
कैसा मनोहर सपना था !!
उपन्यास अंश :-
आज पहली बार संभव इतना प्रसन्न था !
उसने राजन का रूप …असली रूप देख लिया था ! जान लिया था ….तौल लिया था …नाप लिया था …और अब एक बहेलिए की तरह वह …जाल …फन्दा …दाना ..सब डाल कर …उसे अपने हाथ में ले लेना चाहता था ! आदमी काम का था . काम करने वाला भी था . और अब धन के ढेर पर बैठा था !
“काइयां ….है !” रमेश ने बताया था . “यों हाथ नहीं धरने देगा !” उस की राय थी . “लीगली ही कोई बात बन सकती है !” उस ने संभव को सचेत किया था . “मेरी बात मानो तो …एक बार मानन मजूमदार से राय ले लो !”
बात कहीं ठीक थी . मानन मजूमदार सिविल-वकील थे . पारवारिक मामलों में लोग उन की राय लेते थे . बहुत सारे पेचीदा मसले उन के ज़रिए हल हुए थे ! उन का नाम था . संभव ने सावित्री के सामने प्रस्ताव रखा था . सावित्री चुप थी . सावित्री उदास थी !!
सावित्री की उम्र भर की तपस्या का परिणाम – राजन की पारुल को पाने की जिद थी !!
राजन अब सावित्री से दूर चला जाना चाहता था . उस की जिन्दगी से बच कर ….पारुल के साथ कामातुर नदियों में बह जाना चाहता था ! वह चाहता था – निरी ऐयाशी …वह चाहता था – एक बे-लगाव जिन्दगी ….जिस का किसी से कोई सरोकार ही न हो ! राजन कितना-कितना छोटा नहीं हो गया था ….उस की निगाहों में ! जिस व्यक्ति को उस ने महान माना था ….अमर प्रेमी माना था …श्रेष्ट समझा था …वही आदमी ….आज ……
कैसे जियेगी , वह ….? क्या बताएगी – समाज को ….? एकाकी जीवन ….निपट अकेला जीवन ….एक ऐसा जीवन जहाँ कोई स्पंदन ही न होगा ….जहाँ कोई हल-चल ही न होगी ….जहाँ पाना -खोना सब समाप्त हो जाएगा ….! एक जीवन ……..
सावित्री का मन हुआ था कि वो रोये ….खूब रोये ….जी खोल कर रोये ….! पर वह आज रोई नहीं थी ! उस ने फोन उठाया था . मानन मजूमदार का नम्बर डायल कर वह आवाज़ के आने के इंतज़ार में खड़ी रही थी !
“हेल्लो, अंकल !” सावित्री की आवाज़ कर्कश थी . “मैं सावित्री बोल रही हूँ . ” उस ने कहा था .
“अरे, बिटिया ….!” उत्तर आया था . “आज कैसे याद किया …?” उन का प्रश्न था . “सेठ जी तो आम बुला लिया करते थे ….पर ….”
“आज आप की ज़रुरत आन पड़ी तो मैंने फोन कर लिया ….!” सावित्री की आवाज़ टूटने लगी थी . “मैं ….मैं …..” वह चुप थी .
‘मैं तुम्हारे बारे ….सारे दंद -फंद …पढ़ता रहा हूँ , सावित्री !” मजूमदार कह रहे थे . “बिटिया ! वक्त होता है !! कभी सीधा …तो कभी उलटा चल देता है ! डोंट, वर्री ! कहो , कब आऊँ ….?”
“आज शाम को ही आजाइए , अंकल !” सावित्री ने स्वर साध कर कहा था .
अब सावित्री का दिमाग कोई कानूनी हल खोजने में उलझा था . वह चाहती थी कि मानन मजूमदार के सामने अपनी सारी मांगे रख दे ….सारे भाव-अभाव उगलदे …. वह सब कह डाले – जो उसे अब तक बे-दम किए है ! उस ने तुरंत ही फोन मिला कर संभव को बुला लिया था ! वह चाहती थी कि …कानूनन सब तय होने से पहले …संभव की राय भी ले ले !
“अगर राजन को पारुल मिल जाती है …तो वह आप की जान छोड़ देगा – उस ने कहा है , दीदी !”
“लेकिन संभव ! इस अकेली जान को मैं …फिर जीऊँगी कैसे ….?” सावित्री का प्रश्न था . “मेरे जीने का सहारा …..?”
“आप क्या चाहती हैं ….?” संभव ने पूछा था .
“एक पुत्र !!”
“क्या ….?” संभव कुछ समझ न पाया था .
“हाँ,संभव ! मुझे एक पुत्र चाहिए ….! पारुल और राजन की शादी करा दो ….! इन का पहला पुत्र मुझे दिला दो ! मैं उस के सहारे ….अपना ये अभिशप्त जीवन जी लूंगी ….” सावित्री भावुक थी . “एक परास्त स्त्री का —संवल …बेटा ही होता है ….! वो जो भी होगा …..”
अजश्र आँसू सावित्री की आँखों से बह रहे थे !!
“आप क्या कहते हैं, वकील सहाव ….?” संभव ने मानन मजूमदार से पूछा था .
“कुछ गलत नहीं है , संभव ! कानूनन तो ठीक है ! पुत्र को गोद लेने के बाद ….सावित्री को वही हक़ मिलेंगे ….जो एक माँ को मिलते हैं !” उन की राय थी .
सावित्री तनिक प्रसन्न हुई लगी थी !!
एक पुत्र पाने की अभिलाषा ने सावित्री को बहुत तोडा था ! राजन के दूर जाने का कारण भी सावित्री संतान का न होना ही मांनती थी ! एक औरत के अगर बच्चे न हों ….तो उस के लिए शायद ….इस से बड़ा कोई श्राप नहीं हो सकता – ये सावित्री का मत था ! उस की ममता तो आज भी जिन्दा थी ….आज भी सावित्री का हिया …बच्चे खिलाने के लिए हुलम-हुलम आता था ! आज भी उसे लगता था कि …अवश्य ही …एक दिन उस के आँगन में कृष्ण – गोपाल आएँगे ….बाल-क्रीडाएं करेंगे ….और वो उन के साथ …उन की माँ बन कर …उन्हें खिलाएगी ….नहलाएगी ….मनाएगी ….मारेगी ….और ….और …….
कैसा मनोहर सपना था ! और सावित्री इस स्वप्न को किसी भी कीमत पर भुला देना नहीं चाहती थी !
“लेकिन दीदी ! पारुल को कौन मनाएगा ….?” संभव ने पूछा था . “मेरा तो …वो फोन भी नहीं उठाती ….!” उस ने सूचना दी थी .
सावित्री के मुकाबले अचानक ही पारुल आ खड़ी हुई थी !
“सौतन की ये सौगात ….! राजन ….राजन …मैंने ऐसा कौनसा अपराध कर डाला जो ….तुमने …मुझे ….?” सावित्री का हिया भर आया था .
“मैं किसे दोष दूं ….और किसे निर्दोष कहूं, साबो ! मैं नहीं जानता !! पागल हो गया हूँ ….निरा पागल ही कहो ! देखती नहीं ,…मेरी दशा …..”
“पर …क्यों, राजन ….? मुझ में ….मेरा मतलब कि ….मुझ में ………”
“मुझे इस प्रश्न का उत्तर ही तो नहीं आता , साबो ! मेरी हालत एक बीमार ….आदमी जैसी है – जो न तो दबा को जानता है और न ही बीमारी को ! कोई और ही है , साबो …जो ये खेल खेल रहा है !! सच-सच बयान करता हूँ – सुनो , ‘पारुल न जाने क्या हवा है ….क्या शय है ….और न जाने क्या बला है ….कि भूत की तरह मुझ पर हर पल सवार रहती है ! मेरे दिल-दिमाग पर पारुल …इस कदर छा गई है कि ….”
“और मैं ….? मेरा मतलब कि मैं कहाँ रही …….”
“क्या बताऊं …..? पर हाँ, इतना तो बता सकता हूँ कि ….मेरी द्रष्टि पारुल की …सुघड़ …लम्बी -लम्बी …..उँगलियों पर लगी ही रहती है ! सच मानो, साबो ! मेरी निगाहें ….उन उँगलियों के साथ ही उलझ कर …कुछ इस तरह भ्रमित हो जाती हैं ….कि जैसे मैंने उस तरह की उंगलियां कभी देखी ही न हों !! कि …मैं उन उँगलियों को छू-छू कर ….जो आनंद प्राप्त करता हूँ …वो आनंद ही अछूता है ….अवर्णीय है ! सच कहता हूँ , सावो ! पारुल के काले -घुंघराले बालों में मुंह छुपा कर …आँखें मूँद कर …जब मैं किसी लोक की कल्पना करता हूँ ….तो एक और सुवासित संसार मेरी द्रष्टि के सामने तैर आता है ! मैं भी तैरने लगता हूँ . एक दम हवा-सा हल्का हो मैं …पारुल के साथ तैरता-तैरता ….न जाने किस अनंत की और निकल जाता हूँ …? लौटने का तो कभी मन ही नहीं होता …..”
“मेरी ….सुधि …..?”
“नहीं , आती !! तुम से झूठ नहीं बोलूँगा , सावो !” राजन ने आँखें उठा कर देखा था . “पारुल की आवाज़ …इतनी मधुर है ….इतनी मीठी है ….कि कोयल भी लजा जाए ! जब वह मुझे पुकारती है ….तो …मेरा अंतर मन हिल_डुल जाता है ! उस की मुस्कान ….हाव-भाव ….और होंठो के किए आमंत्रण …कुछ ऐसे विचित्र है …कि मैं उन पर विमुघ्द हो जाता हूँ !”
“पर …मैंने भी तो तुम्हें ….बहुत कुछ दिया है , राजन ….”
“हाँ,हाँ ! बे-सुम्मार …दौलत ….?
“नहीं ! मैंने तो दौलत को बीच में रखा ही नहीं , राजन ! वो …तो ….”
“हाँ,हाँ ! सेठ धन्ना मल और मैं ….दौलत से जुड़ते हैं , तुम नहीं ! पर ,सावो ! ये पारुल मुझ से क्यों आ जुडी है – मैं बता नहीं सकता ! सच मानो ! काम-कोटि में …सोना झील का वो द्रश्य …अगर तुम भी आँखों से देख लेतीं ….तो बेहोश हो जातीं ! हे, भगवान् ! कैसा ….कोमल …स्निग्ध ….और स्वीकार भरता शरीर है – पारुल का ….! बिलकुल मछली की तरह …मेरी बांहों के आर-पार …फिसलता वो शरीर ….और शीतल जल की उठती वो तरंगें …और फिर वही स्पर्श का अनूठा आनंद …अविस्मरनीय है , सावो !”
“लेकिन ….लेकिन ….राजन ….मैं ….मैं ….एक …..”
“आवारा तो वो भी नहीं है ,सावो ! महारानी है !! रियासत बंद है !! सच मान , मैंने उसे …उस सफ़ेद परिधान में …सिंहासन पर बैठे देखा है ….! साक्षात …जैसे चाँद की गोद में …बैठी चांदनी हो ! और उस की गरिमा ….उस का वो बेजोड़ हाव-प्रभाव ….उस का तौर-तरीका ….काबिले -तारीफ़ ….!! मैं चाहता तो …..”
“लौटता ही नहीं …..?” सावित्री ने ही वाक्य पूरा किया था .
“नहीं ….!” राजन हंसा था . “लेकिन ……”
क्या करती , सावित्री ….? वो भौं -भौं कर रो ही पड़ी थी !! एक औरत दूसरी औरत से मुकाबला हार गई थी ! मर्द इस में दोषी कहाँ था ….? बे-दाग था – राजन !!
अपने उच्च आसन से उठ कर सावित्री ….एक विनम्र भाव से …जीत के गर्व में गर्क ….पारुल की और दो कदम चली थी ! पारुल अविचल खड़ी थी . पारुल की निगाहें उसे टटोल रहीं थीं . पारुल जानना चाहती थी ….शायद कि …अब सावित्री अपनी हार का मातम कैसे मनाएगी ….?
सावित्री आहिस्ता से बैठ कर …कागज-कलम खींच पारुल को पत्र लिखने लगी थी !
राजन का किया स्वीकार उस के सामने था !!
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क्रमश :-
श्रेष्ट साहित्य के लिए – मेजर कृपाल वर्मा साहित्य !!