गतांक से आगे :-
भाग – ५९
बंबई हवाई अड्डे पर खड़ा-खड़ा चन्दन किसी फालिज गिरे पेड़ की तरह सूख गया था !
उस की समझ में न आ रहा था कि …घर और ऑफिस में लगे ग्यारह टेलीफोनों में से एकभी जबाब नहीं दे रहा था ….? घंटियाँ बजतीं …पर उत्तर न आता …! क्यों ….क्यों …..? क्या हो सकता था …? वह सोच ही न पा रहा था ……
तंग आकर उसने एक गुप्त टेलीफोन नम्बर निकला था. न जाने कब से उसने इस फ़ोन पर बात नहीं की थी. आज वह फ़ोन कर रहा था – पर करता भी क्या …? उसे आशा थी कि बजती फ़ोन की घंटी पर उत्तर अवश्य आएगा !
“हाँ ..! चन्दन ..” सीधा उत्तर आया था.
“वो क्या है कि ….. न घर से न ऑफिस से .. कोई फ़ोन ही नहीं उठा रहा ..” चन्दन ने हिचक-हिचक कर बोला था. शिकायत तो थी – पर जैसे वह किसी गलत आदमी से कर रहा था. क्या करता .. ? “हो… सकता है मै ..”
“मै जानती हूँ !” केतकी ने बिना किसी विलम्ब के कहा था. “वैसे चन्दन .. उठाना तो मुझे भी नहीं चाहिए था, फोन …! लेकिन .. फॉर द…. सेक ऑफ़ .. ओल्ड ..” वह रुकी थी. “आती हूँ ….!” कहकर उसने फ़ोन काट दिया था.
चन्दन अभी भी अफ़सोस में खड़ा खड़ा सोच रहा था कि …. क्या हो सकता था जो ..
और न जाने कहाँ से .. यादें लौट आई थीं ! केतकी आकर उसे जगा रही थी. आग्रह कर रही थी .. आने को कह रही थी. वह था कि लेजी बन्दर की तरह न आने के बहाने बना रहा था. लेकिन केतकी कहाँ मानने वाली थी ! वह रोजाना की तरह उसे पकड़ जूहू बीच पर ले आई थी. और न जाने जूहू बीच पर आते ही उसे हो क्या जाता था ! समुन्दर को देखते ही वह दोस्तों की तरह हँसता था .. आती लहरों को पकड़ने लगता था .. और बिछी निर्दोष-सी बालू पर बैठ जाता था !
“क्या खाओगे ..?” केतकी पूछती थी.
“वही ..! ले – आओ ..!!” वह हंस कर कहता था. न जाने उसे यहाँ भूख भी कैसे लग आती थी.
और दोनों .. साथ-साथ हँसते .. गाते .. खेलते .. खाते और बतियाते – बोलते – समय का ज्ञान ही भूल जाते थे – वो. भूल ही जाते थे कि उनके आगे पीछे कुछ और भी था .. कोई और भी था – जो उन्हें जानता था ! चाँद चुपके से निकल आता था. चांदनी के पंखों पर बैठ शीतल पवन उनके पास आ बैठती थी. रात के उन नीरव पलों में लहरें आने लगती थी. और उनके पैर चूम-चूम कर भाग जातीं जैसे उनके प्रणय निवेदन में साझा करना चाहतीं. और समुद्र .. उफनने लगता था .. पास आने लगता था .. प्यार करने लगता था …!
हाँ, हाँ …! प्रकृति उन्हें खूब प्यार देती थी. केतकी थी कि पीते-पीते अंघाती ही नहीं थी. वह थकने लगता पर केतकी को जोश चढ़ आता – उसके ऊपर सवार हो जाती .. चूमती-चाटती .. और .. और ..
“सुबह ऑफिस जाना है ..!” वह शिकायत करता था.
“ग्यारह … बजे ही तो ..?” केतकी कहती ! “बता देना बॉस को ..”
“बड़ा काइयां है .. के डी …!” चन्दन शिकायत करता. “पल-पल के पैसे काट देता है .. साला ! इतना मक्खी-चूस है कि .. मजाल है कि ..”
“गधे की तरह काम करते हो ..”
“क्या करूं ..? कहाँ जाऊं ..?” चन्दन चुप हो जाता था.
“चल,… भाग चलते हैं, चन्दन…..?” केतकी अचानक मांग करती.
“कहाँ जायेंगे, रानी…..!” वह टीस आता. “हाथ पल्ले कुछ हो .. तब न……” वह बड़ी ही बेबस आवाज में कहता था.
जोरों से कार का हॉर्न बजा था. चन्दन उछल पड़ा था. केतकी आगई थी.
“आओ !” केतकी ने दरवाजा खोला था. “जहे नसीब .. दीदार तो हुआ….!” केतकी ने आह भरी थी. सच भी था. चन्दन बोस – आज न जाने कितने सालों के बाद केतकी से मिल रहा था.
“वो क्या है .. केतकी .. कि ..”
“मुझे क्या पता नहीं है, चन्दन !” केतकी की आवाज सर्द थी. उसने गाड़ी स्टार्ट की थी और घर चल पड़ी थी. “तुमने ही कभी मुड़कर नहीं देखा !” केतकी ने उलाहना दिया था.
दोनों चुप थे – गवाही के तौर पर उनका दोस्त अथाह समुन्दर उनके बीच आ बैठा था ! चांदनी हंस रही थी. लेकिन केतकी का कलेजा जल रहा था. वह कहीं से सुलग आई थी. उसके तो सारे सपने ध्वस्त हो चुके थे – वो तो लुट चुकी थी और जो कुछ अंतिम आस-अंदाज था वो भी आज जाता रहा था….!!
पारुल और चन्दन के चित्र इतने मशहूर हुए थे कि हर अखबार, पत्रिका और टी वी चैनलों ने उन्हें दिखा-दिखा कर लोगों को दंग कर दिया था ! केतकी को स्वयं भी विश्वास कहाँ हुआ था ! उसने भी तो फ़ोन मिला-मिला कर पूरे संसार से पूछा था – चन्दन का पता……!!
“यहीं रुक जाओ !” केतकी ने चन्दन को राय दी थी. “रात की ही तो बात है !” उसने चन्दन के चेहरे को देख कर कहा था. “सुबह सीधे ऑफिस चले जाना !” उसका सुझाव था.
“नहीं !” चन्दन नाट गया था. “घर पहले जाऊँगा !” उसने जोर देकर कहा था. “देखूं .. तो कि …माजरा क्या है ?” वह अभी भी घर के बारे में चिंतित था.
“पा-रु-ल .. है…..!!” केतकी ने दो टूक उत्तर दिया था. “माजरा .. पारुल है !” केतकी बता रही थी. “दी महारानी ऑफ़ काम-कोटि…..!!” वह मुस्कुराई थी. लम्बे पलों तक केतकी चन्दन बोस को निगाहें भर-भर कर देखती रही थी. उसका चन्दन .. न जाने किस-किस का चन्दन हो गया था – वह सोच रही थी. “कैसे उड़ाई .. रे .. ये चीज़ ..?” केतकी ने मजाक मारा था. वह अब भी चन्दन को नई निगाहों से देखे जा रही थी. “चिड़ि-मार है .. रे .. तू .. चन्दन !!” वह हंसती ही रही थी.
दोनों अब चुप थे. अपने अपने पक्षों को संभाले खड़े थे. चन्दन को केतकी के कहे शब्द चुभ रहे थे. वह जानता था कि केतकी को भी .. कहीं कविता से भी ज्यादा जलन थी, पारुल के चित्र देख कर .. ! पारुल के सामने .. केतकी बेचती क्या थी..? कंजरी थी .. ! और कविता ..? व्हाट ए कर्स .. ए कर्स ऑफ़ हिज लाइफ ! के डी सिंह ने चालाकी से उसे चन्दन के गले बांध दिया था. “एजेंसी .. तुम्हारी .. ये कारोबार तुम्हारा .. सब कुछ तुम्हारा .. चन्दन बेटे !” बड़े लाड से उसने मना लिया था चन्दन को. और शादी के बाद सभी कविता का ! उसका नाम तो एजेंसी का काला कुत्ता तक नहीं जानता था. कविता थी करता-धरता ! कविता का था सब कुछ ..
“क-वि-ता के साथ चले ही नहीं, तुम !” केतकी ने एक सच्चाई सामने धरी थी. वह आज चन्दन को जलील करना चाहती थी.
“तुमने नहीं .. चलने दिया !” चन्दन उखड आया था. उसे रोष चड़ने लगा था. “मुझे .. बुला .. कर कविता को फ़ोन करा देतीं थीं.” चन्दन सीधा केतकी की आँखों में देख रहा था. “और .. झगडा रुप जाता ! तुम्हारे पीछे तो कविता मुझे ‘कुत्ता’ कहने लगी थी.” चन्दन कडक आवाज में कह रहा था. “खूब जूते खाए तुम्हारे पीछे .. केतकी .. लेकिन ..”
“तुम भी तो मेरे पीछे लगे थे ..?”
“हाँ ! और कविता नहीं चाहती थी कि ..”
“लेकिन तुम ..?” केतकी की भी दांती भिंच आई थी. “ख़ैर ..!” केतकी ने लम्बी सांस छोड़ी थी. “गोन…. इज बायगोन !!” उसने सांस साधी थी. “लेट्स बी फ्रैंक .. एंड फेयर ..!” केतकी ने चन्दन बोस की आँखों में घूरा था. “इसके साथ क्या .. प्रॉमिज है .. ?” उसने एक सपाट प्रश्न पूछ लिया था.
“पारुल .. मेरी है !” चन्दन ने सीधा सीधा उत्तर दिया था. वह केतकी को काटना चाहता था .. तडपाना चाहता था !
“ओह .. माई .. माई …..!” तड़प सी उठी थी, केतकी…! “मार दिया .. पापड़ वाला…!!” उसने बड़े ही आश्चर्य से कहा था. “साले .. चन्दन ! यू आर ग्रेट….!! महारानी ऑफ़ काम-कोटि…? वा-ओ ..!!” केतकी उछल पड़ी थी. “व्हाट अ लक प्यारे !” उसने हाथ फैलाये थे. “किस्मत के तो तुम बादशाह हो, चन्दन …!!” तरस कर कहा था, केतकी ने…!
चन्दन बोस न जाने क्यों आज केतकी की बात पर विश्वास कर लेना चाहता था. वह चाहता था कि अबसे आगे वह अपनी कीमत मांग कर चलेगा – अबसे आगे वह किसी के आगे भी नहीं झुकेगा. अगर लोग स्वार्थी थे .. तो वह घोर स्वार्थी बनेगा .. और अपना हक़ अवश्य लेगा …!
“हेल्लो …!” डरते-डरते चन्दन ने फ़ोन पर कहा था. उसे लगा था कि कविता ही होगी. कविता कभी भी बेहोश न रहती थी. उसे चन्दन की हर ख़ैर-खबर रहती थी….!
“अभी आ जाओ!” गोलू था.
“मूड नहीं है …!” चन्दन बे-मन बोला था.
“लुट जाओगे….! आ जाओ…! अभी-अभी, कैनबरा में .. चाय पीते हैं …!” वह कह रहा था. “मौका है ! आज कौड़ियों में .. लेकिन कल करोड़ों में ..” गोलू बड़े ही मीठे लहजे में बोल रहा था.
“ले-कि- न .. गोलू …! पैसे ..?”
“किस्मत होती है .. हर ठिकाने की सेठ…! लेते ही .. पौ-बारह ..!!” गोलू का सुझाव था.
न जाने कैसे चन्दन की निराश-उदास आँखों के सामने पारुल का चेहरा उदय हो गया था. “मै .. मेरा सब कुछ .. तुम्हारा है .. चन्दन….!” वह कह रही थी.
“गो ,अहेड….!” पारुल का आदेश और आशीर्वाद दोनों उसके साथ थे.
“आता हूँ ,गोलू…!” चन्दन ने तपाक से फोन पर कहा था.
और वह केतकी की गाड़ी लेकर कैनबरा में गोलू के साथ चाय पीने निकल गया था……!!
क्रमशः
मेजर कृपाल वर्मा साहित्य !