उसने राजन को इशारे से समझा कर , घर का रास्ता लिया था। उस का मन उदास था ! रह-रह कर उसे माँ और बाबू जी याद आ रहे थे।
“मुझे बताया तक नहीं, आप ने ….?” सावित्री ने अम्मा से शिकायत की थी। “मैं तो सोच रही थी कि ….आप लोग ….जश्न मनाने की तैयारी कर रहे होंगे …?”
“क्या जश्न …? कैसा जश्न ….? कौन आएगा …? बिरादरी वालों में थू-थू हो रही है ….और ….!!”
“क्यों ….?”
“इसलिए कि ….पूरन मल से किए ‘कौल- करार ‘ टूट गए ..! इसलिए ….कि ….”
“मैंने उस ‘स्टुपिड ‘ सूरज मल से शादी नहीं की …?” सावित्री भवक आई थी। “इसलिए कि …अब हमारे पास …अपार पैसा है …इस लिए कि …!” उस ने गीता की आँखों में देखा था। “जैलिसी, अम्मा,जैलिसी !! आप इन लोगों को नहीं समझतीं …! बाबू जी …बहुत भोले हैं …!!” कहते हुए सावित्री ने बाबू जी के तपते मांथे पर हाथ धरा था। “ही इज ….सीरियस .. !!” वह उछल पड़ी थी।
सावित्री के स्पर्श को पहचान कर बाबू जी ने बंद आँखें खोलदी थीं .
उन आँखों के पार एक घुटता अन्धकार था- जो मात्र सावित्री के स्पर्श से प्रकाश से मिलने बाहर भाग आया था . अब सावित्री ने बाबू जी की मशाल-सी जलती आँखों को पढ़ा था. उन आँखों की व्यथा अलग थी …..दारुण थी …बेधक थी ! बाबू जी कहीं टूट गए थे ….बिखर गए थे …! बाबू जी कहीं एकांत में विलाप कर के लौटे थे . उन का कोई शोक था …दुःख था ….पश्चाताप था …जो उन्हें सावित्री के सामने ही टुकड़ों-टुकड़ों मैं बाँट रहा था .
“तुमने ….उस …जौकी से शादी कर ली …!” बाबू जी की बेकल रूह बोल रही थी . उन की जुबान लड़खड़ा रही थी …हाथ हिल रहे थे …! ” तुम ने ….?” बाबू जी की आँखों में आँसू भर आए थे . डबडबाती आँखों के पार न जाने कितने उन के अरमान थे – जो आज दुःख के महासिंधु में डूबते ही चले जा रहे थे .
क्या उत्तर देती , सावित्री ? उस ने निगाहें झुका लीं थीं . उस ने जैसे अपनी की गलती स्वीकारली थी . वह जैसे अपने किए पर शर्मिंदा थी .
“त ….त …तु -म -ने …….सा …वि …त्री …!” बाबू जी ने फिर से कुछ कहने का प्रयास किया . उन के होंठ अब की बार फड़फड़ाऐ थे . जुबान कई बार अटक कर रह गईं थी .
सावित्री ने पलट कर देखा था . बाबू जी की आँखों मैं उभर आए आँसू अचानक ही सूख गए थे . अचानक ही उन की द्रष्टि सावित्री के चहरे पर केन्द्रित हो गई थी . सावित्री डर गई थी . वो आँखें ….सूखी आँखें …सांप-की-सी आँखें …सावित्री को दहला कर धर गईं थीं . सावित्री को लगा था ….कि अब बाबू जी अंधे हो गए थे ….कुछ भी देख नहीं पा रहे थे . शायद क्रोध था …नफ़रत थी …जिस ने उन्हें आ घेरा था .
“मैं ….पार्टी में न जा सकूंगी , राजू !” सावित्री रो रही थी .
“मैं …सारा मुकम्मल बंदोवस्त कर लाया हूँ . ” राजन कह रहा था . “नर्स है …डाक्टर है …एम्बुलेंस है . सब बाबू जी की देख-रेख में होंगे ! हम ….!” राजन कहता ही रहा था .
सावित्री एक बार राजन की आभारी हो आई थी .
लेकिन बाबू जी ने राजन की आवाज पहचान कर फिर से आँखें खोलीं थीं . उन्होंने राजन को इस तरह देखा था – जैसे वह कोई डकैत था …लुटेरा या …विश्वासघाती था !
“फिर भी कोई बात हो तो ….आप फोन कर देना !” राजन गीता से कह रहा था . “मैं फोरन हाज़िर हो जाऊँगा !” उस का आश्वासन था . “पार्टी इज …ओन पोस्ट इंटरनेशनल ….! दुनियां-जहान इकठ्ठा है ! अगर हम ही …” उस की दलील थी .
और पार्टी ख़त्म होने के साथ ही …शायद बाबू जी ख़त्म हो गए थे . अम्मा ने भी मौत में बाबू जी का ही साथ निभाया ! मात्र एक सप्ताह के बाद उन्होंने भी विदा ली .
“मौत पर कौन पहरे बिठा सकता है …?” राजन का तर्क था .
“जाते राजन को कौन रोक सकता है ….?” सावित्री का प्रश्न है . मंगलीक की आवाज़ बार-बार उस के कानों में गूंजती है . “विचित्र लोक मैं बुकिंग है …काम-कोटि जा रहे हैं .”
“तो जाएं ….!!” सावित्री ऊँची आवाज़ में कहती है . “जहन्नुम मैं …जाएं ….!!” वह तनिक आश्वस्त होने का प्रयत्न करती है .
अचानक ही सावित्री को राइडिंग पर जाते ….घमंडी का ध्यान हो आता है – जो कजरी के पीछे हो लिया था ! राजन भी …वही घमंडी घोडा है …जो पारुल के लिए पागल हो गया है …और शायद …राजन का अंत भी वही होगा जो घमंडी का हुआ …! हंसी आ जाती है , सावित्री को ! वह फूलों की और निहार कई पलों तक हंसती है …..हंसती ही रहती है ….और राजन -घमंडी घोडा बना उस की द्रष्टि के सामने दौड़ता ही रहता है !
“यही श्राप था – जो उस ने बाबू जी की आँखों में छपा देखा था !!” सावित्री को अचानक याद आता है . “तभी ….तभी …शायद उस की कोख हरी नहीं हुई ….? अम्मा और बाबू जी को …..उस ने अकेली संतान होने का सुख हासिल नहीं होने दिया ! उसे अकेली संतान होने का फ़र्ज़ निभाना ही चाहिए था !! उस ने उन के वात्सल्य का क़र्ज़ नहीं चुकाया . इसीलिए ….शायद …..वो माँ नहीं बनी ! उसे उन की इच्छाओं का सम्मान करना चाहिए था …क्योंकि वो इच्छाएं …..श्रेष्ट थीं …! राजन को उसे इतना ऊँचा दर्जा नहीं देना चाहिए था !
घोंसला छोड़ कर भागते पंछी की परछाईं ….सावित्री को डराने लगाती है !
यही विचार तो था ….जिस ने उसे माँ-बाबू जी की मौत के बाद हिला दिया था . तब भी उसे लगा था …कि राजन उसे दगा अवश्य देगा . लेकिन तब उसे अपने सतीत्व पर अभिमान था ….अपने अगाध प्रेम पर विस्वास था …अपने चरित्र …और अपनी सुन्दरता पर भरोसा था . लेकिन …आज …?
न जाने क्यों अचानक ही फूलों की आँखें उग आती हैं . उन आँखों मैं आंसूओं के अम्बार उमड़ आते है . फूल एक जुट हो …समवेत स्वर में रोने लगते हैं . पूरी शांत सुबह डकरा-डकरा कर रोने लगती है .
सावित्री की भी हिलकियां बंध जाती है . आज …..हाँ, आज वह अपने माँ-बाबू जी की मौत का शोक मनाने बैठी है . आज उस के भीतर से रुलाई टूट-टूट कर बाहर आ रही है . आज वो …जारो-कतार हो-हो कर रो रही है ….रोये ही जा रही है …! वह आज न जाने क्यों खूब-खूब रोना चाहती है …वह चाहती है कि ..अम्मा और बाबू जी की लाशों को अपने आंसूओं से धो कर …पवित्र बना कर …फिर से ….अग्नि दे !
ऋण-मुक्त होने के लिए – और कौनसा उपाय है ?
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श्रेष्ट साहित्य के लिए – मेजर कृपाल वर्मा साहित्य !