भोर का तारा !!

युग पुरुषों के पूर्वापर की चर्चा !

उपन्यास अंश :-

“ये है , कौन  …?” हर मंच से विरोधियों की ललकारें आ रही थीं।  “ये है , क्या   …? इस की जात क्या है , जी ? पूछो तो   ..इस से कि  …ये क्वाँरा है  ….या कि शादी-शुदा है  …? कहाँ है  …इस की पत्नी   …? है   …कोई   …इस का   …?” बेतुके-से प्रश्न हवा पर उछलने लगे थे।

घात-प्रतिघात का युद्ध आरम्भ हो चुका था।  मुझ पर सीधे प्रहार होने लगे थे।  अब प्रैस मुझ से इन सवालों के उत्तर मांगने लगा था।

जटिल था – यह मुकाबला ! किस-किस को क्या-क्या बताता ?

“अरे, ये तो चायवाला है   …!” पुरजोर एक हमला आया था।  सीधी चोट मेरे मांथे पर हुई थी। “स्टेशन पर चाय बेचता था।” एलान हुआ था।  “ये देखो   …! फोटोग्राफ    ….!!” तथ्य थे – जो फिज़ा पर फैल गए थे।

विरोधियों के पास प्रमाण थे।  विरोधियों के पास मेरे – तेली होने ,चायवाला होने  …और  ….शादी-शुदा होने के ठोस प्रमाण थे।  एक अलग से जंग मेरे खिलाफ खड़ी हो गई थी।

“क्या , जी !” लोग कहते सुने गए थे।  “एक चायवाला – इस महान देश का   …प्रधान मंत्री बनेगा  …? भारत का प्रधान मंत्री    …एक चायवाला   …? राम,राम !! हरे, राम   ….घोर कलयुग नहीं, तो और क्या  …?”

“देश को शरम आएगी …जब चायवाला  ….”

“गाड़ी प्लेट -फार्म पर लग गई है , ब्बे ! जल्दी , भाग  …!!” मैं अब आवाज़ें सुन रहा था।  फिर दूसरे ही पल मैं एक हाथ में गरमा-गरम चाय की केतली और दूसरे हाथ में कुल्हड़ों से भरी बाल्टी संभाले प्लेट -फॉर्म नंबर एक की और दौड़ लगा रहा था।  फूली साँस को संभाले मैंने फिर एक ही साँस में पुकारा था , “चाय-गरम !” मेरी आवाज पैनी थी …धार-दार थी ! भीड़ को चीरती ही चली जाती थी !! “गरमा -गरम, चाय !” मैं लम्बे-लम्बे कदमों से प्लेट -फार्म पर चल रहा था।

यह मेरा ही इज़ाद किया फार्मूला था।

चाय की दूकान एक नुक्कड़ पर छोटे से अंधे सुराख में थी।  यही जगह मिली थी, हमें ! यह भी किसी की मेहरबानी की बदौलत – हुआ कमाल था ! शुरू-शुरू में चाय बनाकर हम बैठे रहते  ….पर कोई पीने वाला आता ही नहीं ! उन दिनों चाय का चलन नया था।  कुछ ही लोग चाय के शौक़ीन थे।  जो नहीं थे – उन्हें आवाज़ दे कर आमंत्रित करना होता था।

“कित्ते  ..की चाय   …?” नया ग्राहक सब से पहले कीमत पूछता था।

“एक आना, साब !” उत्तर आता।

“तू  …ही   .., पीले  ….!” उल्हाना मारता ग्राहक चला जाता।

तब  , हाँ,हाँ ! मुझे याद है कि मेरी आँखों में आंसू उग आते थे।  पूरे कुनवे का खर्च अब चाय की कमाई पर ही तो चल रहा था।  एक आने एक कुल्हड़ चाय की कीमत रखने में   …मुनाफा तो दुगना था  …पर चाय बिके तव न  …?

“भूखे मर जांयेंगे, ..ब्बे !” अंतिम वचन थे – जो मुझे सुनाई दिए थे।

“नहीं ! मरना नहीं है ! जीना है  …, हारना नहीं , जीतना है।  मैं करता हूँ  …जुगाड़ !” बीड़ा उठाया था, मैंने।

और तब एक केतली और एक बाल्टी – दो हथियारों की तरह इज़ाद कर मैंने प्लेट -फार्म पर आती-जाती गाड़ियों में चाय बेचने का जिम्मां ओटा था।  “चाय,साव   ….?” मैं लपक कर उस यात्री को पूछता जो मुझे एक खरीद दार के रूप में जंच जाता। “दे एक ,चाय !” सीधा उत्तर आता।  मैं चाय कुल्हड़ में इस अदा से डालता कि ग्राहक मुग्ध हो जाता।  जब तक वह गरमा-गरम चाय के कुल्हड़ से कुश्ती करता – मैं तब तक दूसरे ग्राहक को पकड़ लेता – फिर तीसरे को  …और चौथे को   ….! “किता पैसा   …?” पहला पूछता। “मात्र एक आना, साव !” मैं विनीत भाव से कहता।

देखते-देखते चाय की केतली खाली हो जाती ! मैं भागता।  फिर चाय ले कर लौटता। पर कभी-कभी  …गाडी छूट जाती  ….तो कभी-कभी  …प्लेट -फार्म ही खाली हो जाता।  फिर भी  …मैं बची चाय को   …अपने दोस्त कुलिओं को पिला ही देता ! उन का तो उधार भी चलता था।

थोड़े ही दिनों में धन की वर्षा होने लगी थी।

तेल के व्यापार से चाय का व्यापार ज्यादा मुनाफे का सिद्ध हुआ था।

तेल के व्यापार में जित्ते झंझट थे – उतने चाय के धंधे में न थे ! फिर सीधा ही कैश हाथ में आ जाता था।  रिस्क एक पैसे की भी नहीं थी।  लेबर कुल मिला कर मेरी टांगो का ही था  ….जो मैं जान लगा कर पूरा कर लेता था।

बाबू जी मेरे हुनर पर रींझ गए थे !

“अब तेरा गौना भी कर डालते है !” बाबू जी हंस रहे थे। “कब तक रहेगी, वहां  …?” उन का कहना था।  “बहू तो हमारी है !” उन्होंने घोषणा की थी।

“लेकिन  …, लेकिन  …., बाबू  जी …” मैं कुछ कहना चाहता था।

“अब तो तू कमा रहा है    …! अब तो अपने पैरों पर खड़ा है   …?” वो हंस रहे थे।

लेकिन मैं डर गया था !!

——-क्रमशः –

श्रेष्ट साहित्य के लिए – मेजर कृपाल वर्मा साहित्य !!

 

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