
मुझे कुछ आता-जाता नहीं !
भाई, मुझे तो कुछ आता-जाता नहीं ! और न ही अपनी अकल काम करती है ! समाज की व्यवस्था की इतनी बुरी दशा शायद …चमड़े के सिक्के चलानेवाले शहंशाह के ज़माने में भी न रही हो। कौन जाने – क्या हो गया है !
देखो, अपने इन नौरंगी लाल को ! पढ़ाई-लिखाई मैं अव्वल …लेकिन अभी तक एक नौकरी हासिल नहीं कर पाए हैं। नहीं, जी ! न कोशिश करने में कमी की है …और न ही शिफारिश में। कौन सा इम्तहान या कि इंटरव्यू नहीं दिया। क्या करें …?
“नहीं , अंकल ! अब की बार तो मैंने शिफारिश लगाने की भी कोशिश की थी !” नौरंगी लाल की ही सुनो। “मैं तो अपने बचपन के मित्र सुमित्र के पास चला गया था. पहुंचने के लिए मुझे खूब पापड बेलने पड़े। पर मैं था कि उस के सामने जा खड़ा हुआ था ! वह भी मुझे आया देख हैरान रह गया था. ”
“मुबारक हो, मिनिस्टर साहब !” मैंने खूब हंस कर बधाई दी थी. था तो मैं खाली हाथ पर करता भी क्या ? जेब ही खाली थी तो ले भी क्या जाता ? “इत्ती कच्ची उम्र में मिनिस्टर बन जाना – किसी करिश्मा से कम नहीं है !” मैंने मित्र की प्रशंशा की थी.
“बैठ,बैठ !” सुमित्र तनिक सहज हुआ था. वह हंसा भी था. उस ने मेरे टूटे-फूटे हुलिए को कई बार अंखिया कर देखा था. “बुरे हाल लगता है …?” वह बोला था. “पानी पी !” उस ने घंटी बजाई थी. पानी हाज़िर हुआ था – तो अलादीन के चिराग का सा किस्सा जैसा लगा था! “अब बता ….?” वह तनिक मेरे पास खिसक आया था.
“ये – नौकरी निकली है ! मैंने अप्लाई भी कर दिया है। पेपर भी दे दिया है.तुम …नहीं,नहीं ‘आप ‘ तो जानते हैं कि …पर ….”
“नंबर आएगा नहीं !” सुमित्र ने सपाट कहा था. “करें क्या , भाई ? लोगों की भीड़ ….शिफारिश ….प्रेसर …और …पैसा …” वह रुका था. हंसा भी था. “सब चलता है, यार ! ” उस ने सहज भाव से कहा था. “राजनीति है !” उस ने मेरी आँखों में घूरा था. “सच मानो , नौरंगी लाल …मुझे भी यहाँ तक पहुंचने में बेहद कष्ट हुआ है. तुम तो जानते हो – अपुन पढ़ाई में ज़ीरो …और किर्किट के हीरो थे ! लेकिन किर्किट में भी कहाँ बने – तेंदुलकर …? फिर फिल्मों में भी जोर आज़माया। पापा तो ‘मुग़ले आज़म ‘ जैसी फिल्म का निर्माण करने की सोच बैठे थे. और मैं उस में ‘शहज़ादे सलीम ‘ की भूमिका में आनेवाला था. पर …किस्मत …’फ्लॉप ‘ ! टनों मैं पैसा गया …!! अब ….? नौंमी फैल के लिए …पापा भी क्या कैरियर चुनते …? सो, आकर राजनीती में ही ठूंस दिया ! झंडे-डंडे इन्चार्ज बना दिया मुझे ! बूथ कैप्चर करने की चीते जैसी चालाकी सिखाई। लोगों को साथ लेने …उन के साथ रहने …और उन से काम लेने का हुनर सिखाया ! और जब वोटिंग हुई तो …पूछ मत, मेरे यार ! क्या-क्या लात-घूंसे नहीं चले …!”
“तुमने तो …बड़ा मार्जिन निकाल कर जीत हासिल की थी …?” नौरंगी लाल ने प्रशंसा की थी. “अखबार मैं तो …यहाँ तक लिखा था कि ….”
“बस,बस ! अखबारवालों की तो बात ही मत पूछ , भाई ! तू होता तो …लड़-झगड़ कर घर भाग गया होता ! मैं तो तुझे जानता हूँ, नौरंगी ! यहाँ तो सब उलट-पुजलट है, मेरे भाई ! यहाँ तक कि इस कुर्सी पर बैठे रहना भी …एक कला है ! ये …जो स्टाफ है , न ! यही एक अजीव समुद्र है ! तैरना नहीं सीखा तो डूबे -ही-डूबे ! कुर्सी उलटना इन्हें आत्ता है, यार ! सच मान ! पापा से भी ज्यादा डरता हूँ, इन से। इन की कलाबाज़ी पर देश चलता है. इन्हें सब आता है. सोच ….? मैं ….! तेरा तो क्लास फेलो हूँ …! हा,हा ,हा …! अरे, मैं वही सुमित्र हूँ जिस में तू घूंसे लगाते-लगाते न थकता था ….और मुझे कुछ आ कर न देता था …! लेकिन, मित्र ! किस्मत का खेल कहो …तुम ….?”
“कुछ करो न , यार , सॉरी …’आप ‘ ” नौरंगी लाल ने विनय की थी. “मेरा कोई है नहीं, …”
“कोशिश करते है ….!” सुमित्र ने हाथ मिला कर मित्र – नौरंगी लाल को विदा किया था.
कृष्ण और सुदामा नहीं थे – ये ! सुमित्र और नौरंगी लाल मॉडर्न मित्र थे !!
सच मानिए मुझे तो कुछ समझ ही नहीं आता …….
———
श्रेष्ट साहित्य के लिए – मेजर कृपाल वर्मा साहित्य !!