करूं क्या आस निरास भई ..

न जाने कौन गा रहा था। लेकिन उसका करुण स्वर मेरे बंद पड़े आयामों को खोल मुझसे फिर एक बार जिंदगी में झांकने का आग्रह कर रहा था। कह रहा था – देख तो कृपाल! मुड़ कर तो देख उसे जो जो हुआ है! क्यों हुआ है, क्या तू आज भी जानता है और वो इच्छित, संभावित और सहल सा मुकाबला तूने क्यों हारा क्या तू बता सकता है?

तू कितना जानता है कृपाल? क्या आज भी तुझे आगे का रास्ता दिखाई दे रहा है?

“तब भी अनाड़ी था और आज भी अनाड़ी हूँ!” मैं हंस गया हूँ। “सच में खिलाड़ी तो कोई और ही है। हमारे पास बैठा बैठा ये गोटें खेलता रहता है। और जब हम गिरते हैं .. रोते हैं .. फिर उठते हैं तो ये खूब तालियां बजाता है!”

चलते हैं! इस तालियों और गालियों के क्रम को एक बार फिर से परखते हैं। शायद है कि कोई निष्कर्ष निकले!

गांव जाकर मैं आपा भूल जाता था। और उस दिन जब महाबीर साइकिल लेकर मुझे लेने पहुंचा था तो मेरे पैरों की जमीन खिसक गई थी। कुछ हुआ तो जरूर था वरना ..

“अभी बुलाया है, मास्साहब ने! प्रैक्टीकल है तेरा सैकिंड शिफ्ट में। नहीं पहुंचा तो” महाबीर ने सब कह सुनाया था। “अभी चल!” उसने आदेश दिया था।

“चल!” मैं चलने के लिए तैयार था।

“चलाएगा – साइकिल तू! मैं तो थक गया हूँ!” उसने बताया था।

और जान लगा कर साइकिल चलाता मैं हांफता कांपता कॉलेज़ पहुंचा था!

“कौन सा प्रैक्टीकल लोगे?” हीरा लाल अग्रवाल – हमारे फिजिक्स के हैड पूछ रहे थे। “ये ले लो वीट स्टोन ब्रिज। अभी अभी तुम्हारा मित्र मुंशी फेल हो कर गया है!” वो हंस गये थे। उनके विचार से तो मुझे फेल हो ही जाना था!

“यही ले लेता हूँ!” मैं जब मान गया था तो वो तनिक चौंके थे।

वायवा प्रश्नोत्तर के दौरान हीरा लाल जी ने अपने सारे घोड़े दौड़ाए थे और मुझे दुनिया जहान के सवाल पूछे थे। और मैं भी किसी सिखाए पढ़ाए तोते की तरह बिना कोई गलती किये सारे उत्तर देता चला गया था। तब उन्होंने मुझे फिर एक बार नई निगाहों से देखा था।

और जब तीनों सैक्शनों में मेरे हाईएस्ट नम्बर आये थे तो हीरा लाल जी ने मुझे ऑफिस में बुला कर कहा था – कृपाल! अगर तुम सीरियसली पढ़ाई करो तो यूनिवर्सिटी टॉप कर सकते हो!

“लेकिन मास्साहब मैं ये करना नहीं चाहता!”मैंने दो टूक उत्तर दिया था।

लेकिन मैंने उन्हें बताया नहीं था कि मैं इस पोजीशन होल्डर बनने की रैट रेस में शामिल होने का फल भोग चुका था! उस मैरिट मारने के चौबीसों घंटों के रोग को मैं फिर से पालना नहीं चाहता था! मैं ज्ञान अर्जित करना चाहता था – नम्बरों वाली मैरिट नहीं!

अब एस एन मैडीकल कॉलेज़ में प्रवेश पाने के लिए इम्तहान में बैठना था!

छुट्टियों में होस्टल में रह कर ही मैंने तैयारी की थी। मेरे दो दोस्त भी मेरे पास आते जाते रहते थे और मेरे बनाए नोट्स लिख ले जाते थे। मेरी तैयारी गजब की थी। मैं अब रात दिन डॉक्टर बनने के सपने देखने लगा था। गले में स्टेथिस्कोप लटकाये और सफेद एप्रन पहने मैं एस एन मैडीकल कॉलेज़ में रोज ही डोल आता था। बड़ी उमंग थी .. और बड़ा मन था मेरा कि मैं ..

लेकिन जब ठीक इम्तहान के एक दिन पहले मेरे दाहिने हाथ के अंगूठे में बिसारा लगा था और मैं गाय की तरह रंभा रहा था तो मेरी पीड़ा के पारावार आसमान छू गये थे। मैं पेपर देने ही न जा सका था। तब मैंने फिर से मुड़कर बगल में बैठे इस खिलंदड़ को हंसते पाया था!

“घमंडी ..!” यह बोला था। “तू क्या सोचता है कि तू ही ..?”

मैं भी इससे भिड़ गया था। अब मेरा देश प्रेम जागा था। सब कुछ त्याग कर मैं सेना में कमीशन पाने के लिए सर्विस सलैक्शन बोर्ड मेरठ में जा पहुंचा था!

मैंने कोई तैयारी नहीं की थी। कारण – मुझे पता लगा था कि यहॉं तो रिजैक्शन हो रहे थे – मास रिजैक्शन! चूंकि 62 की जंग के दौरान बहुत सारे ऑफिसर भर्ती हो गये थे और अब वहां रिक्त स्थान थे ही नहीं!

लो जी! हम आ गये थे अपनी मस्ती में। हमने वो सब किया था बोर्ड में जो उसके काया कल्प करने के लिए जरूरी था! वेटर से लड़ने के साथ साथ जब मेरा आखिरी इंटरव्यू हुआ था तो मैं बोर्ड के पांच मैम्बरों के सामने अकेला बैठा था। खूब जंग जुड़ी थी – जब मैंने कहा था कि मेरी हॉबी किताबें पढ़ना था और मैंने लुई टाल्सटॉय की वार एंड पीस किताब पढ़ी थी तो गजब हो गया था!

प्रश्नों के बाद प्रश्न थे .. प्रश्नों की बौछार थी यह सिद्ध करने के लिए कि मैं झूठ बोल रहा था। उस उम्र में उस तरह का क्लासिक पढ़ना और समझना संभव न था – ये बोर्ड के मैंम्बर समझते थे। लेकिन जब मैंने सटीक और सही उत्तर दिये थे तो उन्होंने मुझे जाने दिया था!

मैं तो जानता था कि रिजैक्शन श्योर था और तभी मैंने अपना फोटो भी नहीं दिया था। और दोस्तों के साथ सिनेमा देखने चला गया था!

“कृपाल!” मेरा रूम मेट आनंद बोला था। “मैं सलैक्ट हो गया हूँ!” उसने सूचना दी थी।

“अबे – उल्लू!” मैंने हल्के मूड़ में कहा था। “अगर तू सलैक्ट हो सकता है तो ..” मैंने उसे कठोर निगाहों से घूरा था।

“तू भी सलैक्ट हो गया है!” उसने फिर से एक अचंभा मुझे कह सुनाया था।

“सो जा यार!” मैंने सहज भाव से कहा था। “दुस्वप्न नहीं देखा करते!” मेरी राय थी।

अब हम सब एक हॉल में बैठे थे – रिजल्ट सुनने। उस हॉल में पुराने जमाने का छत पर लटकता झालरदार पंखा लगा था जिसे बाहर बैठा दरबान खींच रहा था। चूं-चर्र की अजीब आती आवाजें अजूबा सस्पेंस भरती हवा को हिला डुला रही थी। सब चुप थे। सब के चेहरे चिंतित थे लेकिन ये सभी आशावान थे – मुझे छोड़ कर!

हम लोग अस्सी प्रत्याशी थे। आठ आठ के दस बैच थे। मैं पहले बैच में था। मेरा नम्बर सात था। कहते थे – एक बैच से एक से ज्यादा सलैक्ट नहीं होता। मैंने मान लिया था और मैं बेघड़क हुआ बैठा था!

एक बड़ा ही गुरु गंभीर व्यक्ति सामने आ कर खड़ा हो गया था!

“मैं नम्बर बोलूंगा और उसे बोर्ड पर लिखूंगा। जिसका नम्बर हो वो खड़ा हो जाए!” वह बता रहा था। और फिर उसने नम्बर बोलना आरम्भ कर दिया था।

“नम्बर एक ..!” उसने बोला था तो आनन्द खड़ा हो गया था। मैं हैरान रह गया था!

“नम्बर चार!” उसने फिर से बोला था तो सर्व जीत खड़ा हो गया था। अब मैं परेशान था!

“नम्बर सात!” जब उसने कहा था तो मैं उछल पड़ा था! नम्बर तो मेरा ही था?

“प्लीज़ चैक दी नम्बर!” मैंने जोरदार आवाज में कहा था।

“नम्बर सात – तुमने फोटो भी सबमिट नहीं किया है!” उसने मुझे डांटा था। “एक घंटे में फोटो सबमिट न किया तो ..” कह कर उसने अगला नम्बर बोला था।

“नम्बर 29!” उसने पुकारा था और अब 29 नम्बर वाला खड़ा हो गया था तो उसने कहा था रेस्ट ऑफ यू कैन गो! और वह चला गया था।

मैं अचंभित था। मैं उन रिजैक्ट हो गये प्रत्याशियों का रोना धोना देख रहा था। मैं भूलने लगा था कि ..

“तुम क्या सोचते हो, हम घास खाते हैं?” यही खिलंदड़ था जो मेरी बगल से बाहर आ बोला था!

कौन था मैं? कौन था ये? ये सब क्या था! क्यों था? इतने सारे प्रश्न एक साथ उठे थे और उन्होंने मुझे घेर लिया था।

“कच्ची उम्र है, कृपाल! अभी ये सब तुम्हारी समझ में न आएगा!” मुझे खिलंदड़ से ही उत्तर मिला था और मैं चुपचाप सर झुका कर देश सेवा के लिए चला गया था!

और फिर एक दिन एक विचित्र घटना घटी!

इंडियन मिलिट्री एकेडिमि में उस जी तोड़ प्रशिक्षण के दौरान मैंने एक दिन एक नया प्रयोग किया था। सुबह पहले दस मील की दौड़ थी और उसके बाद था गणित का इम्तिहान। गणित का लोहा कौन नहीं मानता? लेकिन मेरा तो ये बचपन का दोस्त रहा है। कभी मेरा एक नम्बर भी नहीं कटा! इसलिए मुझे गणित से ज्यादा आराम जरूरी लगा था उस दिन। दस मील की दौड़ में सर्व प्रथम आ मैंने जब गणित का पर्चा भी आनन फानन में कर डाला था और फिर कॉपी कैप्टन माथुर को थमा केबिन में जा सो रहा था। जबकि मेरे भाई लोग गणित के पेपर से जंग करते रहे थे अनंत तक!

परीक्षा फल सुनाने कैप्टन माथुर आ चुके थे।

सब के नम्बर बताने के बाद भी जब उन्होंने मेरा नाम नहीं पुकारा था तो मैं हिल गया था!

“गेट अप!” कैप्टन माथुर ने मुझे ललकारा था।

मैं खड़ा हो गया था। मैं कांपने लगा था। मेरी समझ में न आ रहा था कि आखिर गलती क्या हुई थी?

“कितने नम्बर आने चाहिये?” कैप्टन माथुर पूछ रहे थे।

मैं चुपचाप बुत बना खड़ा था। मैं जानता था कि ये कॉलेज़ नहीं था – जहां मुंह खोलने की इजाजत होती थी। ये इंडियन मिलिट्री एकेडिमि थी जहां ‘यस सर’ के सिवा ‘नो सर’ का कोई स्थान ही नहीं होता!

“यू गॉट ब्लडी जीरो!” कैप्टन माथुर ने मेरी कॉपी मेरे मुंह पर दे मारी थी।

मैंने कॉपी उठा कर देखी थी। सारे प्रश्नों के उत्तरों को काट कर जीरो अंकित थी। मेरे पसीने छूट गये थे। यों तो मैं कैप्टन माथुर का चहेता था लेकिन आज न जाने कैसे मैं उनका कोप भाजन बन गया था?

“शॉट कट मारने के लिए किसने कहा था?” कैप्टन माथुर पूछ रहे थे।

मैं चुप था। मेरी समझ में मेरी गलती आ गई थी। एक घंटे केबिन में जाकर सो लेने का अपराध अब मुझ पर हंस रहा था। मेरे आस पास बैठे मेरे सहपाठी खूब खुश थे। आज उनकी बाछें खिली हुईं थीं। लेकिन जब कैप्टन माथुर ने फिर से मुझे पूरे नम्बर देकर खुश कर दिया था तो मेरे मित्रों के खुशियों के जलते चिराग बुझ गये थे!

और वो पूना पार्ट सी का इम्तिहान देने की घटना भी कम रोचक नहीं है!

नई नई शादी हुई थी। कुसुम भी पूना साथ गई थी। फिर किसका पढ़ना और किसका इम्तिहान? हमें पूना घूमने से फुरसत कहां थी?

“वर्मा फेल होगा!” इम्तिहान जाने से पहले मुझे बद्दुआएं देते थे – मेरे मित्र। “मिसिज वर्मा आप इस गरीब को ..?” सब शिकायत भी करते थे और उन सब की पत्नियां उन्हें खूब जोर शोर से तैयारी कराने में लगी थीं।

लेकिन जब परीक्षा फल छपा था तो मित्रों का कहीं ढूंढे नाम न मिला था। उन्हें एक ही नाम मिला था – कृपाल वर्मा का! हर कोई हैरान था कि मैं पढ़ता कब था?

लेकिन इस खिलंदड़ ने तब भी बजाए मेरी पीठ ठोकने के मुझे बताया था – मैं ही कर सकता हूँ इस तरह के करिश्मे!

और जो बेजोड़ करिश्मा इसने किया था वो तो ..

जोधपुर में पार्ट डी का इम्तिहान देने पूरी मित्र मंडली पहुँची थी!

मंडली के दो मित्र ऐसे थे जिनका पार्ट डी अटका हुआ था। टैक्टिक्स का एक पेपर था जो उनके बस का था ही नहीं। और अगर पार्ट डी क्लीयर नहीं होता तो – नो फरदर प्रमोशन! गंभीर स्थिति थी उनके लिए। और तब सर्व सम्मति से तय हुआ था कि मैं उनकी मदद करूं। मुझे भी आपत्ति न थी। कारण मुझे तो सब जबानी याद था!

पेपर भी कोई कठिन न था। मैंने बड़ी ही सावधानी से उन दोनों मित्रों का काम संभल दिया था। फिर मैंने अपना काम किया था। एक हुलस के साथ मैंने कॉपी थमाई थी और कमरे से बाहर चला आया था। लो जी! बाहर आते ही मैं बेहोश होने को था। मुझे एहसास हुआ था कि मैंने जो मार्ग चुना था हमले का उसकी तो मनाही थी! अब क्या हो? तीन सौ नम्बर का प्रश्न ही गलत था! फेल! मुझे पसीने आने लगे थे!

और जब परीक्षा फल आया था तो ‘इंस्ट्रकटर’ फेल के नारे हवा में गूंजे थे। हर कोई हैरान था कि कृपाल फेल कैसे हुआ?

“कौन सा कुंभ का मेला है यार!” कुसुम ने अपनी मित्र रश्मि को समझाया था। “अगले साल पास कर लेंगे!”

और जिन दो मित्रों की मदद मैंने की थी, दोनों पास हो गये थे और दोनों हमारे घर मिठाई लेकर पहुंचे थे!

“सो मिस्टर कृपाल ..” बगल से बाहर आ इस खिलंदड़ ने पूछा था।

“बुरा किया तुमने!” मैंने भी इसे उस दिन खूब सुनाई थी!

और आज भी .. अब भी उम्र के इस पड़ाव पर भी मैं इस खिलंदड़ की कारगुजारियां समझ नहीं पाता हूँ!

होतव्य और कर्तव्य समानांतर बहती दो धाराएं हैं जिनके अर्थ अलग अलग हैं लेकिन गंतव्य एक है!

और इसे केवल ये खिलंदड़ ही जानता है – हम नहीं!

मेजर कृपाल वर्मा 1

मेजर कृपाल वर्मा

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