हाँ , हाँ ! दीदी, मैं रो रही थी !

उपन्यास अंश :-

बीमार पड़ी पारुल का मन बेहद अशांत था !

न जाने क्या था कि …उस का पूरे का पूरा वर्तमान ,भूत और भविष्य …उस के सामने भूत बन कर नांच रहा था ! उसे अचानक ही काम-कोटि एक सर्प-नगरी लगने लगी थी . उसे डर था कि जैसे ही वह बाहर निकलेगी ….सारे जहां के सर्प उस से लिपट जाएंगे …और …फन मार-मार कर ….

ये कौनसे मुकाम पर पहुँच गई थी – पारुल ….?

क्या नाम था – इस वियावान का …? कौन-कौन से नाम थे – जिन्हें वो जानती थी …? कौनसे लोग थे – जिन्हें वो पहचानती थी …? न जाने क्यों वह किसी भी परिचित नाम को अपनी जुबान पर न आने देना चाहती थी ! उसे सब से नफ़रत थी !!

“पत्र आया है !” अचानक उस का सोच टूटा था . “आप का व्यक्तिगत पत्र है !” रमण बता रहा था . “मैंने सोचा कि ….” रुक कर उस ने पारुल के पीले पड़े चहरे को पढ़ना चाहा था . “शायद ….आप को इस पत्र का ही …..?”

“तुम जाओ !” पारुल ने रमण को आदेश दिया था . फिर टेबल पर पड़े पत्र को बेहद विरस निगाहों से निहारा था . “जरूर-जरूर …राजन का पत्र होगा …!” पारुल का अनुमान था . अचानक ही उस की द्रष्टि के सामने राजन आ खड़ा हुआ था . आग्रही – राजन ! “मांस खानेवाला गीदड़ है !” पारुल ने स्पष्ट आवाज़ मैं अपने आप को सुना कर कहा था . “गद्दार …!!” उस ने मुंह बिचकाया था .

आज न जाने क्यों पारुल को कोई भी पुरुष सुहा न रहा था ? न जाने क्यों आज वो ..किसी भी पुरुष को पुकारना न चाहती थी ! किसी भी पुरुष को पाने की उस की चाह न जाने क्यों आज बुझ-सी गई थी ! लेकिन क्यों …? कई बार मन हुआ है कि …वह पत्र को पढ़े . देखे , राजन ने क्या लिखा है …? बार-बार उसे राजन के किए आग्रह …याद आए हैं …’योर ….ग्रेस ……, योर ग्रेटनेस …., योर …….’

“ट्रेश ….!” मुंह बिचका कर पारुल ने विचार को खारिज कर दिया है . आज उस का मन किसी भी प्रेम-प्रसंग को छूना तक नहीं चाहता . आज वह किसी भी पुरुष की परछाईं तक को नहीं देखना चाहती ! “सब के सब मुझे ही खाना -पचाना चाहते हैं ! सब के सब मुझे ही लूट लेना चाहते हैं !! क्या दिया है – किसी ने भी अब तक ….! कौन है इन मैं अपना जिसे पुकारूं ….?”

एक अजीव-सा अनुराग-विराग पारुल के मन मैं भरा है . क्या अपना है ….और क्या अपना नहीं है ….वह समझ ही न पा रही है . कल तक की काम-कोटि अलग थी …लेकिन आज की ‘काम-कोटि’ उसे काटने आ रही है….उसे डरा रही है ….उसे बिरा रही है ! अब जाए तो कहाँ जाए – पारुल ….?

बिस्तर से उठने का मन ही नहीं है , उस का !!

“महामुनि आए हैं !” महीलाल ने स्वयं आ कर सूचना दी है . “महाम्रत्युन्जय का …यज्ञ …..?” उस ने पारुल को याद दिलाया है . “छः …तारीख …सुबह चार बजे का …लग्न है ….!” उस ने बताया है .

पारुल ने बिस्तर से तनिक उलम कर महीलाल के चहरे को पढ़ा है !

“बहुत लालची है !” पारुल ने अपने मन मैं कहा है . “ये भी गद्दार है !” वह तनिक हंसी है . “ये सोचता है …कि …ये पुराना खिलाडी है ! खा लेगा ….रियासत को …..? महाम्रत्युन्जय का यज्ञ ….करा कर ….”

“क्या कहूं ….?” महीलाल ने उत्तर माँगा है .

“अभी नहीं ….!” पारुल ने  बेहद रूखी आवाज़ मैं उत्तर दिया है .

महीलाल का हुलिया एक पल के लिए बिगड़ गया है . वो तो उम्मीद ले कर आया था कि …इस हालत में पारुल उस के प्रस्ताव पर झूम उठेगी . लेकिन पारुल की निगाहें तो कहीं और ही थीं ! महीलाल समझ ही न पाया था कि ….रोग था ….तो क्या था …?

पारुल ने अचानक लावारिश पड़े पत्र को उलम कर उठा लिया है !

उस ने उलट-पलट कर पत्र को देखा है . पत्र राजन का नहीं है . पत्र सावित्री ने लिखा है . पत्र न जाने क्यों …जीवंत हो …पारुल की उँगलियों मैं …नांच उठता है ! न जाने कैसे एक नई रोशनी ….पारुल के सामने खिल ….खड़े अन्धकार को चीर देती है ! निराशा का साम्राज्य भाग खड़ा होता है . आकांक्षाओं के चिराग जल उठाते हैं . कुछ अप्रत्याशित-सा हुआ लगा है ! कोई उम्मीद उस तक चल कर आई है ….और अब उस के सिराहने आ कर बैठ गई है !

सावित्री का स्नेह-सिक्त चेहरा ….उस की आँखों के सामने उजागर हुआ है ! वही दिव्य मुस्कान धरी है ….उस चहरे पर ! एक आनंदानुभूति है ….जो पारुल के हिए मैं …उमड़-घुमड़ पड़ी है ! जैसे पारुल ने साक्षात परमेश्वर के दर्शन किए हों ….उसे ऐसा लगा है !!

‘साधना का दूसरा नाम है – सावित्री !’ पारुल ने अपने आप को बताया है !

पारुल का मन उठ बैठा है ! तन भी जाग गया है . अब आँखें स्पष्ट हैं . शरीर मैं न जाने कैसे स्फूर्ति भर गई है . बिस्तर छोड़ने का मन बना है . मात्र सावित्री के स्मरण से ही पारुल जीवित हो उठी है !

“अरे, सुनो !” पारुल ने आवाज़ दी है . “एक चाय भेजो ….!” उस ने आदेश दिया है .

सावित्री के पत्र को किसी सूम की तरह …पारुल ने संभाल कर पकड़ा हुआ है . जैसे वो पत्र न हो …कोई अनमोल निधि हो ….उसे ऐसा लग रहा है ! वह चाहती है अब …कि उस पत्र को पढ़े ….निपट एकांत मैं पढ़े ….चाय की चुस्कियां ले-ले कर पढ़े …पढ़ती ही रहे …..और ………'”

“चाय ….!” उस की मुराद जैसी पूरी होती है .

“रख दो ….!” पारुल ने चहक कर कहा है .

अब पारुल एक नए इरादे के साथ बिस्टर पर आरूढ़ है ! बड़े ही चाव से वो पत्र को खोलती है . चाय की चुस्कियों के साथ ….सावित्री के पत्र को पढ़ती पारुल ….अपनी सुध-बुध ही भूल जाती है !!

प्रिय , पारू !!

मुझे कभी मांगना बहुत बुरा लगता था ! भीख माँगते भिखारी को तो …गोली मारने को मन करता था !! तब मुझे नहीं पता था , पारू कि ….एक दिन मुझे भी हाथ पसार कर ….झोली फैला कर ….मांगना पड़ेगा …! नियति का चक्र है , पारू ! हम कहाँ जान पाते हैं ….कि …..

मेरी मज़बूरी ये है , मेरी बहिन कि ….राजन कहता है कि वह मेरी जान तब छोड़ेगा जब …..अपनी जान पारुल को पा लेगा ! वरना ….मेरी जान ले लेगा – वह ! अब बता मैं  क्या करूं , पारू ….? कौनसे कुँए मैं छलांग लगाऊं ….? आँख उठा कर देखती हूँ तो …अपने आप को अकेला पाती हूँ , निपट अकेला ! बस तुम ही हो ….जिसे मैंने आज एक आशा किरण की तरह ….देखा है ! लगा है – तुम ही एक हो ….जो मेरी मदद कर सकती हो ! मैं नहीं जानती पारू कि तुम्हारा और राजन का क्या रिश्ता है ….पर मैंने ज़रूर एक नए रिश्ते पर विचार किया है ! कहते तो डर लग रहा है ….पर मेरी बहिन ….मेरे पास और कोई विकल्प नहीं बचा है !!

‘सांप मरे …न लाठी टूटे !’ की कहावत को अगर हम मिल कर चरितार्थ करदें तो ….शायद हम दोनों का भला हो जाए ….? बात साफ़ है . अगर राजन को उस की जान पारुल मिल जाए तो ….सावित्री को भी जीवन-दान मिल जाएगा ! लेकिन तुम्हारा स्वीकार मुझे अवश्य चाहिए ! यही नहीं , पारू ! मुझे तुम से और राजन से एक पुत्र भी चाहिए ! अपनी इस बंज़र कोख को खूब कोसा है , मैंने ! परमात्मा से भी प्रार्थना की है …लेकिन ….में बाँझ ही रह गई , पारू ! और ….और …हाँ ! एक पुत्र प्राप्ति की लालसा का दमन …चाह कर भी नहीं कर पाई हूँ !!

सच मानो, पारू ! में अब अपने कल्पित कृष्ण-कनाही …को साकार रूप मैं पाने को …लालायित हूँ ! न जाने क्यों …मेरा मन बार-बार तुम्हारी कोख से …जन्मे कनाही को …यशोदा की तरह पालना झुलाने के लिए ….बे-ताब है ! में चाहती हूँ ….उसे गीत गा-गा कर ….उसे नहला-धुला कर …उसे ….उसे ….! ओह, मेरे परमात्मा ! सच, पारू ! में उसे पाने के लिए ….पागल हूँ !!

हाँ ! एक बात का वायदा करती हूँ , पारू कि …मैं तुम्हें बिना किसी शर्त-सहूलियत के राजन के साथ नहीं भेजूंगी ! मैं चाहूंगी कि तुम उस के साथ विधिवत शादी करो ! तुम उस की जिन्दगी अपनी शर्तों पर बांटो ! उसे तुम अपनी इच्छानुसार भोगो ! और इस भोग में मेरा हिस्सा – एक बेटे से आगे कुछ नहीं ! इस समझौते में , मैं भी राजन से अपना हक़ पा लूंगी ! अपना अभीष्ट मैं भी पा लूंगी, पारू ….और तुम भी ….”

पारुल की आँखों से अश्रुधार बह रही थी – अनवरत !!

वह महसूस रही थी कि ….उस की उंगलिओं मैं जड़ा वह पत्र ….पत्र नहीं -आत्मीयता उगाती ध्वनियाँ थीं ….कुछ अनूठी ही प्रतिध्वनियाँ थीं ….जो पारुल के अंतर मैं गहरी पैठ ….उसे बार-बार सावित्री ले लिए उत्सर्ग करने की राय दे रहीं थीं ! शायद शादियों के बाद ….पारुल को कोई अपना मिला था …बहुत-बहुत अपना !! तरल-तरंगाईत हुई पारुल …अब संभल कर उठ बैठी थी . अब उसे कुछ निर्णय लेने थे …..फैसले करने थे ….और …जीवन जीने के लिए एक नई डगर …का निर्माण करना था !

“प्रेम तो अंधा होता है , पारुल !” सावित्री ने लिखा था . “लेकिन घ्रना के हज़ारों-हज़ार डंक होते हैं ! मैं तो इस अंधे प्रेम को ही ले कर जी लूंगी , मेरी बहिन ! अगर मेरी मदद कर दो ….अगर मेरी खाली झोली भर दो ….अगर मुझ पर तनिकसा तरस खा लो …तो मैं भी तर जाउंगी, पारू !”

“नहीं ,दीदी ! नहीं …..!!” पारुल डकरा रही थी . “नहीं,नहीं ! इतनी दीनता भी अच्छी नहीं , दीदी ! मैं ….मैं ….तो …तुम्हारी …..”

व्यवधान का चर्म जैसी टेलेफोन की घंटी ने पारुल को बुरी तरह से डरा दिया था ! वह फोन उठाती नहीं थी . वह किसी से भी बातें नहीं करती थी . लेकिन अचानक ही उसे लगा था ….जैसे …ये ईस्वर की कोई प्रेरणा थी …जो आज ….और अभी घट जाना चाहती थी ! उस ने लपक कर फोन उठाया था . स्वर को संयत किया था . हिम्मत बटोर कर वह बोली थी .

“ह…ह …हल्लो !”

“रो रही थी …..?” उधर से प्रश्न आया था . आवाज़ सावित्री की थी . “क्यों, पारू ….? रो रही थी ….?” उस ने प्रश्न दुहराया था .

“हाँ,हाँ ! दीदी ….मैं रो रही थी ….! आप का पत्र पढ़ कर रहा ही न गया ….! हिया फट पडा , मेरा ! और मैं …..” पारुल की आवाज़ फिर डूब गई थी .

“चल ! मुझे कोई तो अपना मिला ?” सावित्री कह रही थी . “कब आ रही है , तू ….?” उस ने फिर से सीधा प्रश्न दागा था .

“बस ! पहुँच रही हूँ , आप के पास ! शीघ्र ….शीघ्रातिशीघ्र ….!” पारुल कह रही थी . “आप …मेरा मतलब कि ….आप …”

“हाँ,हाँ ! मैं तुझे लेने आ जाउंगी ….! मैं तुझे ……” सावित्री भावुक थी . “आभारी हूँ , तुम्हारी …., पारू ….” वह कहती रही थी .

पारुल को अचानक ही मानस और ब्रह्मपुत्र मिल कर बहती नज़र आई थीं और वह उस प्रेम-प्रवाह में अपने आप को बहने से रोक न पाई थी !!

…………………….

क्रमशः

श्रेष्ट साहित्य के लिए – मेजर कृपाल वर्मा साहित्य !!

Discover more from Praneta Publications Pvt. Ltd.

Subscribe now to keep reading and get access to the full archive.

Continue reading