खिलाड़ी
सेठ धन्ना मल का काम और नाम एक बार फिर बुलंदियों पर था.
एक लम्बी कड़की के बाद अब आ कर उन्हें साँस लौटी थी. लक्ष्मी-माँ की लगातार पूजा-अर्चना के बाद , अब आ कर वो प्रसन्न हुईं थीं. “उन के अनादर का अपराध मुझ से …बन गया था. ” धन्ना मल ने पलट कर स्वीकारा था. “धन …और मान …!” का अभिमान आदमी को ले डूबता है- वह सोच रहे थे. “अगर पूरन मल ने मदद न की होती तो …..!”
“प्रणाम …..ताऊ जी ……!” अचानक सूरज मल ने आ कर उन के चरण छुए थे.
नज़रें उठा कर सेठ धन्ना मल ने देखा था. सूरज पूर्ण-पुरुष था. सूरज की छोटी-छोटी …और पैनी मूंछें उन्हें बहुत अच्छी लगीं थीं. बारीक आँखों से सूक्ष्म द्रष्टि का आविर्भाव सेठ धन्ना मल को दैवीय लगा था. ‘चतुर व्यापारी है, सूरज !’ उन का निर्णय था.
“भतीजे में ऐसा क्या ….जो हमें भूल गए ….?” पूरन मल ने सामने आते ही कहा था. “अरे,भाई ! मूल और ब्याज का हिसाब तो …लगाते ही रहना . पहले मिल तो लें ……!”
और फिर दोनों परिवार बांहें पसार-पसार कर एक दूसरे से मिले थे.
“हाय …!” एक आशा-किरन की तरह सावित्री उजागर हुई थी. सूरज भी उसे देख कर चौंक पड़ा था. ऐसी अनिंद्य सुंदरी उस ने आज तक न देखी थी. घुड सवारी के लिए जाती सावित्री का रूप-स्वरुप द्विगुडित हो बोल रहा था. “केयर …फॉर ….ए …राइड …?” उस ने सीधा सवाल सूरज से ही पूछा था. उत्तर की बिना प्रतीक्षा किए वह मुड़ी थी …और उस ने मंगला मौसी के पैर छुए थे. फिर ताऊ जी – पूरन मल से आशीर्वाद लिया था. मुड कर उस ने सूरज से आँख मिलाई थी.
“ओ, कहाँ ….?” सूरज मल सहज स्वभाव में बोला था. “मैं इस तरह की ‘आय-बलायों’ से बहुत दूर रहता हूँ .” वह मुस्कराया था. “देखेंगे ….फिर कभी …..!” उस का उत्तर था. “बहुत थक गया हूँ. अब तो आराम करूंगा ….!” उस ने घुड सवारी के लिए जाती सावित्री को शरारती निगाहों से घूरा था.
राइडिंग रिग में सावित्री बेजोड़ लग रही थी. उस का हुश्न ……हुनर …..और चंचल नयनाभिराम …पगलाने वाला था. सूरज तो सोच कर चला था – एक सीधी-सादी कन्या ….निपट मारवाड़ी …और विकट दकियानूसी …! लेकिन सावित्री तो …..
“अब सब काम इसी को संभालना पड़ता है , बहिन जी !” गीता, मंगला – सूरज की माँ को बताने लगी थी. “ये सारा …किया-धरा …इसी का तो है !” वो कह रहीं थीं. “उबार लिया – इस ने …..वरना तो आप जानती हैं …..”
“बच्चे होनहार हों ….तो ….वंश-बेल की उम्र ….हज़ारों साल की हो जाती है !” मंगला बता रही थी. “एक …नए …युगारंभ की बेला है …..!” मंगला तनिक गंभीर थी. “घोड़े दौडाने की ये कला …..”
“किसी-किसी में ही होती है …..!” गीता ने मान लिया था. “राजन जैसे जौकी को …..कजरी जैसी घोड़ी की पीठ पर बिठा कर ….हवा में तैरा देना …….सावित्री का ही किया कमाल है !”
“बहुत नाम हो गया है ……!” मंगला ने माना था.
धन्ना मल को पूरन मल आज बहुत बुझा-बुझा सा लगा था. पूरन मल के दिमाग में जलते तमाम आशा-दीप बुझ गए थे. वह किन्हीं अनाम से अंधकारों से बतियाने लगा था.
“तुम समझ नहीं रहे हो , पूरन !” धन्ना मल ने उसे जगाया था. “ये …चवन्नी-अठन्नी का खेल नहीं है, मित्र ! यहाँ तो …करोड़ों में आता है ….आंधी की तरह आता है ……मूसलाधार धन वरषता है !” धन्ना मल हँसे थे. “सावित्री न होती तो मैं ….पागल हो जाता !” वह खुल कर हँसे थे. “सावित्री में बहुत साहस है. ”
“ये तो मैंने देख लिया है …..!”
“तो बस …! जुड़ जाओ ….हमारे साथ ! दोनों …परिवार ….!” धन्ना मल अपनी पुरानी धारणा में जा घुसे थे. न जाने कब से वो सूरज को अपना दामाद मान बैठे थे. और न जाने कब से वो …..सूरज और सावित्री के बच्चे खिलाते आ रहे थे. “मैं तो ….मन से चाहता हूँ …कि ….तुम भी ….!” धन्ना मल ने पूरन मल की आँखों में देखा था. “वीर्वान और कचौड़ी मल तो मेरे साथ आ गए हैं …..! कचौड़ी मल ने तो आस्ट्रेलिया में पैर जमा लिया है ….और वीर्वान …बम्बई में है ! तुम भी सिगापुर में रह कर …..”
“कैसे ….?” टीस था, पूरन मल .
“पार्टी में कर्नल जेम्स से मिला दूंगा …..!” धन्ना मल ने प्रसन्नता पूर्वक कहा था. “तुम्हारे …आंगन में भी ….पैसे उगाने वाला पेड़ लगा देगा , कर्नल !”
“इस तरह के पैसे से मुझे तो डर लगता है …..नफ़रत होती है ……!” पूरन मल एक दार्शनिक की तरह बताने लगा था. “इस तरह का पैसा ….बहा ले जाता है , धन्ना !” पूरन का मत था.
गीता भी मंगला को मनाने में लगी थी.
“क्या धरा है, सिंगापूर में ….?” वह कह रही थी. “अपने देश में रहो-सहो ! सूरज और सावित्री ….जब साथ-साथ रहेंगे तो ….”
“हमारे वश का ये काम नहीं है , बहिन जी !” मंगला ने स्पष्ट कहा था. “सीधा-सादा है, सूरज !” उन का उत्तर था. “अल-छल उसे नहीं आत्ता …!” मंगला बता रही थी. “और …फिर ….भाई, किसबी किसब करे तो छाजे …..वरना मूड मोंगरा बाजे …!” उस ने मुड कर गीता को देखा था. “मेरे पिता जी का यही अनुमान था.” मंगला ने बात का तोड़ ला दिया था.
पलांश के लिए गीता की आँखों के सामने घुप्प अँधेरा घिर आया था. न जाने कैसे …आशा के चिराग एक साथ बुझ गए थे ?
गीता की गोट पिट गई थी !
लेकिन सावित्री सफलता के सोपान चढ़ती ही जा रही थी.
बेजोड़ पार्टी का आयोजन कर सावित्री ने ये सावित कर दिया था कि …उस में गज़ब की प्रतिभा है …..एक दूरदर्शिता है ….जो देश को विदेश से जोडती है . व्यापार को समाज के साथ खड़ा करती है …..और मुर्दों में जान फूंकती है !
जहाँ पार्टी ….स्विमिंग पूल पर एक नए विस्तार से होनी थी …वहीँ डिनर का बंदोवस्त अलग से था. कलकत्ता की मशहूर फ्लरीज़ को स्नैक्स सर्व करने का न्योता था …तो हिन्दुस्तान होटल को मारवाड़ी डिनर खिलाने के आदेश थे. डेकोरेशन प्रेरणा के जिम्मे था तो ….संगीत फंटूस ने देना था! सावित्री चाहती थी ….कि एक बार प्रेस और मीडिया स्वयं आ कर देखे ….और दंग रह जाये !
सावित्री सिद्ध कर देना चाहती थी कि …नाम और काम से भी ज्यादा – नामा और नखरा बिकता है.
“सुना है ….मनोज कुमार और हेमा भी पार्टी में आ रहे हैं…?” पत्रकार मित्रों के बीच सूचना का आदान-प्रदान होने लगा था.
“हेमा क्या बेचेगी ….सावित्री के सामने ….!” उत्तर आया था.
“और …क्या धरा है ….मनोज कुमार में …जो राजन का मुकाबला करेगा ….? ये तो नकली लोग हैं ….जब कि …..सावित्री और राजन ….हैं – ओरिजिनल ! क्या प्रेम-प्रसंग खड़ा किया है …., पार्टनर !” प्रेस वालों का मत था.
“ये हैं कर्नल जेम्स ….!” सेठ धन्ना मल पार्टी में परिचय करा रहे थे. “अगर ये न होते तो ….मेरे जहाज़ तो डूब ही गए थे ….नौका भी डूब ही जाती !” वो खिलखिला कर हँसे थे. “जापानियों ने तो मेरी कमर ही तोड़ दी थी. पर कर्नल साहब ने …..!”
“बदला उतारा है , ज़नाब !” कर्नल जेम्स बोले थे. “सेठ धन्ना मल ने जो ब्रिटिश सेना की मदद की थी …..बेजोड़ थी ! मैंने तो कुछ भी नहीं किया …..! बस , एक उधार चुकाया है …!!”
लोगों को सेठ धन्ना मल और कर्नल जेम्स का जोड़ा जंच गया था. दोनों अपने-अपने फन के अद्वितीय खिलाड़ी थे. वीर्वान और कचौड़ी मल – दोनों कर्नल जेम्स के शिष्य बनने पर राज़ी हो गए थे. वो भी चाहते थे कि ….कर्नल जेम्स उन के आँगन में भी ….नोटों का पेड़ लगा दे !
राजन को प्रेस और पब्लिक दोनों ने घेरा हुआ था. उस ने सावित्री का लन्दन से मंगवाया सूट पहना था. लाल टाई और काले जूतों का कॉम्बिनेशन भी सावित्री की ही सूझ थी. राजन का व्यतित्व और सुगढ़ शरीर …तथा ..हाव-भाव ..बहुत ही मोहक थे. मनोज कुमार स्वयं इस व्यक्ति से मिल कर …प्रभावित हुए थे. हेमा का मुकाबला ….सावित्री से था ! राजन स्वयं जा कर सावित्री के लिए ….बम्बई से ड्रेस चुन कर लाया था. सावित्री ….हूँ-ब-हूँ …स्वर्ग की परी जैसी लग रही थी. लग रहा था ….इन्द्र की उस सभा में राजन और सावित्री को ….रति और काम देव के किरदार निभाने थे !
“हाथ में …व्हिस्की का गिलास क्यों नहीं है ….?” सावित्री ने पूछा था.
“तुमने दिया कब था ….?” राजन का उत्तर था.
और जब सावित्री चुपके से व्हिस्की का गिलास ले कर राजन के पास लौटी थी ….तो उस ने चतुराई से उसे दीवार के साथ चिपका कर अपने बदन के भीतर समो लिया था.
“लो…! गिलास …को …!!”
“नहीं, राजन ! मैं ……मुझ से न होगा …..!!”
“एक – बस …एक …छोटा सा शिप …, फॉर मी …, डार्लिंग …!!”
कितने अन्तरंग पल थे ….! कितना सामीप्य था …? दोनों एक दूसरे की साँसों में आ बसे थे. दोनों एकाकार थे . राजन का पहाड़ जैसा शारीर …चुहिया जैसी सावित्री को भींचे खड़ा था ! परछाइयों का मेल-जोल ….मन-प्राण के इरादों को …व्यक्त करने में सहयोग दे रहा था.
गीता को पता था – सब पता था …..पर वो उन्हें जान-मान कर …तलाश नहीं कर रही थी.
डिनर टेबल तक आते-आते – रात्रि का अर्ध भाग बीत चुका था. लेकिन …उस रात के मंजर को जीने की जिज्ञासा कम न हो पाई थी. टेबल के एक सिरे पर बैठा सूरज मल और …दूसरे पर विराजमान – राजन , दो प्रतिद्वंदियों जैसे थे. मध्य में बैठे धन्ना मल ….कर्नल जेम्स ….वीर्वान और कचौड़ी मल ….दूसरी ओर थे. तीसरी ओर बैठी सावित्री , गीता, मंगला और रानी भावी …एक टक अपने सामने बैठे ….उन दो धुरंधरों को देख रहीं थीं …..जो दंगल में सावित्री को जीतने उतरे थे.
सावित्री ने सोचा था – ये सूरज तो ….बिना प्रकाश का सूरज है ! प्रतिभा का तो नामो-निशाँ नज़र नहीं आता. बिना आत्मा का शारीर है ….ठंडा …एक दम असम्प्रक्त ! जैसे सावित्री वहां थी ही नहीं – सूरज का अनुमान था.
और राजन ….!
उस ने क्या प्रेस और क्या टी.वी ….और क्या आगंतुक ….सब के मन जीत लिए थे. सेठ धन्ना मल की आशा के अनुरूप – सूरज परवान न चढ़ पाया था. राजन की जीत पर ….सेठ धन्ना मल को गहरा अफसोस हुआ था. लोग सच्चाई -अच्छाई से दूर भाग रहे थे …..नीचता …और गरिष्टता की ओर भागे जा रहे थे ….खाई और खतरे …भ्रमित हुई पीढ़ी देख कहाँ पा रही थी ! लेकिन …..
ये कभी भी ख़त्म न होने वाली पार्टी थी …! सुबह होते-न-होते …..समूची पार्टी अखबार के पन्नों पर ….नई हो कर उठ खड़ी हुई थी.
सावित्री और राजन के चित्र थे ….चित्र भी विचितत्र थे —वो सब थे जो ….उन दोनों ने छुप कर दीवार की ओट में ….व्यक्त किये थे ….! जीवंत हाव-भावों से भरे अखबारों के पन्ने ….हवा में आग लगा रहे थे …..
प्यार का पूरा नाम – उन्माद ही तो है – अखबारों का कहना था ….!
सावित्री की आँखों में भरा उन्माद – क्रोध में परिवर्तित हुआ था …..फिर उसे पत्रकारों पर हंसी आई थी ….उन के लिए चित्रों को देख ….वह दंग रह गई थी – और अंत में प्रेम का फब्बारा फूटा था . वह खूब-खूब हंसी थी …..हंसती ही रही थी !!