रंजना नाम के काँटे को सुनीता के गृहस्थ में फंसे लगभग एक साल हो आया था।” ये लड़की पापा को आप के लिये सिखाती है.. और आप की जगह लेना चाहती है!”।

प्रहलाद ने सुनीता से रमेश के लिये कहा था।

प्रहलाद समझने लगा था.. कि रमेश रंजना पर पैसे लुटाने लगा है। बच्चों को भी अब रमेश के इस रिश्ते पर ग़ुस्सा आने लगा था। जिसका परिणाम यह हुआ था, कि अब दोनों बच्चों की नज़रों में रमेश की इज़्ज़त कम होती जा रही थी। रमेश के दिन के अठारह घन्टे रंजना के साथ ही निकलने लगे थे। सुनीता चाह कर भी यह टेंशन कम नहीं कर पा रही थी। रंजना के रमेश के जीवन में आने के बाद अब रमेश करवाचौथ जैसा पवित्र त्यौहार भी रंजना संग ही मनाने लगा था। “ तेरी सौतन आज बहुत सुंदर लग रही थी”।

रमेश करवाचौथ का त्यौहार रंजना संग मना कर खुले-आम सुनीता से यह बक़वास किया करता था.. और सुनीता अन्दर ही अन्दर जल कर रह जाया करती थी। रमेश के नाटक की गर्मी जब ज़्यादा हो जाया करती थी.. तो वह सुनीता और रमेश के झगड़े के रूप में बाहर निकल आती थी। हर साल करवाचौथ पर रमेश रंजना के संग ही होता था.. एक बार तो त्यौहार वाले दिन रंजना को घर पर ही ले आया था।” वा छोरी छत्त पर से फेंक के मारी होंदी!”।

दर्शनाजी ने रंजना के जाने के बाद सुनीता के मज़े लेते हुए कहा था.. करवाचौथ वाले दिन कैसे आ गई.. हमारे घर। छत्त पर से उठा कर फेंक दिया होता। सारे घर ने सुनीता का तमाशा बना कर रख दिया था.. असल में सुनीता और रमेश से घर के किसी भी सदस्य को कोई भी लेना-देना नहीं था। आख़िर मामला जो पैसे का था.. एक परिवार अगर बर्बाद हो रहा था.. तो इससे ज़्यादा मुनाफ़े की और कोई बात हो ही नहीं सकती थी। सुनीता को सहारा तो किसी का भी नहीं था.. रामलालजी का पूरा परिवार तमाशे ले रहा था। खैर! रमेश को लेकर क्रोध में सुनीता चुप-चाप थी।

रमेश का किसी काम से दिल्ली जाना हुआ था.. काम तो खैर!.. क्या था.. माँ की ज़मीन का ही चक्कर था। रमेश के जाने के बाद सुनीता के दिमाग़ में अचानक एक दिन ख्याल आया था,” एक बार अपने गहने चेक कर लेती हूँ”।

अब एक बार तो अंगूठियों का नाटक हो ही चुका था.. इसलिये सुनीता ने बाकी के गहनों की जगह बदल दी थी.. यह सोचकर कि.. रमेश नहीं ढूँढ पायेगा.. बेवकूफ़ जो थी.. सुनीता!  रमेश जैसा मास्टरमाइंड आदमी और साथ में मम्मीजी का खुराफ़ाती दिमाग़.. गहने लगते कहाँ थे। पर चलो! सुनीता ने जिसमें गहने छुपा रखे थे.. वो बक्सा खोला था” एक दो तीन चार.. एक दो!  दूसरा कहाँ है!!”।

एक बार फ़िर सुनीता ने ठीक से चेक किया था,” एक दो तीन चार.. दूसरा मोटा कड़ा और अंगूठी कहाँ हैं!”।

मुकेशजी के दिये हुए दहेज में से एक मोटा कड़ा और अंगूठी फ़िर से ग़ायब हो चुके थे.. सुनीता बार-बार चेक कर रही थी.. पर वो मोटा कड़ा और एक सेट के साथ की अंगूठी ढूँढ ही नहीं पा रही थी। घबराकर सुनीता ने रमेश को फ़ोन लगाया था,” मेरा वो एक मोटा कड़ा और सेट के साथ की अंगूठी कहाँ हैं!!”।

सुनीता ने रमेश से पूछा था।

“ मैं अभी ऐसी जगह बैठा हूँ.. और ये बात!!”।

रमेश ने जानबूझ कर नाटक करते हुए कहा था।

सुनीता फ़ोन पर ज़्यादा कुछ न बोलकर नीचे चली गई थी। और कुछ पल के लिये परेशान उसी जगह पर बैठ गई थी.. जहाँ दर्शनादेवी पहले से ही बैठीं थीँ। माताजी सुनीता का चेहरा देख खिल गईं थीं.. पर उस पल ऐसे दर्शा रहीं थीं.. मानो कुछ भी नहीं जानती हों। सुनीता का दिमाग़ पूरी तरह से ख़राब हो चुका था। और रमेश भी दिल्ली से लौट आया था।

“ मुझे नहीं पता.. कौन सा कड़ा और अंगूठी!’।

रमेश ने सुनीता को जवाब दिया था.. और रंजना की हमेशा की तरह आवभगत में जुट गया था।

“ अरे! आह! आह!!  तूने मेरी आँख!!!”।

फ़िर किस बात पर बुरी तरह से झगड़ा हुआ.. प्रहलाद भी अबकी बार शामिल हो गया था। क्या हो गया था.. सुनीता की आँख को!  कौन से लालच के पीछे रमेश अपने ख़ुद के घर की बर्बादी किये जा रहा था। क्यों सुनीता का थाने जाना.. और पुलिस का सहारा लेना शुरू हो गया था। जानने के लिये.. पढ़ते रहिये.. खानदान ।