मैं बकरी चरा कर ला रहा था।
बकरी बहुत नटखट थी। पाजी इतनी कि किसी के भी सूखते गेहूँ दिख जाएं तो चट कर जाए। प्यारी इतनी कि न प्रताड़ित करने को मन करे न मारने को। अतः उसकी मन की अभिलाषा के अनुसार मैं उसे खुद खेतों में चरा कर लाता था। कारण – उसका दूध भी तो मैं ही पीता था।
अचानक मैंने पाया कि मास्टर जी स्कूल समाप्त कर मेरी ओर चले आ रहे थे। मैं तनिक घबरा गया था। आज स्कूल जो नहीं गया था!
“स्कूल क्यों नहीं आये?” उनका भी पहला ही प्रश्न था।
तनिक गड़बड़ा कर मैंने घर के काम का बहाना बता दिया था। और अब उनके अगले आदेश का इंतजार करने लगा था।
“इंस्पेक्टर ऑफ स्कूल्स का रहे हैं मुआयने के लिए।” उन्होंने मुझे तुरंत ही सूचना दी थी। “कोई कार्यक्रम करना है उनके स्वागत में।” उनका प्रस्ताव था। “मैंने सोचा कोई ड्रामा स्टूडेंट्स द्वारा मंचित कराया जाये तो अच्छा रहेगा!” अब ठहरकर उन्होंने मेरी ऑंखों में झांका था। मैं भी उनका मंतव्य समझ गया था। “लिख लाओ एक ड्रामा कल! दो ही किरदार काफी होंगे।” उन्होंने राय दी थी।
अब मैं दुविधा में पड़ गया था। कल ही ड्रामा लिख कर देना था और वो भी जिसका नाम गांव नदारद था।
“किस पर .. कैसे ..?” मैंने डरते-डरते पूछ ही लिया था।
“अरे, अपनी समझ से कुछ लिख डालो!” उन्होंने हंसते हुए कहा था। “ले आओ लिख कर फिर देख लेंगे!”
और वो जा रहे थे। मेरी बकरी जैसे मुझ पर हंस रही थी। उसे अच्छा लगा था कि मैं फंस गया था।
वो दिन थे – जब आजादी नई नई आई थी। हम दोनों जैसे हमउम्र ही थे। आजादी की तरह मुझ में भी नई-नई नितांत कोमल भाव और भावनाओं का प्रादुर्भाव होने लगा था। कुछ समझ आने लगी थी। सवेरे का अर्थ और शाम होने का दर्द मैं समझने लगा था!
लेकिन यों चौड़े में ड्रामा लिख लेना और उसे मंचित करना वो भी इंस्पेक्टर ऑफ स्कूल्स के सामने, कोई सुलभ काम न लगा था मुझे! पर न जाने कैसे मुझे अचानक ही अपने अध्यापक हरी बाबू का हुलिया दिखाई दे गया था। जैसे ड्रामे का कर्णधार देख लिया हो मैंने, ऐसा प्रतीत हुआ था मुझे। क्योंकि हमारे हरी बाबू एक अजब ही नमूना थे। क्लास में कभी कभार ही समय से आते थे और आने के साथ ही मुझे क्लास पढ़ाने को कह चले जाते थे। दिन में कोई न कोई कारनामा ऐसा अवश्य करते थे कि हम हंस हंस कर दोहरे हो जाएं!
बस जी, मैंने उन्हें ही चुन लिया!
उन दिनों मैं सरसों के तेल का दीपक जला कर पढ़ा करता था। तब तक मिट्टी के तेल का आगमन न हुआ था और घासलेट भी उसके बाद ही बाजार में घुसा था। जिंदगी एक बेजोड़ वक्त के साथ सैर पर निकल पड़ी थी। सब शुद्ध था .. पवित्र था .. ईमानदारी से प्राप्त किया हुआ था और जमाना भी दीन ईमान की उंगली पकड़े रास्ता तय कर रहा था!
मैंने भी वक्त के सामने वक्त को ही खड़ा करने की ठान ली थी।
लेट स्कूल आते हरी बाबू की सीधी टक्कर इंस्पेक्टर ऑफ स्कूल्स से होती है – मंच पर! हड़बड़ाए हरी बाबू अपनी टूटी-फटी साइकिल गिरा उनके चरण स्पर्श करते हैं। आधा फटा पायजामा जब और भी फटता है तो दर्शक जम कर तालियां बजाते है। पर फिर जब हरी बाबू अपनी करुण कथा इंस्पेक्टर ऑफ स्कूल्स को कह सुनाते हैं तो दर्शक रोने-रोने को हो आते हैं!
उस वक्त के स्कूल मास्टर की कहानी मैंने वक्त को उसी की जबानी सुना दी थी!
दूसरे दिन जब मैंने अपनी लिखी ड्रामे की पांडुलिपि मास्टर साहब को दी थी तो मैं बेहद डरा हुआ था। हरी बाबू का चरित्र चित्रण वह न समझ पाते – यह तो असंभव ही था। अब मैं अपनी खैर मना रहा था।
थोड़ा बहुत संशोधन कर उन्होंने मेरी ओर देखा था। वह मुसकुराए थे तो मेरी जान में जान लौट आई थी। कारण मैंने कुछ फेर-बदल तो किए ही थे ताकि सीधी चोट हरी बाबू को ही न लगे! और जो मास्टरों की समस्याएं थीं – वो थीं! उनमें सुधार होना अत्यंत आवश्यक था। और चूंकि इंस्पेक्टर ऑफ स्कूल्स का सीधा ही संबंध इन समस्याओं से था – अतः पांडुलिपि अपने में संपूर्ण थी।
अभिनय मैंने और सुरेश ने किया था!
और जब पहले ही दृश्य में मैं अपनी टूटी-फटी साइकिल को संभालते संभालते गिरा था – उठा था और इंस्पेक्टर ऑफ स्कूल्स के चरण छूए थे .. नमस्कार किया था .. तो लोग हंस-हंस कर बावले हो गये थे। उसके बाद जब मैंने अपने स्कूल देर से आने का कारण साइकिल का पंक्चर होना बताया था और कहा था कि गांव से स्कूल के बीच निरा जंगल था – तो दूसरी बात समझ में आ गई थी कि दूर दराज से आते शिक्षकों और विद्यार्थियों के लिए सुविधाएं उपलब्ध न थीं। वह जमाना ही ऐसा था। आजादी का आरम्भ काल ही तो था। कहां थीं सड़कें .. कहां थे रास्ते .. कहां थे बिजली और पानी?
अंत में आर्थिक तंगी की बात मैंने गिड़गिड़ा कर कही थी और जब समस्याएं सामने धरी थीं तो हर दिल हिल गया था! मेरी आंखों में छलक आए आंसू सबने देख लिए थे! और फिर तो तालियां ही तालियां थीं ..
खूब प्रशंसा हुई थी हमारे ड्रामे की और हम दोनों को इंस्पेक्टर ऑफ स्कूल्स ने इनाम और आशीर्वाद दिए थे।
“आप आये ही नहीं समारोह में?” पंडित रघुवर प्रसाद ने जब मेरे काका जी से पूछा था – तो मैं भी सुन रहा था। “कितना अच्छा अभिनय किया था कृपाल ने ..! आप ..?”
“बच्चों को मां-बाप की नजर लग जाती है, पंडित जी!” मैंने जब काका जी को कहते सुना था तो मेरा मन शांत हो गया था!
लेकिन एक अशांति और भी थी मेरे मन में!
आज मैंने अपने परम मित्र प्रहलाद के अभी तक दर्शन ही न किये थे। मन कुंद था। सोचा – घर जा कर पता करूंगा कि कहीं कोई घटना तो नहीं घटी जिसके कारण वह ..
“ले ..!” मेरा मित्र प्रहलाद मेरे सामने अचानक आया था। मैं चहक उठा था। लेकिन उसके चेहरे पर धरे तनाव को देख सहम भी गया था।
“क्या है इसमें ..?” मैंने दिए लिफाफे को टटोल कर पूछा था।
“पढ़ ले!” उसने मुझे आदेश जैसा दिया था।
और अब मैं उस लिफाफे के भीतर से बाहर आए पन्नों को पलट रहा था। मेरी जीवनी लिखी थी। मेरे लेखक होने की संभावनाओं को व्यंगात्मक रूप में लिखा गया था। मेरे लिखे नाटक पर गहरा अफसोस जाहिर किया गया था कि मैंने अपने गुरु हरी बाबू का मखौल उड़ाया था। लगा मेरे परम मित्र प्रहलाद ने अपनी पूर्ण ईर्षा घृणा और मेरे प्रति घोर निराशा का वर्णन बड़े ही मनोवैज्ञानिक रूप से किया था। मैं यह पढ़ कर हैरान था, परेशान था ..
“कैसा लगा ..?” प्रहलाद ने पूछा था।
“शायद ये लिखी सारी संभावनाएं .. सच हो जाएं ..?” मेरा उत्तर था।
फिर मैंने उन पन्नों को कत्तर-कत्तर में फाड़ा था और फेंक दिया था! जबकि मुझे उन्हें संजो कर रखना चाहिये था?
ये गलती थी मेरी ..
मेरे संस्मरण – मेजर कृपाल वर्मा
आभार –

हमारी नींद खुलती है। सूर्योदय होता है। हमें एक गतिमान चराचर नजर आता है। हम उठ खड़े होते हैं और चल पड़ते हैं – सबके साथ कदम से कदम मिला कर। और तब सब होने लगता है। सारे रिश्ते आकर जुड़ जाते हैं। अनाम अनुभव आ आकर इकट्ठे हो जाते हैं! और तब लगता है – हम जी रहे हैं .. हम आनंद उठा रहे हैं प्रकृति के वैभव का! और फिर अपने तेरे की जंग भी न जाने कब और कैसे उठ खड़ी होती है! फिर तो हम बेदम हो-हो कर जूझने लगते हैं और ..
और फिर वही शाम आकर घेर लेती है हमें! सूर्यास्त हो जाता है। और फिर नींद आकर दबोच लेती है हमें!
जी तो जाते हैं अपने हिस्से के सुख-दुख हम और छोड़ जाते हैं कुछ संस्मरण ताकि सनद रहे ..!
कृपाल