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लौटना तो मुझे अकेले ही था ?

alone

महान पुरुषों के पूर्वापर की चर्चा !

भोर का तारा – नरेन्द्र मोदी.

उपन्यास अंश :-

झूठे और बईमान लोगों से लड़ता-जूझता …मेरा मन हार-थक कर …भागा था …और पीर -कोटि पहुँच गया था !!

पीर-कोटि पहुँचने में हमें दो दिन का समय लगा था . पहाड़ों की दुर्गम चढ़ाई चढ़ कर ..हम अपने समूचे साज-सामान के साथ ..यहाँ पहुंचे थे ! लगा था – आसमान और भी पास आ गया था …? हवा और भी निर्मल हो गई थी . चश्मे का पानी तो शीशे-सा दमकता था ! लगा था -भेड़-बकरियां तो अपने इच्छित स्वर्ग में पहुँच गईं थीं . तीन कमरे थे . एक में शाहिद करीम और फातिमा बी का डेरा था …दूसरे को निक्की ने ले लिया था …और तीसरा मेरे और रकीब के हिस्से आ गया था ! खाना चौड़े में पकाना था – यह सब पहले से ही तय था !

पूरा परिवार मेरे दिए योग-दान का कायल था …!

ना जाने क्यों …मैंने सारा -का-सारा काम अपने नाम लिख लिया था …? मैं अब अपनी सारी संचित शक्ति …काम में जोतने पर उतर आया था ! अब मैं भेड़ -बकरियों से ले कर …कुत्तों का और टट्टू -ओन का भी दोस्त था ! मुझे सारे कुत्तों के नाम याद थे …मुझे टट्टू मात्र आवाज़ से ही पहचानते थे …और अब्बा करीम शाहिद …और अम्मा फातिमा बी …मुझे खूब-खूब लाढ लड़ाते थे ! हाँ! निक्की के साथ तो मेरी जंग चलती ही रहती थी ?

“रकीब से भी अच्छी …टिटकारी देते हैं, भैया ….?” निक्की अम्मा को बता रही थी . “सच ! कभी सुन कर देखना …? जमते हैं – गडरिए …! क्या रूप धरा है,भाई ….?”

“नज़र लगाएगी ….?” अम्मा ने निक्की को डाटा था . “तनिक …तंदुरुस्त तो हो गया है ,,,?” उन का कहना था . “अदद …पट्ठा ..लगता है, अब तो ….?” उन की आवाज़ में स्नेह था ….मेरे लिए !

सच था ! मैं भी महसूसता था …कि जब मैं मूं भरकर टिटकारी देता था …तो भेड़-बकरियां एक लहर की तरह …सिमिटी चली आतीं थीं ! सब जांन गईं थीं , मुझे ? और कुत्ते तो मेरे साथ खेल-खेल कर पागल हो जाते थे ! ना जाने क्यों मुझे अपना ये गडरिए का किरदार ..आज भी खूब भाता है …? मुझे याद है कि …मैं …विमुग्ध भाव से खड़ा-खड़ा …भेड -बकरियों को ..उन के चालाक और चपल होठों से ..कोमल हरी घास की पत्तियों को ..चौंट -चौंट कर ..खाते देखता रहता था …! मैं अपनी तो भूख तक भी भूल जाता था …?

पीर कोटि मेरे लिए एक नया स्वर्ग थी !!

बर्फाच्छादित पर्वत श्रेणियां अब हमारे बिलकुल पास ही खड़ी लगतीं थीं ! और इस अधिक ऊंचाई से नीचे के पहाड़ …हमें ,हमारे मातहत जैसे लगते थे …? पेड़-पौधे तो पीछे छूट गए थे …और अब यहाँ घास के विशाल चारागाह ही थे – जो हमें अपनी भेड़ -बकरियों के लिए दरकार थे …? मेरा तन – मन उछला-उछला ..इस हरे कच्च घास के बिछौने पर …भागता फिरता …और मैं न तो थकता …..और न ही हारता …और न ही रुकता-झुकता …और …….

“मुझे भी तो कुछ काम करने दिया करो,भाई जांन ….?” खड़ा-खड़ा रकीब मुझे उल्हाना दे रहा था .

“सब तुम्हारा ही तो है, रकीब ….?” मैं हंस कर कह रहा था . “मैं तो ….यूं ही …..कोई …हूँ ….?” मेरा उत्तर था . “तुम्हारे साथ ….दो पल …का ..ये …आनंद ….?” मैं भावुक था . “ना जाने …किन संस्कारों से मिल रहा है,रकीब ….?” मैंने उसे अपनी बांहों में भर लिया था . “और तो और ….ये पाजी कुत्ते भी ….कितने हिल-मिल गए हैं …?”

“सब प्यार करते हैं,तुम्हें …….!” रकीब बताने लगा था . “अब्बा तो अपना दूसरा बेटा ही मान बैठे हैं ….?”

“वो …तो …मैं ..हूँ …!!” मैंने सगर्व कहा था .

“हवा हो ….? मैं .. जानता हूँ,भाई जान …! न जाने …कब …तक …?” वह भी अब मेरी ही तरह भावुक हो आया था . “लेकिन …जब जाओगे ….तो पूछूंगा …..आए क्यों थे ….?”

“वायदा याद है,तुझे …?” मैंने अचानक विषयान्तर किया था .

“याद है !” रकीब ने हामी भरी थी . “बस ! मौसम साफ़ होने वाला है …! मैंने अब्बा को बता दिया है कि …हम दोनों …सैर पर निकलेंगे …” हंस रहा था , रकीब .

और फिर एक दिन अचानक मेरी टक्कर अब्बा से भी हो ही गई !!

अब्बा – एक अच्छे-खासे …लम्बे-चौड़े …पुरुष थे और बहुत ही आकर्षक लगते थे ! अपनी जवानी में ये आदमी ज़रूर ही घोड़े-पछाड़ रहा होगा …मैंने सोचा था . बड़ा ही उदार और मानवीय स्वभाव था -उन का ! सब के प्यारे थे – अब्बा …!!

“नरिंदर …!!” उन्होंने मुझे बड़े ही प्रेम से पुकारा था . “भर ,,,गया …मन …?” उन्होंने पूछा था .

मैं चुप था . मैं न जानता था कि …वो क्या कहना चाहते थे ….? लेकिन अभी तक मैं वाद नगर लौटने के लिए तैयार न था ?

“मेरा भी मोह बढ़ रहा है,नरिंदर !” उन की आवाज़ में एक लगाव था . “मैं तो तुम्हें पा कर निहाल हो गया ….? उस दिन ….जब मैंने तुम्हें बेहोश पड़े पाया था …तो मन बिदका था ? ‘होगी कोई …आय-बलाय ?’ मेरा भीतर बोला था . ‘बच कर निकलो’ मुझे मेरे ही आदेश मिले थे . न जाने फिर क्या हुआ था कि …मैंने झपट कर तुम्हें …उठा लिया था ….और कन्धों पर लाद कर …चढ़ाई चढ़ आया था !” वह तनिक ठहरे थे .”मुझे यों ..आया देख ..फातिमा कूद कर खड़ी ही गई थी !”

“कौन मुशीबत उठा लाए …?” उस ने मुझे डपट दिया था . “काले-कलां …कुछ हो गया …इसे तो…हम जेल जाएंगे ….?”

“कोई कहीं नहीं जाएगा ….!” मैंने इसे समझाया था . “इसे बचा लो,फातिमा …..? किसी का लाल है ….कलेजे का टुकड़ा है …? तुम्हारा भी तो रकीब है ……”

“और …अम्मीं ने मुझे बचा लिया था …..दूसरा जीवन दे दिया था ….मुझे ….?” मैंने उन की बात पूरी की थी

“हाँ,बेटे …!” अब्बा ने स्वीकार था . “अब तुम …स्वस्थ हो ! सेहत भी …..माशा अल्ला ….” रुके थे , वो. “लौट जाओ …..अपने ..बतन ….बेटे ….?” उन का बड़ा ही विनम्र आग्रह था . “कोई आस लगाए बैठा होगा ….कि …तुम …..”

अचानक ही मेरी आँखों के सामने जसोदा का आग्रही चेहरा आ कर ठहर गया था …..!!

आरज़ू थी ! लौट आने का निमंत्रण भी था ! और अनेकानेक …उल्हाने-ताने भी थे ….? मेरे ऊपर लगे प्रश्नचिन्ह भी थे ….जिन का मुझे आज नहीं तो कल …उत्तर तो देना ही था ….?

“यों न लौटूंगा, अब्बा ….?” मैंने उन्हें अपनी जिद बताई थी . “वहां …जाऊंगा ….!” मैंने सामने सीना ताने खड़ी …पर्वत श्रेणियों की ओर ..इशारा किया था . “उन्हें …छू-छू कर …देखूँगा …! उन से दो-दो बातें करूंगा ….! उन से पता पूछूंगा ….कि …वो मेरे परमपिता …तपस्वी ….शिव ..कौन सी कन्दरा में ….छुपे हैं ….? और फिर मैं …उन के चरण स्पर्श …करूंगा …उन का आशीर्वाद ..लूँगा …और तब …..”

“परमात्मा के पास हम क्यों जाएं ….?” अब अम्मान बता रहीं थीं . “उन्हें स्वयं …हमारे पास आने दें ….?” उन्होंने मुझे दुलार से देखा था . “मेरे तो हमेशा पास रहते हैं,पुत्र !” उन का कहना था . “फिर भी ….तू चला जाना ….? रकीब ले जाएगा . घूम-फिर कर …लौट जाना ,बेटे – अपने देश ….!!” उन का भी यही इशारा था .

और ….और एक थी – निक्की ….? ये मेरी जांन की प्यासी थी …..????

“मैं …तो साथ चलूंगी, भाई जान ….?” उस की भी जिद थी . “भैया ! सलीमा देखना है …? तुम मुझे …..”

“तेरी शादी कराऊंगा – शहर में ……?” मैंने उसे चिढाया था .

“न…न…! मैं किसी …शहर-बहर में न रहूंगी …. ,भाई जान …?” उस ने दो टूक उत्तर दिया था . “पहाड़ की पुत्री ….पहाड़ की …धरोहर होती है …?” उस ने मुझे …वेदान्त-सा कुछ कह सुनाया था .

लौटना तो मुझे अकेले ही था ….?????????

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श्रेष्ठ साहित्य के लिए – मेजर कृपाल वर्मा साहित्य !!

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