प्रातः स्मरणीय नाम – दुर्गा मेरी दादी श्री का था।
भक्क सफेद परिधान में सजी वजी काठ के खड़ाऊं पहने, सफेद लम्बे बालों को फहराती और अपने लम्बे छरहरे बदन को संभाले वो देवीय स्वरूप लगती थी। उनके नाक नक्श भी बेहद आकर्षक थे। वो एक बड़ी जमींदार थीं और थीं बाल विधवा!
उनकी छोटी बहन सरस्वती भी बाल विधवा थी। वो तीन बहनें थीं। रेवती उनमें सबसे बड़ी थी और उन्हीं के बड़े बेटे को इन दो की मॉं ने गोद ले लिया था। मॉं केसर बोहरी थी और अपनी इन दोनों बाल विधवा बेटियों को अपना सर्वस्व सौंप कर स्वर्ग चली गई थीं। हमारे काका जी अपनी इन दोनों मासियों को बीबी कहते थे और इनके परम भक्त थे।
हम छह भाई बहिन थे। हम अपने मॉं बाप के लिए तो उनके बच्चे थे लेकिन दादियों के लिए तो हम सुंदर सौगातें थे जिन्हें वो बड़े लाढ़ प्यार से संजो कर रखती थीं। वही थीं जो हमें मॉं श्री के आते मारक आक्रमणों से ढालो की तरह बचाती थीं और अभयदान प्रदान करती थीं।
लेकिन हम छह भी किसी कयामत के नाम के परकाले थे!
“इन्हें बिगाड़ कर रख दोगी!” मॉं श्री का ये आम उलाहना दादियों के लिए था क्योंकि वो हमें सुधारने का कोई भी मौका न चूकती थीं!
दुर्गा जमींदारी का सारा काम संभालती थीं। सरस्वती उनकी मदद करती थीं और मॉं श्री के ऊपर जासूसी करना उनका मुख्य काम था। दुर्गा का दखल यहां से वहां तक चलता था और जमींदारी का सारा लेन देन उन्हीं के आदेशों पर होता था। लेकिन हमारा साम्राज्य पूरी तरह से मॉं श्री के अधीन था।
पहले तो हमारी छोटी छोटी गलतीयों और भूलों के लिए मॉं श्री डांट फटकार से काम चलाती थीं लेकिन अचानक ही हमारी सामूहिक शरारतों ने उनकी नाक में दम कर दिया था। आये दिन कोई न कोई गुल गपाड़ा होता ही रहता और घर में एक जंग जैसी जुड़ जाती। फिर हमारे बचाव के लिए हमारी दादियां भी दीवार बन आ खड़ी होतीं!
“चलो आज मॉं की तरह हम भी राख का हलवा बनाते हैं।” ये मेरा ही सुझाव था!
फिर क्या था! बाखर तो हमारे हवाले थी ही। हमने मिल कर आग जलाई, कढ़ाई चढ़ाई और राख ला ला कर खूब सुधार कर पानी में घोली और लगे हलवा बनाने! खूब रौनक चल रही थी। कोई आग जला रहा था तो कोई हलवा को चला रहा था। सब कुछ उत्कर्ष पर था। सारी बाखर काली पीली रंग गई थी और हमने भी अपने आप को खूब लीप पोत लिया था। खुली आजादी थी और हम ..
तभी अचानक ही मॉं श्री का आगमन हुआ था!
दरवाजे में खड़े खड़े उन्होंने सारा दृश्य देख लिया था। उनके क्रोध का बांध टूटा था और तुरंत उन्होंने पैर में पहना स्लीपर उतार लिया था। मैं भांप गया था कि अब अस्त्र शस्त्र चलेंगे और धुनाई होगी। पहला वार बड़े भाई साहब पर पड़ा था – सड़ाक! बेचारे सिमिट गये थे। मैंने मौका देखा था और उनकी बगल से निकल दरवाजे के पार भाग गया था। फिर उन सबकी धुनाई चलती रही तो बाखर हाहाकार से भर गई। तब दादियां सुनकर नौहरे से भागीं और ..
“आज ही मार डालेगी इन्हें!” सरस्वती मॉं श्री को हाथ पकड़ कर रोक रही थी।
“वो बीज का भुट्टा तो भाग गया।” दुर्गा ने सूचना दी थी। “इन गरीबों को क्यों मार रही है?” उनका उलाहना था।
बीज का भुट्टा मैं था जिसे दुर्गा ने भागते हुए देख लिया था!
फिर मॉं श्री ने भी देख लिया था कि मैं तो वहां था ही नहीं! लेकिन उन्होंने यह भी मान लिया था कि इस शरारत की जड़ में मैं ही था! और अगली बार उनका इरादा भी मेरी समझ में आ गया था!
“मैंने भी बड़ा तो होना ही है!” मैंने बड़े धीमे से मॉं श्री से कहा था। मेरा इरादा था कि वह अपना भविष्य देखें जब मैं बड़ा हो जाऊंगा और वो .. ” आप यों ..?” मैंने उनके अगले इरादों पर पानी फेरना चाहा था।
“तुझे जो करना हो – तू कर लेना!” मॉं श्री ने बेधड़क कहा था। “पर अब तो मैं तुझे सुधार ही दूं!” उन्होंने अपना दृढ़ इरादा जाहिर कर दिया था।
मेरी चली चाल चौपट हो गई थी। और अब तो तय था कि किसी न किसी दिन – वो दिन आयेगा जरूर जब बीज के भुट्टे को सुधारा जाएगा! और जब एक दिन हमारा गैंग गुजिया चोरी करते रंगे हाथों पकड़ा गया था तो मॉं श्री ने मुझे चूहे की तरह चुप से पकड़ लिया था। आज मैं ही अभियुक्त था – बाकी सब बरी थे। अब हो तो क्या हो? दादियों तक फरियाद पहुंचे तो कैसे? दुर्गा तो शाम को लौटेगी मैं जानता था और सरस्वती ..
“चल आज तुझे ..!” मॉं श्री ने मुझे बंडल बनाया था और आड़े में बंद कर दिया था।
आड़ा बाखर के गर्भ में बना एक अंधा गोदाम था। इसमें अनाज भरा होता था और आलतू फालतू का सामान भी भरा होता था। इसे सांपों का निवास स्थान भी माना जाता था। और अब मैं इसी आड़े में पड़ा पड़ा किसी सांप के हमले के बारे में सोच रहा था। डर रहा था कि कहीं सांप लहराया तो ..
तभी मैंने उस धीमे प्रकाश में देखा था कि एक नया पीढ़ा आड़े की दीवार पर ऊंचा जड़ा था। बस मैं लपका और पीढ़े पर जा बैठा! मुझे बहुत अच्छा लगा था। कम से कम सांप आया भी तो ..
तभी मैंने छत पर होती हरकत को सुना था। कुछ छत पर हो रहा था। लेकिन मैंने उस शोर को आया गया कर दिया था। कारण मेरे किस काम का था वो शोर? लेकिन शोर था कि अनवरत आता ही रहा था और बढ़ता ही जा रहा था। अब मैं ठीक से सिमिट कर पीढ़े पर बैठ गया था। हो न हो कोई गाज गिरी भी तो उससे बचना तो था ही!
और फिर एका एक एक सुनहरी रोशनी का समूह भीतर आड़े में भर आया था। छत काट दी थी और अब ..
“कृपाल!” आवाज बड़े भाई साहब की थी।
“हॉं!” मैं उछल पड़ा था। मुझे समझ आ गया था कि मेरा गिरोह छत काटने में कामयाब हो गया था। मैंने सीधा अपना हाथ कटी छत के सूराख से बाहर निकाल दिया था। फिर उसी तरह दूसरा हाथ भी बाहर निकाला था और दोनों भाइयों ने मेरे हाथ पकड़ कर मुझे बाहर खींच लिया था!
अब हम आजाद थे। अब हम विजयी थे! और अब हम सीधे मॉं श्री के मुकाबले में आ गये थे!
तब हमारी दोनों दादियों ने कह सुन कर मॉं श्री को हार जाने के लिए मना लिया था!
दुर्गा ने अगला कदम उठाया था और दो बड़े भाइयों के नाम स्कूल में जाकर लिखवा आईं थीं। और हॉं मेरा चयन उन्होंने अपनी खिदमत में रखने के लिए कर लिया था। मैं जानता था कि दुर्गा मुझे बेहद प्यार करती थी। मैं भी प्रसन्न था कि मैं उनकी खिदमत में आ गया था और अब मेरा कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता था!
मुझे याद है जब इतनी घनघोर वर्षा हुई थी कि सारा खादर यमुना के पानी में डूब गया था। केवल हमारी चौपटिया बची थी। उसके गिर्द बांध बना दिया था। लहलहाती मक्का की फसल खड़ी थी। और अब उसकी रखवाली करना परम आवश्यक हो गया था। दादा खजान सिंह – जो हमारे बटैरी थे और दादी दुर्गा ने इस काम का जिम्मा लिया था। और मैं तो दादी के साथ था ही।
वहां – उस खादर में जहां जल ही जल था और केवल हमारी चौपटिया बची थी – मुझे बड़ा ही रोमांचित करने वाला दृश्य लगा था। मेरा मन बाग बाग हो गया था। जो झोंपड़ी बनाई थी वो बड़ी ही सुखद और सलोनी थी। साथ में मेहरा बना था जिसपर चढ़ कर हम तोता, कौवा और गिलहरियों को खेत खाने से भगाते थे और रात को हमारा पाला गीदड़ों और नील गायों से पड़ता था!
एक विचित्र संयोग था जो रोज ही घटता था।
कोई एक गीदड़ था जो रात के ठीक दो बजे मक्का के कच्चे कच्चे भुट्टे खाकर और फिर पके फूंट से पेट भर कर हूकरी देता – हआहू! तब हम तीनों की नींद टूट जाती। दादा खजान सिंह बेचैन हो जाते। वह खूब खा मल्हा कर जाता था और उसका रोज का नियम बन गया था!
“कृपाल!” दादाजी बोले थे। “इस साले गीदड़ को मैंने आज लुढ़का देना है!” उनका इरादा था। “तू अपनी लाठी लेकर उधर बंद पर चला जाना और खड़काना इस पाजी को। मैं निकास पर हूंगा फिर देखते हैं ..” उनकी योजना थी।
रात को हमने पहले ही तैयारी कर ली थी। मैंने पीछे बांध पर जाकर भारी भारी कछुओं को जल में कुदाया था और खूब शोर मचाया था! और जब गीदड़ डर से भागा था तो ..
“तड़ाक!” दादाजी ने सीधा हाथ मारा था और गीदड़ चित्त!
हमने जश्न मनाया था अपनी जीत का! लेकिन दुर्गा का चेहरा उतर गया था।
“खजान सिंह! गीदड़ों के अलग से खेत तो नहीं होते?” उनका प्रश्न था। “अरे! ये भी तो शामिल हैं हमारे खाने दाने में?”
एक अपराध बोध हम दोनों के चेहरों पर छपा था!
मौसम बदला था। हवा का रुख मुख भी बदल गया था। और अब हमारे घर का माहौल भी पहले जैसा न रहा था। मॉं श्री के चेहरे पर एक तीखा तनाव मैंने बैठा पाया था। उनकी बात और व्यवहार दोनों ही बदल गये थे।
“ये छह बच्चे हैं!” मॉं श्री दुर्गा से निवेदन कर रही थीं। “इनके लिए कुछ नहीं छोड़ोगी?” उनका प्रश्न था। “हर कोई कह रहा है कि जमींदारी जाएगी। फिर भी आपने खेत उठा दिये? बीज के लिए जो चने रक्खे थे वो भी दौलत राम को दे दिये? खैरातें बट रही हैं ..” मॉं श्री रोने रोने को थीं।
दुर्गा को मॉं श्री का यों हस्तक्षेप करना बुरा लगा था। घर में जंग हुई थी। अब हम सब भी बातों के अर्थ समझने लगे थे। जब दुर्गा, सरस्वती और काका जी का पूरा दबाव मॉं श्री के ऊपर आकर तुल गया था तो मुझे अच्छा नहीं लगा था। जो भी था – मैं था तो मॉं भक्त ही! अपनी मॉं श्री जितना प्यार और लगाव मेरा किसी के साथ नहीं रहा! उन जैसा व्यक्तित्व भी मैंने आज तक नहीं देखा! मैं तुरंत अखाड़े में कूद पड़ा था!
“अरे रे मंदिर से सालिग्राम कहां चले गये?” पूजा करने से पहले दुर्गा दहाड़ें मार रही थी। पूजा के बाद ही तो भोजन करना था। उनकी आंखों में दम आया हुआ था।
“चले गये!” मैं बोला था। “कह रहे थे अब न लौटेंगे! तू मॉं से जो लड़ती है ..” मैंने सीधा दुर्गा की आंखों में घूरा था।
उन्हें समझते देर न लगी थी कि ये शरारत मेरी ही थी।
“ला दे रे सालिग्राम! भूखी हूँ भइया!” दुर्गा मेरी खुशामद कर रही थी।
“और लड़ेगी मॉं से ..?” मैंने पूछा था।
“मैं कहां लड़ती हूँ रे!” उनका कातर स्वर था। “वक्त पलट गया है बेटे! मैं क्या करूं?”
हमारी सुलह सफाई हो गई थी, लेकिन जो अघटनीय था वो तो घट गया था!
दुर्गा के हल्ले दल्लों के चलते चलाते और उनकी चिल्हीयों और जलेबियों की सामूहिक दावतों के बीचों बीच से बुरा वक्त माना कब था? और दुर्गा के सामने आ खड़ा हुआ था! वो एक मनहूस सुबह थी जब खबर उड़ी थी कि जमींदारी गई और सबने दस गुने भर दिये! अब दुर्गा जमींदार नहीं थी। सारे जोता और भूमिहार जमीन के मालिक बन गये थे!
ये वक्त था जब दुर्गा अपने पोते की शादी रचाने के लिए सपने देख रही थी। भाई साहब दसवीं में पढ़ रहे थे और अच्छे रिश्ते आ रहे थे लेकिन ..
किसी की भी छाती से मूढ़ मार कर नहीं मरी दुर्गा! कोई शिकायत नहीं की दुर्गा ने। लेकिन हॉं उसने चारपाई पकड़ ली थी। अब दुर्गा बीमार थी। लोग मिलने आते – देखने आते और चले जाते! ननुआ वैद्य दोनों वक्त हाजिर होता। मथुरा से बहुत सारे फल आ गये थे और ..
“ले खा!” बीमार दुर्गा फल छील छील कर मुझे खिलाती। “तू ही खाता अच्छा लगता है रे!” वो मुझे लाढ़ लड़ाती। लेकिन न जाने कैसे मैं दुर्गा के दुख को पहचान गया था!
लोगों का किया विश्वासघात – खासकर उन लोगों का जिन लोगों के लिए दुर्गा ने हर सुविधा दी, सहारा दिया, पैसा दिया, खेत दिये और अपनी छत्र छाया दी – उन्हें भीतर ही भीतर खाता रहा था और इसी ने उनके प्राण ले लिये थे!
बैल गाड़ी में लाश को रखकर पूरा कस्बा यमुना किनारे दाह संस्कार कर लौटा था तो मैंने मानवता की आंखों में आंसुओं को बहते देखा था! ऐसा कौन था जो उस दिन दुर्गा के लिए नहीं रोया था?
लगा था – जैसे समाज आज अपनी एक महत्वपूर्ण परम्परा को भस्म करके लौट आया था – बहा आया था उसे यमुना में और अब शायद वो भाई चारा, सौहार्द, आपसी विश्वास और एक ईमानदार लेन देन अब न लौटेगा!
मैं आज वक्त के इस छोर पर आ खड़ा हुआ हूँ और महसूस रहा हूँ कि अब शायद ही मुझे कोई दुर्गा देखने को मिलेगी और शायद ही युग का मुख मुड़ेगा!
दुर्गा के साथ लाश हुई वो परंपरा क्या कभी लौटेगी?

मेजर कृपाल वर्मा