इन्सान के जीवन में तीन पड़ाव आते हैं, बचपन,बुढ़ापा और जवानी। इन तीनों पड़ावों से कई तरह की कहानियाँ जुड़ी हुई होती हैं। जितनी भी कहानियाँ होती है, सारी की सारी परिवार से बनती हैं। बच्चे जब अपने माता-पिता की कोख़ में से जन्म लेते हैं,उसी वक्त वो दो सामाजिक कहानियों से जुड़ जाते हैं। वो दो कहानियाँ होती हैं…एक माँ से जुड़े परिवार की दूसरी पिता से जुड़े परिवार की। नन्हा बालक सीधे-सीधे दो छोटे सामाजिक दायरे से जुड जाता है। जैसे-जैसे बालक बड़ा होता चलता है, वह बाहरी समाज से भी जुड़ता है। लेकिन जो माता -पिता का सामाजिक दायरा होता है, यानी कि उनके परिवार और उनका पूरा का पूरा खानदान…इनसे  उस  नन्हें से बालक के दिल के तार जुड़ते चले जाते हैं ।नन्हा सा दिमाग़ रिश्तों की कहानियाँ बुनता चला जाता है। इन कहानियों में कई तरह के किरदारों से भी बालक का परिचय होता चलता है। ये किरदार रिश्तों के रूप में, प्यारे नन्हें से बालक के जीवन में, महत्वपूर्ण भूमिका आगे चलकर अदा करते हैं। आगे से कहने का मतलब यह है, कि ज्यों-ज्यों बालक की उम्र बढ़ती चलती है ,और वो बालक के रूप  को त्याग एक बड़ा और समझदार इंसान बन जाता है। बालक का पूरा का पूरा वयक्तित्व इन किरदारों का ही  समावेश  होता है, जैसे कहा जाता है अक्सर कि ,”अरे!बिल्कुल अपने खानदान पर गया है, अरे!नहीं, नहीं  मामा की कार्बन कॉपी है, ये तो, या फिर बनी बनाई बुआ है।”माता-पिता के परिवारों की खट्टी मीठी यादों से पूरे बचपन का ताना बाना बुना होता है। ये वो यादें होती है, जो व्यक्ति के जीवन में अमिट छाप छोड़ देती है, ये यादों की एक ऐसी मोहर होती है, जो अंतिम समय और आख़िरी साँस तक राख होने तक हमारे साथ रहतीं हैं। रिश्तों और अपनों की खुशबू एक ऐसा इत्र है, जो दूर तक महसूस की जाती है।ऐसी ही कुछ रिश्तों और अपनों की खट्टी मीठी यादें मेरे जीवन से भी जुड़ी हैं, जिनमें मैं अकेले न खोकर आप सभी मित्रों को भी शामिल करना चाहती हूँ।मेरे अपने परिवार में पाँच सदस्य हुआ करते थे, माता-पिता के अलावा हम तीन बहन भाई। मेरे माता-पिता उत्तर-प्रदेश के मथुरा जिले के रहने वाले हैं। क्योंकि माँ और पिताजी के माँ और बापू व उनका सारा परिवार खेती-बाड़ी से जुड़ा हुआ है, यानी के मेरे दादाजी और नानाजी दोनों ही ज़मींदार हुआ करते थे। मेरे नानाजी रोडवेज की सर्विस में होने के बाद भी खेती बाड़ी से जुड़े थे। नानाजी और दादाजी  खेती बाड़ी से जुड़े होने के कारण मेरी ननिहाल और दादाजी का घर मथुरा से थोड़ा सा दूर गाँव मे था। हालाँकि हम बहन भाइयों को स्नेह दोनों परिवारों से भरपूर मिला था,पर मैं और मेरा छोटा भाई बुलबुल अपने नाना परिवार से बेहद जुड़े हुए थे। पिताजी फ़ौज में अफ़सर थे, इसलिए सारी लाइफ मेरे माँ और पिताजी की अलग-अलग स्टेशनों पर बीती, क्योंकि एक जगह से दूसरी जगह ट्रान्सफर होता रहता था। हर साल गर्मियों में जब हमारे स्कूल की  छुट्टियाँ हो जाया करती थीं, तो हम अपने पूरे  परिवार के साथ अपनी ननिहाल और दादाजी के गाँव सबसे मिलने आया करते थे। धीरे-धीरे हम बडे हुए और पिताजी अपनी फ़ौज की सर्विस छोड़ दिल्ली आ गए थे, हम सब को लेकर। अभी हम तीनों बहन भाई स्कूल में ही थे। पिताजी का कहना था, कि आगे की पढ़ाई दिल्ली में रहकर  ही तुम लोग पूरी करो। पिताजी ने अपना बिज़नेस करने का इरादा कर लिया था, यानी के पूरी तरह से दिल्ली में ही घर बसाने की प्लानिंग कर बैठे थे, माँ-बापू। दिल्ली में सेटलमेंट का इरादा पिताजी ने इसलिए भी किया था, क्योंकि पिताजी का कहना था, कि ,”ठीक रहेगा, गाँव भी नज़दीक पड़ेगा और सबका आना जाना लगा रहेगा।” जैसा कि मैने बताया कि अभी हम तीनों बहन-भाई स्कूल में ही थे। गर्मियों की छुट्टियाँ  होते ही हमे अपना नानी का गाँव याद आने  लग जाता था। अभी मैं और मेरा छोटा भाई इतने बड़े भी न थे,कि अकेले ही अपनी नानी के घर पहुंच जायें, अभी केवल पाँचवी और चौथी कक्षा में ही थे। पिताजी अपना खुद का बिज़नेस शुरू कर रहे थे, इस कारण उनके पास समय न हुआ करता था। परिवार की  ज़िम्मेदारियाँ दिल्ली में आकर बढ़ गईं थीं, इसलिए माँ का भी मायके जाकर पहले की तरह हमारे साथ गर्मियों की छुटियों में दो-दो महीने रहना बन्द सा ही हो गया था। मेरे नानाजी और नानीजी व अन्य माँ और पिताजी के परिवार के सदस्य उनसे मिलने हमारे घर दिल्ली ही आ जाया करते थे। दिल्ली और मथुरा में कोई ज़्यादा दूरी न है। आराम से बस में बैठ कर आया जा सकता है। अब हर गर्मियों की छुट्टियाँ होते ही हमें अपने नानाजी का इंतेज़ार रहने लगा था। हमारे नानाजी पहले से ही पता कर लिया करते थे,कि हमारी परीक्षा कब ख़त्म हो रही है, और स्कूल की दो महीने की छुट्टियाँ कब से लग रही है। बस!फिर क्या था, छुट्टीयों से एक दो दिन पहले से ही नानाजी हमारे पास हमें गाँव ले चलने के लिए दिल्ली आ जाया करते थे।

गाँव जाने से एक दिन पहली वाली रात को मुझे और मेरे छोटे भाई को चैन न आता था, खुशी के मारे नींद भी न आ रही होती थी ,हम दोनों एक दूसरे को बिस्तर में चुप-चाप पड़े निहारते रहते थे। हमारे नानाजी भी हमारे बाजू वाले बेड पर हमारे साथ ही सोया करते थे, और हम से कहा करते थे,”सो जाओ, बच्चों अभी सवेरा होने में बहुत वक्त है, मैं सुबह चार बजे ही जगा दूँगा ,टाइम से पहली बस से गाँव निकल जाएंगे, नहीं तो सिर पर सूरज आ जायेगा और गर्मी बहुत हो जाएगी”।सुबह होते ही हम बहन-भाई  फटाफट अपना सामान लेकर और माँ -पिताजी से टाटा बोलकर अपने ननिहाल की ओर निकल पड़ते थे। बस!माँ जाने से पहले इतना कहा करती थी, “अपनी नानीजी को तंग बिल्कुल मत करना, ठीक से रहना। स्कूल खुलने से एक दो दिन पहले मैं भईया को तुम्हें लेने के लिये भेज दूँगी।”। अपने नानाजी के साथ बस स्टॉप तक रिक्शे में बैठ कर जाना,एक अजीब सी लेकिन बहुत ही प्यारी खुशी का अहसास होता था।अपने नानाजी के साथ यूँ बैठकर चलना ही हमारे लिए उन दिनों दुनिया की  सबसे बड़ी खुशी हुआ करती थी, जिसका हम पूरे साल बेसब्री से इंतेज़ार किया करते थे।मेरे नानाजी ने हम बहन भाईयों से बेहद लाड़ किया है, शायद हमारे खुद के माँ बापू से ज़्यादा। मेरे नानाजी की पर्सनलिटी बहुत ही ज़बरदस्त हुआ करती थी, गोरा रंग मध्यम कद और बड़ी-बड़ी मूँछे। नानाजी को देखकर लगा करता था , हाँ!भई कोई है। खैर!नानाजी के साथ बस में बैठकर हम मथुरा पहुँच जाया करते थे। मुझे याद है, आज भी मथुरा के बस स्टॉप पर चटनी लगा हुआ, एकदम ठंडा खीरा मिलता था, जो खाने में चटपटा और बहुत ही स्वादिष्ट लगा करता था .हम दोनों नानाजी से खीरा खाने की ज़िद्द किया करते थे, हमारी यह प्यारी सी ज़िद्द नानाजी झट्ट से पूरी कर दिया करते थे। इस मथुरा के बस स्टॉप से हम लोग गाँव जाने वाली बस में बैठते थे, यह बस डायरेक्ट हमारे ननिहाल जाती थी।गाँव वाली बस में बैठने के बाद नज़ारा ही कुछ और होता था , मैं नानाजी से खिड़की वाली सीट पर बैठने की ज़िद किया करती थी, ताकि जब बस चले तो चारों तरफ खेत और हरियाली दिखाई पड़े, सड़क के दोंनो तरफ खेत हुआ करते थे, और हमारी बस ठन्डे पानी से भरी हुई नहर को भी पार किया करती थी। मुझे वो नहर बहुत ही अच्छी लगा करती थी, नहर के पुल पर से छोटे-छोटे बालक छलाँग मारते हुए दिखाई पड़ते थे। नहर के ठंडे पानी में  भैंसे भी नहाती हुई दिखाई देती थीं, और साथ में कुछ बच्चे भी तैराकी करते हुए दिखाई  देते थे। हरे-हरे खेत, भरे हुए नहर बम्बे  चलती हुई बस में से बहुत ही सुंदर दृश्य हुआ करता था।  गाँव पहुँचने के बाद हम नानाजी के साथ बस से उतरकर किसी न किसी के ट्रैक्टर पर बैठ जाया करते थे, जो अंदर कच्ची सड़क से होता हुआ सीधा घर के गेट पर ही रुका करता था।     उस कच्ची सड़क से घर तक पहुँचने का मज़ा भी कुछ और ही हुआ करता था। ट्रैक्टर की सवारी अनोखी हुआ करती थी।
‌दूर से ही हमें ट्रैक्टर पर बैठकर नानीजी के घर का नीले रंग का बड़ा सा गेट दिखाई दे जाया करता था, गेट के दिखते ही चेहरे पर लम्बी सी खुशी भरी मुस्कुराहट आ जाया करती थी। वो नानी के घर पहुँचने की खुशी अनमोल हुआ करती थी। उस खुशी का मुकाबला आज तक किसी खुशी ने नहीं किया है। हाँ!दूर से हमें एक चीज़ और दिखाई  पड़ती थी, वो थी मेरी नानी, छत्त की आगे वाली दीवार पर ख़ड़े होकर हमारा इंतेज़ार कर रही हुआ करती थीं। और छत्त की जिस दीवार पर मेरी नानी हमारा इंतेज़ार किया करती थीं, वहीं उनके ठीक बाजू में रंगीन फूलों का गमला रखा हुआ करता था …वो रंगीन फूल भी हमे अपनी नानी के साथ ही दूर से दिखाई पड़ जाते थे। जैसे ही ट्रैक्टर घर के गेट पर पहुँचता था, हम दोनों बहन-भाई  कूद के ट्रेक्टर पर से नीचे उतर जाया करते थे।
‌हमारी नानी हमें देखकर दौड़कर नीचे आया करतीं थीं,और हमे अपने गले से लगा लिया करती थीं। घंटो अपनी नानी के गले और उनकी धोती से चिपके ख़ड़े रहा करते थे, हम दोनों बहन भाई। मेरी नानीजी देखने में बहुत ही सुंदर महिला थीं, एकदम गोरा रंग, टमाटर जैसे लाल गाल और सफ़ेद और काले दोनों रंगों के लम्बे और घने बाल हुआ करते थे , उनके।एकदम पुरानी फिल्मों की हीरोइन  लगा करती थीं, मेरी नानीजी। मेरी नानीजी हमेशा सूती कपड़े की धोती पहना करती थी। गाँव मे नानी जी का घर गाँव की तरह  न होकर अच्छा खासा बना हुआ था,दो मंजिला मकान था, गेट के अन्दर घुसते ही एक कोने में गायों और भैंसों के बांधने की जगह थी, बिल्कुल सामने काले रंग का बहुत ही बड़ा सा दरवाज़ा लगा हुआ था। उस दरवाज़े से पहले ही बाहर कोने में बैठक बनी हुई थी। बैठक को मेरी नानी हमेशा सजा-धजा कर रखा करती थीं। बैठक के बाहर बरामदे में तखत रखा हुआ था,इस तखत पर मेरे नानाजी ही हमेशा बैठा करते थे। नानाजी बैठक में ही रहा करते थे, अक्सर उनका खान-पान भी यहीं बैठक में नीचे ही होता था,केवल नहाने -धोने ऊपर आया करते थे, क्योंकि गुसलखाना ऊपर वाली मंज़िल पर बना हुआ था। नीचे वाले पोर्शन में बहुत बड़े-बड़े तीन कमरे थे,घर के बीचों-बीच एक बड़ा सा आँगन हुआ करता था, आँगन के दूसरी तरफ ही बिल्कुल सामने मेरे नानाजी के चचेरे भाई और उनका पूरा परिवार रहा करता था। मकान के ऊपर बडी सी छत्त ,एक बड़ा कमरा, गुसलखाना और मेरी नानी की छोटी लेकिन खुशबूदार रसोई हुआ करती थी। मेरी नानीजी भोजन बनाने में एकदम एक्सपर्ट थीं, ऐसा खाना बना दिया करतीं थीं, मानो होटल वालों ने बनाया हो। उनके बनाये हुए भोजन की खुशबू  दूर तक फैल जाती थी। ऊपर छत्त पर मिट्टी का चूल्हा बना हुआ था। इस चूल्हे पर शाम और सुबह का खाना बनता था, वैसे तो नानी के घर में उस ज़माने में गैस भी थी, पर खाना वगरैह हमेशा चूल्हे पर ही बना करता था। चूल्हे पर बने हुए खाने का ख़ासकर पानी के हाथ की रोटी बहुत ही स्वादिष्ट लगती थी, खाने में, पेट भर जाया करता था हमारा पर क्या बतायें नियत न भरती थी।
‌नानी के घर पहुँचकर और सबसे मेल-मिलाप कर हम खेल-कूद और मस्ती शुरू कर दिया करते थे। लाड़-प्यार इतना होता था हमें कि कोई रोक-टोक न हुआ करती थी। शाम को सूरज ढ़लने के पश्चात ही थोड़ा सा अँधेरा होते ही पूरी छत्त पर लाइन से पलँग लग जाया करते ,और हमारे सोने के टाइम तक बिस्तर पूरी तरह से ठन्डे हो जाया करते थे.. पूरा शिमला का आनंद आता था, हमें अपनी ननिहाल में । गाँव होते हुए भी मच्छर का कोई काम न था..बिंदास बिना ही मच्छर दानी के आराम से बाहर छत्त पर सोया करते थे, जैसे ही कभी बारिश के आने का अंदेशा होता था, या फिर कभी सोते हुए हमारे ऊपर बून्द पड़ जाया करती थी, तो  हम झट्ट से अपना पलँग बरामदे में खींच लिया करते थे।
‌गाँव की वो सुबह और शामे बहुत ही अच्छी और शुद्ध हुआ करती थी। हमारी नानी सुबह ही चार बजे उठ जाया करती थीं और सो ही उनके साथ नानाजी भी उठ जाया करते थे। नानी का काम सुबह उठते ही गाय का दूध निकलना हुआ करता था, और मेरे नानाजी तो बहुत ही पूजा-पाठ वाले धार्मिक इन्सान थे,वो सुबह चार बजे उठते ही स्नान कर अपने पूजा-पाठ से लग जाया करते थे। नानाजी के भजन गाने के आवाज़ हमें अपने पलँग पर छत्त पर आया करती थी। और हम समझ जाया करते थे, कि सुबह हो गयी है। सुबह होते ही गाँव में गाय भैंसों की रंभाने की आवाज़ें आया करती थीं,और बाल्टियों की उठा-पटक भी सुनाई पड़ा करती थी,बाल्टियों की उठा पटक का मतलब हुआ करता था, की सुबह की धार काढ़ि जा रही है, यानी के गाय व भैंसों का दूध निकालने होता था। उसके बाद चूल्हे में खाना पकते टाइम जो चूल्हे में से धूआँ निकलता था, भई! वाह!उस खुशबू के तो क्या कहने होते थे। नानी के घर में सारे दिन का खाना सुबह ही बन जाया करता था और हम सारे दिन खेल-कूद कर खाया करते थे।
‌नानी के गाँव में खेतों में मूंग की फसल उगाई जाती थी,जो गर्मियों में पकती थी। मूंग की फसल कटने के टाइम गर्मियों में ही हुआ करता था, जब हम अपनी नानी के यहाँ छुट्टी मना रहे होते थे। हमे खूब याद है, की जब अगले दिन मूँग की फली तोड़ने जाना होता था, तो  हमारी नानी गाँव के निम्न वर्ग की औरतों में कहलवा भेजतीं थीं,”कल सवेरे फलाँ खेत में मूँग की फली टूटेंगी सब आ जाना”। अगले दिन सुबह ही जब हमारी नानी खेतों में जाने के लिए तैयार हुआ करती थीं, तो हम भी अपनी नानी के साथ हो लिया करते थे। नानी हमारे आगे-आगे हुआ करती थीं और हम नानी की धोती पकड़कर उनके पीछे-पीछे हो लिया करते थे। खेतों में जाते वक्त रास्ते में खूब मज़ा आया करता था, हमें। हरे-भरे खेत…खेतों के साइड में से नहर से जुड़ी हुई  ठंडे  पानी की नाली  सी चला करती थी, उस ठंडे पानी में हमें पैर डालकर मस्ती करने में बहुत मज़ा आया करता था। उस पानी से भरी हुई नहर से कनेक्टेड जो नाली होती है, उसका एक खास नाम होता है, जो मेरे जहन में न आ रहा है। खैर!हम खेतों में और नहर के पानी मे मस्ती किया करते थे, और नानी औरतों के साथ मिलकर मूँग की फली तुड़वाया करती थीं। जब सभी औरतों के मूँग के बड़े-बड़े गट्ठर हो जाया करते थे,तो औरतों का काफिला घर की ओर प्रस्थान करता था। रास्ते में हमें कभी-कभी मोर खेतों में नाचते हुए दिखाई देते थे, जब उन्हें बारिश आने का अंदेशा होता था, मेहो-मेहो करके नाचा करते थे। इसी तरह से खेलते-कूदते अपनी नानी और उन औरतों के साथ हम घर पहुँच जाया करते थे। सारी औरतें अपने गठरियाँ लेकर नीचे बरामदे में बैठ जाया करती थीं, और हमारी नानी मूंग की फलियों के हिस्से कर हिस्सों का एक हिस्सा उन कमेरी औरतों को दे दिया करती थीं। खेतों से लौट कर आने के बाद नानी के गाल सेब की तरह एकदम लाल हो जाया करते थे। एकदम कश्मीरी लगा करती थी,मेरी नानी। हाँ!एक क़िस्सा यह भी था, की जब मेरी नानी गाय या भैंस के नीचे धार काढ़ने बैठा करतीं थीं, तो हम बहन-भाई झट्ट से पहुँच अपना मुहँ आगे कर दिया करते थे, और नानीजी धार सीधे हमारे मुहँ में मार दिया करती थीं, कितना मीठा दूध लगता था, भई वो क्या बतायें, नानी तो टोका भी करतीं थीं, कहा करतीं थीं, “दूर हट जाओ रे बालकों, गाय लात न मार दे कहीं”। पर हम मानने वाले थोड़े ही हुआ करते थे, बड़ा मज़ा आता था, नानी को यूँ दूध काढता देखकर, पहले नानी बछड़े को दूध पीने दिया करतीं थीं, जैसे ही बछड़े का थोड़ा सा पेट भर जाया करता, झट्ट से उसे अलग कर बाल्टी में धार काढ़ने लग जाया करतीं थीं, लगभग आधी से ज़्यादा दूध निकाला करतीं थीं, मेरी नानी एक बार में, दो टाइम दूध दिया करती थी, नानी की गाय।इसलिए ही तो नानी यहाँ घी मक्खन की कमी न थी।परिवार में मेरी नानी नाना के अलावा मेरे छोटे मामाजी भी थे, जो कि नानीजी और नानाजी के साथ गाँव में ही रहा करते थे। मेरे छोटे मामाजी भी हमें बहुत लाड़ प्यार किया करते थे, हमारी लिए गाँव की पैठ से जो कि गाँव का सब्ज़ी बाज़ार होता है, वहाँ से अक्सर हमारे लिए बड़े -बड़े तरबूज और आम लाया करते थे। एक बार तो मामाजी हमारे लिए अपनी लूँगी मैं बाँधकर चिड़वे ही लेते चले आये थे। छोटे मामाजी हम बच्चों से बहुत लाड़ किया करते थे, गर्मियों की छुट्टीयों में हमारे साथ-साथ कभी-कभी पूरे परिवार के बहन-भाई भी इटट्ठे हो जाया करते थे,हम सब मिलकर खूब मस्ती किया करते थे। इतना ऊधम मचाया करते थे, कि सारा का सारा घर सिर पर उठा लिया करते थे। नानीजी को तो कभी-कभी हमारी शैतानी पर इतना गुस्सा आता था,कि चूल्हे में से लकड़ी निकालकर हमारे पीछे-पीछे भागा करती थीं। उनका चेहरा गुस्से में एकदम लाल टमाटर जैसा हो जाया करता था, फिर थोड़ी सी देर में ही गुस्सा शान्त हो  जाया करता, तो हमें देखकर हँस दिया करतीं थीं। उनके चेहरे  की  झुर्रियों मैं से मुस्कुराहट उनकी सुन्दरता में चार चाँद लगा दिया करती थी। नानी की मुस्कुराहट  हमारे लिए ढ़ेर सारे आशीर्वाद बखेरा करती थी, अपार प्रेम और ममता छुपी होती थी, मेरी नानी की मुस्कुराहट और गुस्से में हमारे लिए। मेरे माता-पिता की जो मातृभाषा रही है, वो बृजभाषा है, मथुरा और आसपास के इलाकों में बृजभाषा ही बोली जाती है। हम हमारे घर में केवल हिंदी या फ़िर अंग्रेज़ी भाषा का ही प्रयोग करते आये हैं, मेरे माँ -पिताजी ने कभी घर पर बृजभाषा नहीं बोली, पर मेरे नानाजी और नानीजी व दादाजी के यहाँ बृजभाषा ही बोली जाती थी। इसलिए हमारी नानी का  हमसे पूरी तरह संपर्क बृजभाषा में ही हुआ करता था, समझ तो पूरी तरह से लिया करते थे, पर  यह भाषा हमें आज तक ठीक प्रकार से बोलनी नहीं आती है, ठीक प्रकार  तो क्या, हम तो टूटी -फूटी भी नही बोल पाते।
‌खैर!जब हम सारे बहन-भाई  गाँव  में इकट्ठा हुआ करते थे, मौसी के बच्चे, हमारे चाचाजी के बच्चे सारे हमारी नानी के घर गर्मियों में जमा हो जाया करते थे… सबका  इकट्ठा होना होता था, की हमारे छोटे मामाजी घुटने पर लूँगी बाँध और पीतल की बड़ी सी बाल्टी में  सभी बच्चों के लिए ढ़ेर सारा खूब मीठा और ठंडा रूहअफजा बनाया करते थे, हम सब लाइन से दोपहरी में ख़ड़े हो जाया करते और मामाजी एक-एक करके सबके गिलास भरते चलते थे। सच!आज इतने बड़े हो गए हैं, पर मामाजी जैसा रूहअफजा फ़िर कभी पीने को न मिला है। बाल्टी में रूहअफजा घोलते वक्त वो उसमें अपने प्यार भरी चीनी भी घोला करते थे, हमारे लिए । इसलिए शायद हमें उनके हाथ का बना हुआ वो शरबत लाजवाब लगा करता था।
‌सारे दिन खूब ऊधम मचा जब हम रात को थक जाया करते थे, तो अपनी नानी से लिपट जाया करते थे, उनसे लिपट कर कहानी सुनाने की ज़िद्द करने लग जाया करते, हालाँकि सारे दिन का काम कर हमारे लिए भाग-दौड़ कर नानी बेहद थक जाया करती थी, पर उन्होंने हमें थके होने के बावजूद कहानी सुनाने से कभी इनकार किया था। कोई भी एक विषय लेकर उसे खूब लम्बा कर हमारे लिए बहुत ही सुन्दर और आकर्षित करने वाली कहानी तैयार कर दिया करती थी,जिसे सुनते-सुनते हमें मीठी और गहरी नींद आ जाया करती थी। उसी कहानी से लगे सपनों में हम डूब जाया करते थे।
‌हाँ! अपनी नानी के गाँव का एक और मस्त किस्सा याद आ  रहा है, मुझे…जब कभी अड़ोस-पड़ोस में शादी ब्याह हुआ करता ,तो नाइन हमारे घर बुलावा देने आया करती थी। जो कुछ इस तरह का होता था..ज़ोर से नीचे ख़ड़े होकर आवाज़ लगाया करती,”रात को गीतों में, फलाने के घर आना है, न्योता है!!”। बस!फिर रात होते ही लगभग नो बजे जब सारा गाँव सो जाया करता तो हम अपनी नानी के साथ गीतों में जाया करते थे, केवल महिलाएँ ही हुआ करती थी, गीतों में। शहरों के तरह  म्यूजिक न होता था,ब्याह वाले घर की औरतें ही ढ़ोलक बजा ज़ोर-शोर से नाच गाना किया करती थीं। हम भी अपनी नानी के साथ ताली बजा खूब एन्जॉय किया करते थे। गीतों का प्रोग्राम ख़त्म होने के बाद हमें कटोरी में बताशे मिला करते,शादी वाले घर से, जिन्हें हम कटोरी में लिए अपनी नानी के साथ लगभग बारह बजे घर लौट आया करते थे। सारे गाँव में  एकदम  चुप्पी छाई होती थी, क्योंकि सोवा जो पड़ गया होता था। हम भी चुप-चाप अपने पलँग पर ऊपर आकर सो जाया करते थे। हमारी नानी परिवार के साथ-साथ हमें पूरे गाँव का प्यार मिला था, गाँव में माँ के खानदान के बहुत घर थे, सभी का ढ़ेर सारा प्यार मिलता था, हमें। नानी के यहाँ सारे गाँव में हमारे नाना,मामा और मौसी हुआ करते थे, बहुत प्यार और अपनापन था, इन रिश्तों में, जो हमें आज तो देखने को भी न मिलता है। आज तो  अड़ोस-पड़ोस और समाज में बेहद बनावट और नकलीपन आ गया है, जिसे देखिए मुखोटा पहने फिर रहा है। उन दिनों tv पर रामायण सीरियल आया करता था, संडे को…जो कि घर-घर , गाँव-गाँव में काफ़ी फेमस हो रहा था, जब रामायण सीरियल tv पर शुरू हुआ करता था,हमें अच्छी तरह से याद है, गली मोहल्ले सब खाली ही जाया करते थे, और टेलीविज़न सेटों के आगे लोग बैठ जाया करते थे। उन दिनों गाँव में हर घर में tv न हुआ करती थी, बस एक आध घर ही हुआ करता था, जहाँ आपको ब्लैक एंड वाइट tv देखने को मिलता था। हमारी नानी के यहाँ भी उस वक्त tv नहीं था,पर मुझे अच्छी तरह से याद है,कि हमारे खानदान यानी के माँ के खानदान के ही हमारे एक मामाजी के यहाँ ब्लैक एंड वाइट tv था, ज़मींदार लोग थे भई! उन मामाजी के यहाँ बड़ा सा आँगन था, वहीं पर उन्होंने उस ज़माने में छोटा सा ब्लैक एंड वाइट tv रखा हुआ था, लगभग सारा गाँव रामायण वाले दिन उनके आँगन में इकट्ठा हो जाया करता था, हम भी अपनी नानी के साथ तैयार होकर उन्हीं के यहाँ रामायण सीरियल देखने जाया करते थे। सच!यूँ सब के साथ मिलकर रामायण सीरियल देखने में जो हमें आनन्द आता था, वो आज तक tv देखने में न आया है। उस भीड़ में सभी हमारी नानी और मामियाँ हुआ करती थीं, सभी मामा और नाना हुआ करते थे। जो मज़ा और अपनापन हमें नानीजी और मामीजी संबोधित करने में आता था वो आज आंटी अंकल कहने में कहाँ!  उस संबोधन में रिश्तों और अपनेपन की मिठास हुआ करती थी। आज यही मिठास फीकी पड़ती जा रही है, और समाज में बनावटी पन आ गया है।
‌रामायण सीरियल खत्म होने के बाद हमारी नानीजी वहीं पर थोड़ी देर बैठ कर बतिया लिया करती थीं, और हम उन मामाजी के यहाँ भी खेल-कूद कर लिया करते थे, फिर अपनी नानी के साथ खेलते कूदते वापिस आ जाया करते थे।
‌उन दिनों गाँव में हमें याद है, कि बार्टर सिस्टम चला करता था, इस सिस्टम का तो भई हमने जी करके फायदा उठाया था, कटोरे में गेहूँ ले जाया करते और बदले में तरबूज के खूब मज़े लिया करते थे। अरे! हाँ! ठंडी मीठी नारियल वाली कुल्फी लिए साइकिल वाले मामाजी भी आया करते थे, उनसे भी हमनें गेहूँ के बदले खूब पेट भर कुल्फ़ी खायीं है। देखा! साइकिल वाले मामाजी हुआ करते थे, उन दिनों आजकल की तरह कुल्फी वाला भइया नहीं, कुल्फी वाले मामाजी से भी एक अजीब लेकिन प्यारा रिश्ता हुआ करता था, तभी तो कुल्फ़ी इतनी मीठी और स्वादिष्ट हुआ करती थी। हमारे घर के बाहर एक बड़ा और घना सा नीम का पेड़ था, पेड़ के नीचे नानाजी ने चबूतरा बनवा रखा था, बस! उसी चबूतरे  के नीचे बैठ गाँव के सभी बुज़ुर्गों की मीटिंग हुआ करती थी, और दोपहरी में पेड़ की ठंडी छाँव में ताश पत्ते भी चला करते थे।
‌गाँव में कूओं की एक अलग सी रौनक हुआ करती थी, हम अपने नानाजी के साथ कुँए पर अक्सर जाया करते थे, नानाजी भैंसों को खोलकर उन्हें कुँए पर पानी पिलाने और निहलाने ले जाया करते थे। खूब मल-मल कर ढ़ेर सारे पानी से नानाजी भैंसों को निहलाया करते और उन्हें बाल्टी भर-भर कर पानी पिलाया करते थे। हम हैरान होकर कुँए पर अपने नानाजी से पूछा करते थे, “अरे! नानाजी ये भैंस इतनी सारी बाल्टी पानी एकसाथ पी जाती है”। हमारी इस बात पर बहुत ज़ोर से हँस कर कह दिया करते थे,”क्या करें बड़ा पेट है, बालकों इसका”। कुँए पर मामी और नानियों का रौनक मेला लगा रहता था, पीने का मीठा पानी मटकों में यहीं से ही जाता था। हमारे नानी के यहाँ से सुबह ही धीमर की, यानी के पानी भरने वाली सुबह ही आ जाया करती थी, और रात तक का पानी भरकर रख जाती, बदले में हमारी नानी उसे रोटी और कपड़ा दे दिया करतीं थीं। मटके के पानी का स्वाद बहुत ही अच्छा हुआ करता था, ठंडक पड़ जाया करती थी, कलेजे में पीते ही, और प्यास भी एकदम भुज जाया करती थी। सच!आज के फ्रिज तो लगते कहाँ हैं, उन मिट्टी के मटकों के आगे।
‌युहीं नानी के गाँव में मस्ती करते ,खेलते-कूदते हमारी गर्मियों की छुट्टियाँ ख़त्म हो जाया करती थीं, और माँ बडे भाई  साहब को हमें लेने गाँव भेज दिया करती थीं। हमारा वापिस आने का बिल्कुल मन न होता था, पर करें क्या नानी घर रहकर काम तो चल न सकता था , हमारा पढ़ना लिखना भी तो था। बस! भईया संग बस में बैठ वापिस दिल्ली आ जाया करते थे। विदाई में हमारे नानाजी, नानीजी मामाजी से मँगवा बहुत ही सुन्दर कपडे दिया करते थे हमें। वापिस आ खुश होकर टेलर से सिल्वा कर हम बहन-भाई गाँव से लाए हुए कपड़े  पहना करते थे।
‌वक्त के साथ नानी के परिवार का फोटो फ्रेम कहीं खो गया, सिर्फ़ उनकी यादें ही बाकी रह गईं हमारे साथ। माना हमारी नानी और नानाजी का फोटो फ्रेम उस गाँव से वक्त के साथ कहीं खो कर रह गया है, पर नानीजी, नानाजी और उनसे जुड़ी वो सारी यादें हमारे दिल के फोटो फ्रेम में कैद होकर रह गईं हैं। नानीजी, नानाजी और गाँव की यादों की बड़ी सी तस्वीर हमारे दिल में इस तरह से फिट ही गयी है, जिसका खराब होना,कहीं खोना या निकाल पाना असंभव है। ये यादें अमिट हैं, इन यादों की गहराईयों को कोई भी वक्त की आँधी फीका न कर सकेगी। मैं कभी न भूलूँगी अपने ननिहाल में बिताए हुए अनमोल पल, वो नानी की बातें, और वो गाँव के नहर  बम्बों में कूद-कूद कर नहाना।
सच!भुलाए नहीं भूल सकती मैं वो पल, वो नानी की बातों में परियों का डेरा वो छोटी सी बातों की लम्बी कहानी,वो कागज़ की कश्ती वो बारिश का पानी।