एक दिन सुनीता के मुहँ से यूँहीं निकल पड़ा था,जब सुनीता और रमेश एकसाथ कमरे में अकेले बैठे थे,”ये अम्मा की प्रॉपर्टी!!” और रमेश का इसी बात पर कहना हुआ था,” हाँ! इसके कोई भाई थोड़े ही है,तीन बहनें ही तो हैं.. ये गाँव में। इसका जो भी खेत का पैसा होगा वो मुझे ही तो मिलेगा”।

अब सुनीता की समझ मे थोड़ी सी बात आ गयी थी। इसी बीच सुनीता थोड़े से दिन अपने मायके दिल्ली रहने चली गयी। अभी सुनीता की उम्र कम थी…दुनियादारी की समझ नहीं रखती थी। खैर!माहौल का फर्क तो बच्चे पर पड़ता ही है..सुनीता ने किसी भी प्रकार का आभाव बचपन से बिल्कुल भी नहीं देखा था,और न ही घर में पैसा! पैसा! वाला शोर ही होता था..क्योंकी सुनीता का परिवार संयुक्त परिवार न होकर केवल पाँच सदस्यों का छोटा सा कुटुम्ब था, इस बात का भी बच्चे की परवरिश और मानसिकता पर बहुत फर्क पड़ता है। कम उम्र और भरे-पूरे घर की लड़की होने के कारण सुनीता रमेश के कहने पर हर रोज़ अपने घर के लैंडलाइन फोन से उसे फोन किया करती,उस वक्त मोबाइल फोन इतने ज़्यादा प्रचिलित नहीं थे। रमेश भी फोन किया करता पर सुनीता से ही ज़्यादा फोन करवाता था।

खैर! थोड़े दिन पश्चात ही सुनीता का वापिस इंदौर आना हुआ था। जब रमेश सुनीता को स्टेशन से घर ला रहा था, तो सुनीता ने फोन कॉल्स का जिक्र किया था.. जिस पर रमेश ने कहा था,”हाँ! आ गया होगा कोई आठ-दस हज़ार का बिल”। अब पिताजी के घर के आठ-दस हज़ार के बिल वाली बात सुनकर तो सुनीता के होश ही उड़ गए थे। रमेश ने आठ-दस हज़ार फ़ोन का बिल तो ऐसे हँसते हुए बोला था..जैसे आठ-दस रुपये बोल रहा हो। आख़िर उम्र में रमेश सुनीता से दस साल बड़ा था..इस लिहाज़ से रमेश को खुद ही सुनीता को समझाना था,”अरे! इतने फोन थोड़े ही करते हैं, फ़ालतू में बिल आता है,और पैसों की बर्बादी होती है”। रमेश ने तो कोई भी समझदारी दिखाई ही नहीं, बल्कि फ़ोन का बिल बता कर ऐसे दाँत निकाल रहा था.. मानो जान बूझकर कर ससुराल वालों की खिंचाई कर रहा हो।

सुनीता रमेश का यह अजीब सा मज़ाक भुला नहीं पायी थी.. पर इस बात की सुनीता ने ऐसी गाँठ बाँधी की फ़िर जब कभी भी मायके जाना हुआ करता,तो वो रमेश को पिताजी के फोन से खुद कभी भी फ़ोन न किया करती थी…और करती भी क्यों आख़िर बेटी बेशक ससुराल क्यों न चली जाय पर सोचती वो सारी जिंदगी पूरी ईमानदारी से दोंनो पक्षों के बारे में है। हाँ!मायके में ही फ़ोन वाली बात की पुष्टि भी हो गई थी.. जो सुनील जी की ही ज़बानी थी,”हाँ! तब फ़ोन का बिल तो वाकइ बहुत आया था..करीबन आठ हजार,पर कोई बात नहीं अब क्या! वो तो हमनें भर दिया था”।

सुनीता को रमेश का इस तरह का व्यवहार कुछ समझ नहीं आ रहा था..मन में हर बार एक ही बात बार-बार आ रही थी,” जो में सोच रही थी,यह तो वो लग ही नहीं रहा.. जब मुझे देखने आया था,और इसने जो मुझसे दो मिनट की बातचीत की थी.. उस हिसाब से तो बिल्कुल भी नहीं है”। खैर! यह बात भी सुनीता के मन के किसी कोने में ही दब गयी थी। रमेश को लेकर सुनीता के यादों में जो भी बात आती थी वो उसके दिल की एल्बम रूपी किसी एक पन्ने पर चिपक कर रह जाती थी..कभी सुनीता ने गहराई से सोच विचार न करते हुए..बस आँख बंद कर अपने बड़ों के कहे हुए मार्ग पर ही चल पड़ी थी… कुछ भी हो घर बसा कर दिखाओ..यही नारी का पहला धर्म है।

लेकिन आज इतने सालों बाद की सुनीता की सोच वक्त ने बदल कर रख दी है..आज की जो सुनीता है,वो रमेश को छोड़ने के बारे में तो खैर! बिल्कुल भी नहीं सोचती है..क्योंकि अब तो सुनीता के नज़रिए से परमात्मा भी बुरा मानेंगे,”अरे! जब कोई फैसला ले लेना चाहिए था, तब तो तूने लिया ही नहीं,और आज तू इस इंसान को ही गलत बता रही है.. जिसके साथ तू इतनी आगे आ चुकी है”। इस अंतर्मन की आवाज़ सुन सुनीता का भी अब यही फैसला है..”मैं अपने जीवन का अपने बच्चों को लेकर फाइनल राउंड भी इसी आदमी के साथ ही खेलूँगी…हार और जीत का फैसला तो ऊपर वाला मेरे कर्मो के हिसाब से ही करेगा।

पर हाँ!जब मुझे गलत महसूस होता था..तभी अपने रिश्तेदारों और सगे संबंधियों को अपने मन की दुविधा बता सकती थी, और कोई न कोई रास्ता भी अवश्य निकल आता..पर सब कहने वाली बातें हुआ करती हैं.. होता वही है,जो मंजूरे खुदा होता है..नहीं तो ऊपर वाले को कोई न पूछ कर सभी अपनी तक़दीर सोने की कलम से लिख सकते हैं। हमारे जीवन में कर्मो का हिसाब क़िताब निरन्तर चलता है..जो हर जीवन की अवस्था को लगातार नियंत्रित करता है..हमें कुछ भी अपने हिसाब से ज़्यादा न सोचते हुए परिस्थितियों के अनुरूप ही अपने जीवन को लेना चाहिए जो सुनीता ने अब बढ़ती उम्र के साथ सीख लिया था..सुनीता ने तो बढ़ती उम्र के साथ अपने विचार परिवर्तित कर लिए थे..पर उसकी आने वाली पीढ़ी यानी के उसके बच्चों का भविष्य रमेश और उसके अजीबो ग़रीब परिवार के साथ क्या होना था…

सुनीता रमेश के साथ मायके कुछ दिन बिताने के बाद अब ससुराल आ गयी थी। घर में बाकियों को लेकर यानी के रामलालजी,विनीत ,रमा और उसकी दो बेटीयों को लेकर तो रमा ठीक महसूस किया करती थी.. बस दर्शनाजी का घर मे चौबिस घन्टे एक अजीब सा ख़ौफ़ छाया रहता था।

पता नहीं भई! क्या औरत थी…यह दर्शनादेवी..सुबह दुनिया की माँएँ पूजा-पाठ से अपने दिन की शुरुआत किया करतीं हैं.. पर दर्शनाजी के दिन की शुरुआत ही परिवार के किसी न किसी सदस्य को गाली देने से शुरू हुआ करती थी..परिवार के सदस्य नहीं तो रिश्तेदारों को ही गाली देने लग जाया करती थी। बात करने का लहज़ा दर्शनाजी का इतना गन्दा और बदतमीज़ी भरा था.. की सुनीता डर जाया करती थी..और सुनीता का डर गुस्से का रूप ले लिया करता था। अधिकतर दर्शनाजी की गालियों और बदतमीज़ी का शिकार रमा ही हुआ करती थी..

यह बात तो खैर! रामलालजी जब दिल्ली गए थे,तो सभी पारिवारिक सदस्यों के आगे बता कर आये थे,”हमारी मैडम जो हैं,बहुत ही तेज़ स्वभाव की हैं.. रमा की तो कई बार पिटाई भी कर चुकी हैं, पर आप घबरायें नहीं.. सुनीता को कुछ भी न कहेंगीं। वैसे भी रमेश ने तो कह ही रखा है..कि अगर सुनीता को किसी ने भी हाथ लगा दिया तो उसके मैं हाथ तोड़ कर रख दूँगा। अजी साहब!और तो और बताने में भी अजीब लग रहा है मुझे..पता नहीं आप लोग क्या सोचेंगें.. हमारे घर में हमारी मैडम इंसानों को अंडे ही नहीं खाने देती बस हमारे यहाँ तो कुत्तों के लिए ही अण्डे आते हैं”।

रामलालजी की दर्शनाजी के लिए कही हुई इस बात में केवल रमेश का ही डॉयलोग पसन्द आया था, मुकेशजी के परिवार को,”चलो! कोई तो अक्ल की बात करी है,लड़के ने”। रमा और दर्शनाजी की आपस में बहुत ही बुरी तरह से कहा-सुनी हुआ करती थी..जो सुनीता रोज़ देखा करती थी।

हाँ! रमेश के घर उस वक्त तीन Pomeranian डॉग्स भी पाल रखे थे..जिसका जिक्र रामलाल जी अंडों वाली बात को लेकर कर रहे थे। खैर!कुत्ते तो बहुत प्यारे पाल रखे थे,घर में। दर्शनाजी तो इंसानों से ज़्यादा उन कुत्तों पर ही फ़िदा रहा करतीं थीं। एक बार तो सुनीता के ही सामने दर्शनाजी ने रमा को ऐसा थप्पड़ मारा था, की सीधे मुहँ कमरे के दरवाज़े से जाकर लगा था..खाई पीई जाटनी तो थी ही खैर! ये हरियाणे की दर्शनाजी।

सुनीता को दर्शनाजी का यह रूप बिल्कुल भी नहीं अच्छा लगता था..सुनीता को दर्शनाजी की हरियाणे की भाषा शुरू -शुरू में बिल्कुल भी पल्ले नहीं पड़ती थी, पर अपनी सास का अपनी जेठानी के प्रति यह तांडव रूप देखकर सुनीता के रौंगटे खड़े हो जाया करते थे। और तो और रमेश भी अपनी माँ का अपनी भाभी के प्रति इस नाटक को पूरा सपोर्ट किया करता था.. बल्कि और चार लगाकर दर्शनाजी के साथ बोला करता था। अभी सुनीता को दर्शनाजी ने रमा की तरह नहीं लिया था..हाँ! परिवार के सदस्यों पर मुकेश जी के ब्याह रचाने और ब्याह में आए रिश्तेदारों पर तो दर्शनाजी ने ताने कस दिए थे..बस ज़्यादा कुछ नहीं।

क्योंकि भई खाते-पीते घर की लड़की थी सुनीता, और फ़िर बाप भाइयों की आवाज़ में भी दम था.. जिसका नज़ारा दर्शनाजी ने ब्याह में ही देख लिया था.. पूरा का पूरा खानदान दबंग था.. सुनीता का। दूसरी तरफ़ रमा थी तो हरियाणे की ही..पर थी एक गरीब परिवार से। सुना था,कि रमा के पिताजी का देहान्त रमा के ब्याह से पहले ही हो गया था..और भाईयों ने अपना गुज़ारा टैम्पो चला कर किया था। एक बात तो सोचने वाली थी..और वो यह कि..विनीत जी का ब्याह ग़रीब परिवार की लड़की से क्यों हुआ..आख़िर फैक्ट्री वाले लोग थे,भई!

सुनीता ने जब यह सब रमा के बारे में जाना था,तो उसे एक बात रामलाल जी की ही बताई हुई याद आई थी..रामलाल जी ने मुकेश के परिवार को दिल्ली में बताया था,कि,”हमारी बड़ी बहू,यानी के विनीत की पहली पत्नी ब्याह के चार महीने बाद ही गुज़र गई थी..रमा विनीत की दूसरी पत्नी है”।

मुकेशजी ने इसी बात पर कहा था,”इन लोगों ने विनीत के दूसरे ब्याह के बारे में बिल्कुल भी पता न चलने दिया था..नहीं तो मैं न करता इस घर में अपनी बिटिया का रिश्ता.. आज बता रहें हैं,रामलालजी छुपा गए पहले ये क़िस्सा”। हो सकता था कि कोई भी अच्छे घर का रिश्ता विनीत की पहली पत्नी का देहान्त सुनकर आता ही नहीं.. इसलिये रमा से ब्याह करा दिया..सोचा गरीब परिवार की लड़की है, आराम से एडजस्ट हो जाएगी।

पर ऐसा कुछ भी न था..विनीत के पहली पत्नी अच्छे खाते-पीते परिवार से थी। लेकिन जो रमा वाला मामला था.. वो दर्शनाजी से मेल खा रहा था..दर्शनाजी अपने आचरण से कोई बहुत रईस परिवार की न दिखतीं थीं, बल्कि रमा और दर्शनाजी का परिवेश एकदम एक ही जैसा था।दोनों ही सास बहू हरियाणे के गँवार और ग़रीब घर की थीं। तभी तू-तू ,मैं-मैं भी बुरी तरह से हो जाने के बाद आपस में खूब हँस बोल भी लिया करतीं थीं.. कहने का मतलब यह है, कि रमा विनीत के पारिवारिक माहौल में और अपनी सासु माँ दर्शनाजी के साथ खुश भी थी और अच्छी तरह से एडजस्ट भी थी..वो गाली गलौच और मार पिटाई सब एक तरफ था।

नारी के साथ हो रहे जीते जागते शोषण का बखूबी उदहारण सुनीता की ससुराल थी। क्या वाक्यई उसे शोषण कहा जा सकता था…या फ़िर हरियाणे की औरतों का यही रिवाज़ था। या फ़िर हरियाणे के गाँवो में औरतों के ख़ासकर बहुओं के साथ ऐसे ही लठ मारी चलती है..सुनीता के लिए यह सब बिल्कुल अजीब था..और सुनीता दर्शनाजी के व्यवहार को लेकर एक बार फ़िर सोचने पर मज़बूर थी.. क्योंकि उसे रमेश के माँ के पिछलग्गू होने का एहसास हो गया था।