चार चौरंगी लेन !

राजन की आत्महत्या की घटना ने हवा को जगा दिया है ! दशों दिशाएं अब जाग्रत हो चुकी हैं। प्रश्न है – राजन क्यों मरना चाहता है ? उस के पास क्या नहीं है ! जितना राजन को मिला है  …उतना तो  ….? फिर राजन  ….?

पारुल ने पढ़ा है।  बार-बार पढ़ा है। गौर से पढ़ा है। लेकिन आत्महत्या का कारण अभी तक पारुल की समझ में नहीं आया है। पारुल की परछाइयां पकड़ने  के प्रयत्न में हुगली में जा गिरा ! ये भी कोई तुक हुई  …? मेरे लिए जान क्यों देगा , राजन ?

वह राजन को भूल जाना चाहती है। वे तो इस हादसे का जिक्र तक करना नहीं चाहती।

“विचित्र घटना है। ” संभव ने स्वयं से कहा है। “पारुल क्यों मारेगी, राजन को  …? सोने का अंडा देने वाली मुर्गी है, राजन ! राजन ने आत्महत्या करने की कोशिश की – पर क्यों  …? सावित्री ने उसे बुला भेजा है। ज़रूर दाल में काला है।  पुलिस ने अगर कुछ सूंघ लिया तो  ….? पागल है, पारुल !” संभव को रोष चढ़ा है. “उसे बात की बारीकी का ज्ञान नहीं है। नाम चाहिए    ….पैसा चाहिए   ….पर पल्ले की अकल नहीं है। ” वह पारुल को कोसता है। “लेकिन  ….तिजोरियां खोलने की अकेली कामयाब चाबी है, पारुल !” संभव को ज्ञान होता है। “पारुल  ….वो बला है   …जो हज़ारों-हज़ार सेनाओं को परास्त कर सकती है  ….सब को पानी पिला देती है  …! ये बेचारा राजन  …?” संभव ठहर कर सोचता है। “निरा पागल है , पागल !” संभव राजन का मखौल उड़ाता है।  “हुगली के उतरते ज्वार में  …पारुल की परछाइयां पकड़ रहा था  …, हा ,हा ,हा    …!” संभव खूब हँसता है।  “मछलियां पकड़ना  ….और परछाइयां पकड़ना   ….अलग-अलग बातें हैं।  इस के लिए दिमाग चाहिए।  और वो राजन के पास है नहीं ! मरेगा , ही  …!!” संभव एक भविष्य वाणी करता है। “पारुल  ….कहाँ है , पारुल   ….?” संभव भी अनुमान नहीं लगा पाता।

आज पारुल का मन बुरी तरह से अशांत है ! न जाने कैसे आज फिर उस के दिमाग में तीन पुरुष  …तीन समानान्तर रेखाओं की तरह खिंच कर खड़े हैं।  वह तीनों को ही तिलांजलि दे देना चाहती है।  लेकिन ये तीनों बार-बार उसे अपने-अपने समीप  खींच लेते है  …और उस के साथ  ….

“जो प्राप्त होता है   ….समाप्त होता है  …!” अचानक पारुल को मही  लाल  …काम-कोटि के पुश्तैनी पुरोहित के कहे शब्द सुनाई देते हैं।  “जो दिखता है – अँधा होता है।  प्रकाश और अंधकार मिल कर परछाइयों का निर्माण करते हैं। हमारे भाग्योदय और पराभव इन परछाइयों में ही छुपे होते हैं।  हम देख नहीं पाते  ….पर  …वो हमारे सामने होते हैं  …साक्षात !” माही  लाल ने आँख उठा कर पारुल को देखा था।  “भोग   …संयोग सब सच होते हैं, महारानी जी !” मही लाल कहता ही गया था।  “आप के नक्षत्र और आपके गुण दोनों मिलते है।  ये एक श्रेष्ठ सत्य है।  काम-कोटि आप के द्वारा विख्यात बनेगी  …वैभव बढ़ेगा   ….और  …”

राज माता सीता देवी के निधन के बाद काम-कोटि में सब कुछ बदल गया है।

महारानी पद प्राप्त होने के बाद पारुल में अमूल-चूल परिवर्तन हुए हैं।  न जाने कैसे पारुल में मही लाल की बताई प्रतिभा का विकास हुआ है।  पारुल ने काम-कोटि को अपने कंठ से लगा लिया है।  पारुल ने हर संभव प्रयास किया है  …कि काम-कोटि  …विश्व में किसी गड़ना में पहुँच जाए   …और वो उस की महारानी  …..

“धन की प्राप्ति नहीं हुई, महारानी जी। ” काम-कोटि का खजांची – उमा शंकर बता रहा है। “बगीचों का लगान नहीं मिला है। ”

“क्यों   …?” कड़क आवाज़ में पारुल ने प्रति-प्रश्न किया है।

“कहते हैं  …फसल हार गए हैं। कुछ हाथ-पल्ले नहीं तो दें क्या   …?”

“तो  ….?”

“सब काम रुक गया है।  लोगों का कहना है कि  ….”

पारुल को कुछ सुनाई नहीं देता। वह अपलक खजांची उमा शंकर को घूरती रहती है।  कितना-कितना धन वह खर्च कर चुकी है। पानी की तरह बहा है, पैसा ! सोचा था – गेस्ट हाउस तैयार होते ही – आमदनी आरंभ हो जाएगी। पर नहीं ! कोई ग्राहक ही नहीं लौटा    …और ऊपर से ये फसल हारने की सूचना ! साम्राज्य को सीँचने के लिए धन के फब्बारे चलने चाहिए  – बातों से तो बात नहीं बनती  …!!

“यू नीड    …रनिंग कैश   …इन   …करोडस   …एंड   ….” कोई पारुल के कान में कहता है।  “सोने का नहीं    …काँटों का बना होता है   …, ताज !”

निराशा के इन पलों में पारुल अकेली होती है।  कर्मचारी, कारिंदे और प्रजा – उस के साथ नहीं होते ! उसे तो अकेले ही निर्णय लेने होते हैं। उसे अपनी ही सूझ-बूझ पर भरोसा कर आगे के विक्ल्प खोजने होते हैं।

“काश   ….! संभव  ….अगर उस के साथ होता  …?” अचानक आज पारुल को संभव याद हो आता है।

और न जाने कैसे आज अचानक ही   …पारुल प्रेमाकुल हो आती है।

प्रेम – एक अमर भावना का नाम है – पारुल महसूसती है।  ईस्वर प्रदत्त प्रेम किसी-किसी को ही नसीब होता है।  यह सौभाग्य पारुल को मिला ! संभव ने उसे नर्क से निकाल इस स्वर्ग में पहुंचा दिया।  राजन से मिलाने मैं भी संभव का ही हाथ था ! पुरुष का ये एक अनूठा प्रकार उसे बहुत भा गया था।  उस ने भी सावित्री की बिना परवाह किए   …राजन को पा लिया था। सेठ धन्ना मल की अकेली संस्कारी संतान – सावित्री का बुरा हाल हुआ।

“लेकिन उस में मेरा क्या दोष   …?” पारुल अपने आप को बरी कर लेती है।

फिर से पारुल के दिमाग में वही तीन समानान्तर रेखाएं उभर आती हैं।  उन के नाम गिनती है , पारुल – सैकिया  …संभव  …और राजन ! उस का मन बिदक जाता है।  वह नहीं चाहती कि  …इन तीनों में से    …किसी से भी कोई सरोकार रखे  …!!

काम-कोटि की महारानी का प्राप्त पद उसे बेहद भा गया है !

तीन गोटें हैं – जो संभव के सामने उठक-बैठक कर रही हैं।

कभी सावित्री   … तो कभी राजन। और फिर    …पारुल !! उस के जहन में दस्तक दे रहे हैं, बार-बार ! चाह कर भी संभव उन्हें जुदा नहीं कर सकता।  जहाँ सावित्री एक निरा सात्विकी सोच है  ….वहीँ पारुल एक पहेली है ! और राजन है  ….निरा घोडा !! सावित्री अपने संस्कारों का सच्चा-अच्छा स्वरुप है। उस के साथ सच ही चलेगा  …न झूठ  ..न फरेब !! सच्चा सौदा चाहेगी -सावित्री ! लेकिन पारुल  ….? क्या पता कहाँ है  ….किस हाल में है  …क्यों है  …? क्यों नहीं चाहती पारुल – कि उस का दखल अपने जीवन में स्वीकारे  …! और  ……? उन का प्रेम-प्रसंग टूटा तो नहीं   ….? फिर पारुल  ….?

“राजन   ….?” कोई संभव के कान में चुपके से कहता है।  “वह घोडा   ..पारुल को छोड़ेगा नहीं। ” हंसी आती है , संभव को। “दुल्लत्ति मारी तो मुंह तोड़ देगा  ..!”

संभव अपने दुबई से ऑफिस में बैठा-बैठा अनेकों और अनगिनत जमा-जोड़ लगा रहा है।  वह महसूस रहा है कि आज   …पूर्व-पश्चिम , उत्तर और दक्षिण की हवाएं उस के पास आ कर बैठती हैं  …हाल-चाल सुनाती हैं  …और अपनी-अपनी मांगें मांगती है।  संभव सब को स्वीकारता है।  समझता है  ….और मांगे पूरी करता है  ….एक ईमानदारी से  ….और निष्ठां के साथ ! और जो उसे मिलता है  …

“टैक व्हाट-एवर यू वांट, बडी !” ये टाइकून रोहन गाबी  की आवाज़ें हैं।  गाबी गज़ब का आदमी है। न जाने इतना जमा-जोड़ कैसे पा गया है  …? और गाबी की पत्नी – गज़ाला   …! हंसती है तो  ….,हा ,हा ,हा   …हो,हो   …! फूल से झड़ते चले जाते हैं।  “व्हाट  ..ए  ..बिच  …!!” संभव हैरान रह जाता है।

माया का तीसरा नाम है – गज़ाला ! उड़ते पंछी को पानी पिलादे   ….और गाबी   ….? गधा है  …निरा ही गधा  …!! या खोता कह लो   …..!!

पर संभव तो दोनों का ही बराबर ख्याल रखता है।

लेकिन पारुल  ….आज-कल केवल अपना ही ख्याल रखती है ! आज -कल वो अपने दिवा स्वप्नों के साथ रहती-सहती है।  काम-कोटि का साम्राज्य  ….आज-कल लगातार उस के मन में बढ़ता रहता है  …चलता रहता है। वह सोचती रहती है कि वह अपने पूर्वजों का मान-सम्मान करे  …और उन की वंश-बेल को चलाए ! शिव की इच्छा का आदर करे  …, पारुल ! और अपनी प्रजा को प्रसन्न,संपन्न और सुखी होने के सारे अवसर मोहिया कराए ! प्रशस्तियाँ   …अलंकार  …और अपार धन  ….

रुक गई है, पारुल ! धन की गंगाएं जब तक उस के साम्राज्य को नहीं सींचतीं  ….तब तक  ….

“महारानी जी   …..!” रमणीक ने पारुल का सोच तोड़ा है।

“क्या है  ….?” झल्ला कर पूछा है, पारुल ने ! उसे रमणीक का दखल बुरा लगा है।

“विचित्र लोक    ….!” रमणीक बोलते-बोलते रुक जाता है।

पारुल डर जाती है। उसे भय होता है  ….कि कहीं   ….

“क्या हुआ , विचित्र लोक को   ….?” वह रमणीक को घुड़क कर पूछती है।

“बुकिंग   ….!!” रमणीक मुंह खोलता है।  “पंद्रह दिन की बुकिंग   ……! एडवांस ड्राफ्ट   …..!! मोटा पैसा   …….” वह कहता ही चला जाता है।

शीतल पवन का एक प्यारा-सा झोंका पारुल के सुन्दर गात को छू कर चला जाता है। रेगिस्तान में वर्षा हुई लगी है। प्यासे को दो बूँद पानी नहीं  ….महासागर पीने के आदेश हुए लगे हैं।

“कहाँ से आई , बुकिंग  ….?” पारुल पूछती है।

“कलकत्ता से   ….! कोई    …मिस्टर ‘सांजन’  हैं  ! चार चौरंगी लेन – कलकत्ता , पंद्रह ने ड्राफ्ट भेजा है – वह बता रहा है।

“साजन नहीं    , राजन होगा   …., पागल  ….!!” पारुल प्रसन्नता की उचंग के साथ कह जाती है।

पारुल का मन उस के तन को पंख लगा कर उड़ा ले जाता है।

राजन  …स-शरीर उस के सामने है।  वह राजन की आँखों में प्रेम के पारावारों को पिघलते देख लेती है।  वह महसूस रही है  …राजन की सांसें। वह उस के स्पर्शों को भी पहँचान रही है।  वह जान रही है कि  …अब राजन उसे पाकर रहेगा  ….अब राजन उस के तन-मन को जीत लेगा  ….अब राजन  ……!!

‘कहाँ थे , तुम  ….?” पारुल ने ही प्रश्न किया है।  “ये बिछोह    ….?”

“ये मिलन  ….?” राजन प्रश्न ही करता है।  ” हमारा मिलान  …, मेरी मलिका  . …!!” उस ने आज संवाद बोलै है।  “दो प्यासी रूहों का  …संगम   ….श्रेष्ठ संगम  …! न जाने मेरी प्यास    ..कितने सागरों को पिएगी    ….?”

“मैं  ….हूँ , न    …!” पारुल कह रही है।  “पीलो,पीलो ! मेरे पपीहे    …..! मैं तुम्हें तड़पने के लिए प्यासा नहीं छोडूंगी   ….! मैं तुम्हें तृप्ति के उस पार ले जाउंगी   …जहाँ प्रेमी त्राण पा जाया करते है    ……”

“लो, आप बात कर लो   ….! कलकत्ता मिला दिया है  …!!” रमणीक पारुल को फोन पकड़ा देता है।

“कलकत्ता  ….ये बताओ कि  ….’साजन’ है    …कि ‘राजन ‘    …..?” पारुल सीधा प्रश्न पूछती है।

“क्या लेना – राजन, साजन से   …? बुकिंग है, बस    ….!!” कोई सर फिरा आदमी उत्तर देता है।

पारुल का मन आया है कि फोन को रमणीक के सर पर दे मारे    !

लेकिन प्रेम की उठी उमंग उस का हाथ रोक लेती है ! उसे आस्वस्थ कराती है – कि वह नाम ‘राजन ‘ ही है   ….’साजन ‘ नहीं   …!!

और फिर प्रेम के पागलपन में तो राजन-साजन सब चलता ही है  …!!

क्रमशः –

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श्रेष्ठ साहित्य के लिए – मेजर कृपाल वर्मा साहित्य !!

 

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