“गुरुंग के साथ है तेरा मुकाबला, कृपाल!” माकन – मेरे मित्र ने मुझे सूचना दी थी।
पलांश में मैंने माकन के चेहरे पर बिखरे सारे संदेश पढ़ लिए थे।
गुरुंग एक अद्वितीय बॉक्सर था। गुरुंग गोरखा था और बेरहमी से पीटता था। जहां मेरी हार निश्चित थी वहां बॉक्सिंग रिंग में मेरी दुर्गति भी होनी थी। मेरी हार पर सभी ने दिल खोल कर हंसना था। और वो सब हो जाना था – जिसका मुझे डर था।
डर ही तो था – जिसने मुझे पल-छिन में सुखा दिया था। मेरे पेट का पानी हलक में आ कर अटक गया था। दिमाग सुन्न पड़ गया था। आंखें निस्तेज हो गईं थीं। और मैं समझ ही न पा रहा था कि अब होना जाना क्या था?
कहता है तो समझौता करा दूं माकन ने मेरी स्थिति भांप ली थी तो पूछा था।
हम दोनों कॉलेज़ से ही साथ-साथ् चले आ रहे थे। माकन अब पानीपत कंपनी में था और मैं कोहिमा कंपनी में। गुरुंग उसी की कंपनी का जेंटलमेन कैडिट था और माकन उसे खूब जानता था।
समझौते के प्रश्न को मेरे सामने लिए खड़ा माकन मुझे मित्र से ज्यादा एक इतिहास लगा था। मुझे अभी-अभी गिरधारी के साथ किया समझौता याद हो आया था जब उसने अचानक मुझमें एक सही पंच मारा था और मैं रस्से पर जा झूला था। दुनिया से लेकर आसमान तक घूम गया था मेरी आंखों के सामने और जब होश आया था तो गिरधारी रिंग छोड़कर भाग गया था।
गिरधारी की तरह समझौते कर के ही गीदड़ शेर को पछाड़ देता है – मैं जान गया था। और अब मैं यह भी जानता था कि समझौते की आड़ में घात-प्रतिघात, छल-कपट, और विश्वासघात से लेकर षड्यंत्र तक चलते हैं और आमतौर पर जीती बाजी हार जाना समझौते में स्वाभाविक होता है!
“ना! समझौता नहीं!” मैं साफ नाट गया था।
“फिर ..?”
“फिर क्या? उठा लाना मुझे रिंग से!” मैंने अंतिम सत्य को कह सुनाया था।
और मैं अब तय कर चुका था कि मैं गुरुंग से लड़ूंगा!
हार जीत तो होती है और लड़ते-लड़ते मैदान में खेत रह जाते हैं बहादुर तो कौन बुरा मानता है! लेकिन कायरतापूर्ण प्रदर्शन के लिए तो इतिहास भी स्थान नहीं बांटता! और मैं यह भी जानता था कि दर्शक दीर्घा में बैठे मेरे शिक्षकों ने मुझे आंकना है .. मेरी बहादुरी, मेरा साहस, मेरी चतुराई और .. और हां मेरा डरपोक होने तक का कलंक मेरे डोजर में दर्ज कर देना है!
इंडियन मिलिट्री एकेडिमि देहरादून देश का सर्वोच्च संस्थान है जहां सेना नायकों के चरित्र गढ़े जाते हैं और उन्हें वो सामरिक शिक्षा दी जाती है जो किसी भी श्रेष्ठ सेना नायक के लिए वांछित है! बॉक्सिंग प्रतियोगिता भी इसी शिक्षा का एक महत्वपूर्ण अंग है। यहां दो प्रतिद्वंदी आमने सामने खड़े होते हैं और नियमानुसार लड़ते हैं .. हारते जीतते हैं और बेजोड़ बहादुरी का प्रदर्शन करते हैं!
और दर्शक दीर्घा में बैठे लोग खूब-खूब तालियां बजाते हैं और पागलों की तरह मारने-मरने के लिए उत्साहित करते हैं तथा हार-जीत में शामिल हुए अपने-अपने खिलाड़ी को मुक्के मारते देख उछल-उछल पड़ते हैं! ये हिंसा नहीं है मित्रों और न ये बेरहमी या दुश्मनी जैसा कुछ है। यह एक पवित्र खेल है – जहां आदमी का अंदर बाहर सब दिखाई दे जाता है! और बॉक्सिंग के खेल देखने की भी एक अलग ही आनंदानुभूति होती है!
लेकिन अब मुझे तो देखना नहीं लड़ना था! और लड़ने का आनंद एक अलग ही अनुभव होता है जिसे पसीने बहा कर और खूब-खूब मार खाकर ही हासिल किया जा सकता है!
चूंकि गुरुंग के साथ मेरी भिड़ंत हो रही थी इस खबर पर बहुत सारे लोग बहुत खुश थे।
“गुरुंग के साथ लड़ेगा ना?” खन्ना की खुशी का ठिकाना ना था। “चल! अच्छा है तेरे भी होश ठिकाने लग जाएंगे!” उसने प्रसन्नता जाहिर की थी।
जो भी मिलता वो ही मुझे गुरुंग से होती हार का अहसास कराता और डराता कि गुरुंग बहुत बहादुर है, लड़ाका है और मुझे तो बिल्ली की तरह अपने पंजों में भरेगा और सबके सामने रिंग में फाड़ डालेगा!
गुरुंग गोरखा था!
और मैं सच में ही बहुत-बहुत डर गया था! अब मेरी समझ में न आ रहा था कि मैं अपनी सहायता के लिए किसे पुकारूं? ईश्वर को मैंने याद तो किया था, पुकारा भी था और मनाया भी था लेकिन मैं जानता तो था कि मुकाबला तो मैंने ही लड़ना था और वो भी गुरुंग के साथ!
सच मानिए कि मुझ मुसीबत जदा के पास उन पलों में खिलंदड़ कृपाल न जाने कहां से लौट आया था!
“डरने से तो मरना ही भला है मित्र!” उसने आते ही कहा था। “मौत से हाथ मिलाने का तो मजा ही अलग होता है, भाई!” वह हंस रहा था। “डरो मत! भिड़ जाओ! जी जान लगा कर भिड़ जाओ इस गुरुंग से! ये भी तो हाड़-मास का ही बना है? तुम जैसा ही तो है! और फिर हार-जीत तो ऊपर वाले का खेल है! तुम भी तो ..”
“सब तो कहते हैं कि ..”
“और मैं कहता हूं – नॉक हिम आउट!” उसने मुझे एक नारा थमा दिया था, एक उद्देश्य पकड़ा दिया था और एक अंतिम परिणाम तय कर दिया था। “यू कैन डू इट कृपाल!” उसने मुझे आश्वस्त करके छोड़ दिया था।
मैं कुल बाईस-तैइस साल का तो था ही! और जब मैं पहली बार एकेडिमि में प्रशिक्षण लेने आया था तो सच मानिए कि मुझे देहरादून कोई अलग से बसा स्वर्ग लगा था। अंधेरा होते ही जब मैंने मसूरी को जल उठी दीप शिखाओं के मध्य से देखा था तो मेरे हर्ष का ठिकाना न रहा था। फिर एकेडिमि के पीछे बहती टांस नदी, सामने छाती ताने खड़े ऊंचे-ऊंचे पर्वत, भद्र राज, टेबुल टॉप और फिर उन पर लकीरों सी खिंची हरे-भरे वृक्षों की श्रृंखलाओं ने तो मेरा मन मोह लिया था। तब मैंने इसे दूसरा स्वर्ग मान लिया था!
लेकिन आज .. जब मुझे गुरुंग से मुकाबला मारना था और रिंग में अपनी बहादुरी और साहस के कारनामे दिखाने थे तो ..
और वह शाम आ गई थी! बॉक्सिंग रिंग तैयार थी। रिंग का लाल और हरा कॉरनर मुझे देख कर हंस गया था। अपार दर्शकों की भीड़ मुझे डराने लगी थी। मेरे शिक्षक भी आने लगे थे। सबसे पहले मुझे कैप्टन शशिकांत ने पकड़ा था। वो गुरुंग के शिक्षक थे। उन्हें गुरुंग पर बड़ा नाज था।
“सो .. वर्मा यू आर फाईटिंग विद गुरुंग ..?” उन्होंने कटीली मुस्कान के साथ मुझे पूछा था।
मैं उनके प्रश्न का अर्थ समझ रहा था। मैं कहना तो चाहता था कि आप अपने अर्जुन को अजेय न समझें, लेकिन चुप ही बना रहा था। और फिर गुरुंग भी हरे गाउन में लिपटा मेरे सामने आ गया था। वह बहुत प्रसन्न था। मैं उससे हाथ मिला कर अपने लाल वाले कमरे में तैयार होने चला गया था।
“ग्रीन कॉरनर जी सी गुरुंग .. रेड कॉरनर जी सी वर्मा!” रेफरी ने पुकारा था तो हम दोनों उनके पास चले गये थे। “बॉक्स ..!” उन्होंने आदेश दिया था और हम लड़ने लगे थे।
गुरुंग ने आते ही तीखे-तीखे पंच छोड़ना आरम्भ कर दिया था।
मैंने पहले जान बचाने की सोची थी और पीछे हट-हट कर गुरुंग के वार बचाता रहा था। गुरुंग बड़े ही स्टाइल और नपे तुले अंदाज में लम्बे-लम्बे पंच फेंक रहा था और दर्शक दीर्घा में बैठे लोग – वक अप गुरुंग और वैलडन गुरुंग के नारे लगा रहे थे। कृपाल का तो कोई नाम लेकर राजी ही न था! मेरे तो अपने भी सांस साधे बैठे थे .. चुप थे ..!
गुरुंग का कद मुझसे छोटा था – यह मैंने लड़ते-लड़ते महसूस किया था। वह मेरे पंच के सामने ठीक टारगेट बनता था जबकि मैं लम्बा था अतः गुरुंग के लिए मारने की मुसीबत था। गुरुंग फिर भी मुझे उछल-उछल कर मार रहा था और दर्शक खूब आनंद ले रहे थे।
“मार न साले को ..?” मेरे खिलंदड़ ने आकर मेरे कान में कहा था।
लेकिन तभी घंटी बज उठी थी। हमारा पहला बाउट समाप्त हो गया था। हम अपने-अपने कॉरनरों में अपने-अपने स्टूलों पर आ बैठे थे। दम ले रहे थे और माकन गीली तौलिया से मेरे पिटे चेहरे को पोंछ रहा था!
“पॉइंट पर हार रहा है!” माकन ने मुझे सूचना दी थी। उसका चेहरा उतरा हुआ था।
मैं कुछ न बोला था। मैं उखड़ी सांस संभाल रहा था। मैं अपने खिलंदड़ के दिये आदेश के बारे सोच रहा था। तभी घंटी बजी थी और हम दोनों मुकाबले में आ डटे थे।
और मुझे, “मार न साले को!” अचानक याद हो आया था।
गुरुंग को तो अब उम्मीद थी कि मैं उम्र भर भागता ही रहूंगा और वो एक विजेता की तरह मेरा पीछा करता रहेगा .. जब तक कि मैं ..
“ध-ड़ा-क्!” अब मैंने अपने राइट पंच से सीधा वार किया था। पंच सीधा गुरुंग के चेहरे पर टिका था और वह घूम कर रिंग के रस्से पर जा झूला था।
एक आश्चर्य जैसा कुछ हुआ था। दर्शक भी एक पल हैरान होकर इस घटना को समझने का प्रयत्न कर रहे थे। चुप्पी थी। गुरुंग संभला था। लौट कर मुकाबले में आया था। अब वह मुझे समझने का प्रयत्न कर रहा था। लेकिन मैं तो अब अपने मूड़ में आ चुका था और मैंने हमला बोल दिया था।
“थाड़! थाड़!” मैंने लैफ्ट हुक चलाया था और गुरुंग की दाहिनी कनपटी पर दे मारा था।
लड़खड़ा गया था गुरुंग। और जैसे ही वह अस्थिर हुआ था मैंने उसे पकड़ लिया था। अब गुरुंग चूहा था और मैं था बिल्ली। वह भागा था लेकिन मैंने उसे पंजे में भर लिया था। रेड कॉरनर में उसे कैद कर मैंने पंच के बाद पंच मारे थे। अब गुरुंग लहू-लुहान था .. विवश था .. थका हुआ था और मेरी पकड़ से आजाद न हो पा रहा था। और मैं था कि दनादन उसे पीटे जा रहा था!
“धाड़!” गुरुंग सीधा रिंग में आ गिरा था।
और मैं अपने रेड कॉरनर में आ खड़ा हुआ था। रेफरी ने दस तक की गिनती की थी फिर मुझे बुलाया था।
“वैल फॉट ग्रीन!” रेफरी ने घोषणा की थी। “रेड इज दी विनर!” उसका पाक साफ निर्णय था।
और अब माकन मुझे कंधों पर बिठा लिए-लिए डोल रहा था। मेरे चर्चे थे .. मेरी जय-जयकार थी!
“आई लव यू रास्कल!” मेरे शिक्षक कैप्टन पवार का चेहरा गुलाबों सा खिला था। “वॉट ए फाइट यार।” वह कह रहे थे।
लोग मुझे मिस्टर नॉक आउट कहने लगे थे!
