हम हमेशा यही सोचते रहते हैं, की अरे!उसने ऐसा कर दिया इसलिए ऐसा हो गया, मैं होता या होती तो ऐसा बिल्कुल भी नहीं होता।

यहाँ सुनीता के मामले में भी कुछ ऐसा ही था, एक बार को सुनीता के मन में यह ख़याल आया था,कि अगर मैं अपना जीवन साथी का चयन स्वयं करती तो ठीक ही रहता, ऐसा नाटक तो न होता। पर पिताजी के डर की वजह से रह गई, हमेशा कहते रहते थे,कि लव मैरिज मुझे बिल्कुल भी पसन्द नहीं हैं, कहीं किसी लड़के या लड़की के चक्कर में मत पड़ जाना। पर ऐसा होता कुछ भी नहीं है,यह सिर्फ़ हमारा ख़्याली पुलाव होता है।

सुनीता को रमेश ही हमसफर के रूप में मिलना था,जो ईश्वर के हिसाब से शायद सही था, लेकिन अगर सुनीता को नापसन्द था, तो उसे अपनी हिम्मत और अपने बलबूते पर रमेश को छोड़ कर आगे बढ़ जाना चाहिए था। अपनी कमजोरी को किसी दूसरे इन्सान पर थोपना कि उसने हमारे साथ ऐसा-वैसा कर दिया ठीक न होता है। अपने जीवन को बदलने और अपने फैसले खुद लेने की हर इंसान में ताकत और हिम्मत होनी चाहिए। अगर आप अपना फैसला नहीं ले सकते तो इसका मतलब है,कि आप खुद ही कमज़ोर हैं, कोई दूसरा आपके लिए ज़िम्मेदार बिल्कुल भी नहीं है।

सुनीता के मामले में सुनीता खुद ही कहीं कमज़ोर पड़ गई थी,अपना फैसला बदलने की हिम्मत वो स्वयं ही नहीं कर पा रही थी,रमेश के परिवार में जाने के बाद और वहाँ के पारिवारिक नाटकों में उलझ कर अपना सेल्फ़ कॉन्फिडेन्स खोती हुई दिखाई दे रही थी..सुनीता।


खैर!रमेश के साथ वैष्णो देवी घूमने सुनीलजी उनकी धर्मपत्नी अनु व सुनीता और सुनील जी का छोटा भाई राहुल संग गए थे,सुनीता और रमेश तो साथ थे ही। वैष्णो देवी के सफ़र में दिल्ली से जम्मू और कटरा तक परिवार को रमेश के साथ कुछ अटपटा न लगा था, और लगता भी कैसे रुपये पैसे तो मुकेश जी की तरफ़ से खर्च हो रहे थे,रमेश को तो सिर्फ़ गाड़ी में बैठकर घूमने जाना था।

खैर!वैष्णो देवी के दर्शन परिवार के अच्छे हो गए थे,जम्मू से लौटते वक्त रास्ते में काफ़ी तूफान और बारिश का माहौल बन गया था,सुनील जी कार चलाते वक्त थोड़ा सा घबरा गए थे,ऐसे में रमेश ने ही दिल्ली तक ड्राइविंग संभाली थी, रमेश की यह ड्राइविंग वाली बात ही परिवार को थोड़ी सी ठीक लगी थी।

जम्मू से वापसी पर अब सुनीता और रमेश का वापिस इंदौर जाने का समय आ गया था। माँ ने बेटी का घर बसाने का वास्ता देकर कहानी को एक नया सकारात्मक मोड़ दे दिया था। माँ श्रीमती अनिता जी ने रमेश को पूरी तरह से अपने दामाद की जगह देते हुए बेटी की ससुराल जाने की तैयारी एक बार फ़िर से कर दी थी। विदाई के वक्त माँ और पिताजी ने रमेश की जेब में पाँच सौ रुपये का नोट डाला था, आख़िर खाता-पीता परिवार था, उनके लिए कोई भी बड़ी बात न थी अपने दामाद को यूँ पाँच सौ रुपये विदा में देना,पर सुनीता रमेश की एक बात से एक बार फ़िर हैरान हो उठी थी,कि जब भी माँ बापू इसकी जेब में पाँच सौ का पत्ता डालते हैं, यह बिना कुछ कहे ही अपनी जेब भरवा लेता है,मना बिल्कुल भी नहीं करता, किस तरह का नेचर है,इसका पता नहीं।

खैर! खूब लाद के मुकेश जी और अनीता जी अपनी बेटी को विदा किया करते थे. कपडे लत्ते, ससुराल वालों के लिए भी कपड़े और रमेश की भतीजियों के लिए सुन्दर और महँगी फ़्रॉके इसके अलावा दालें, बासमती चावल का पैंतीस किलो का बोरा यह अलग होता था।स्टेशन तक इतना सारा सामान ले जाने में ऐसी कम तैसी हो जाया करती थी,पर रमेश ने फूटे मुहँ से कभी भी न बोला था,”अरे!माँ!बाबूजी इन सब चीज़ों की क्या ज़रूरत है,हमारे यहाँ किसी भी चीज़ का अभाव न है”। सुनीता को रमेश का बर्ताव हर बार कुछ अटपटा ही नज़र आया,सुनीता की सोच के हिसाब से मैनर्स नहीं थे,रमेश में। परन्तु हमारे हिसाब से अभी तो कुछ गलत न था,रमेश में।

होता क्या है,कि ब्याह के बाद लड़कों को कुछ भी पता नहीं चलता..क्या करना है,कैसे करना है,वगरैह-वगरैह या तो परिवार में माँ सिखाती है,और नहीं तो ब्याह के पश्चात धर्मपत्नि जी तो ट्रैनिंग दे ही देती हैं। यहाँ रमेश की माताजी दर्शना देवी जी एकदम अलग माहौल की महिला थीं… हरियाणे के एक गाँव की। और दूसरी ओर अनिता जी मॉडर्न परिवार की शिक्षित व एक फौजी अफ़सर की धर्मपत्नी थीं.. दोंनो महिलायों में और परीवारों के संस्कारों में ज़मीन आसमान का अंतर था, शायद इसीलिए भी रमेश को अभी रीति-रिवाज़ और तौर-तरीके समझने में परेशानी हो रही होगी।

पर अगर हमसे इस विषय में पूछा जाए तो हम एक बात जरूर कहना चाहेंगे कि,अगर सुनीता रमेश को किसी भी कारण वश छोड़ने की हिम्मत न जुटा पा रही थी,और अपने माँ बाबूजी या फ़िर कुछ भी हो रमेश के साथ घर गृहस्थ की पटरी पर आगे कदम बढ़ा चुकी थी,तो सुनीता को ही अपना पत्नी धर्म निभाना चहिये था,क्यों वो एक के बाद एक करके रमेश में ही कमियाँ ढूँढ़ रही थी, क्यों न समझ पा रही थी,कि ठीक है,रमेश ही जीवनसाथी के रुप में। सम्पूर्ण व्यक्तित्व किसी का भी नहीं होता है, कमियाँ हज़ार सभी में होती हैं,दो लोग जब एक नया जीवन शुरू करते हैं, तो एक दूसरे की ख़ामियों को नज़र अंदाज़ कर और खूबियों को उभार कर ही दाम्पत्य जीवन की शुरुआत होती है।

क्या सुनीता में कमियाँ न थीं.. थीं बिल्कुल थीं पर इस वक्त सुनीता के दिमाग में केवल रमेश ही घूम रहा था,पता नहीं क्यों सुनीता अपने आप को पूरी तरह से न समझते हुए केवल एकतरफा कमियों की ही लिस्ट बनाये बैठी थी। ब्याह के बाद लड़कियाँ तो लड़कों की पूरी प्रोफाइल पिक्चर ही बदल कर रख देतीं हैं,फ़िर सुनीता क्यों नहीं मेहनत करना चाहती थी,अपने जीवनसाथी रमेश को अपने अनुरूप बनाने के लिये.. क्योंकि सुनीता के मन के किसी कोने में रमेश सुनीता को भाया ही नहीं था, नहीं दे पा रही थी वो चाहते हुए रमेश को अपने दिल के किसी भी कोने में जगह। हालाँकि मुकेश जी ने सुनीता को प्यार से समझाया भी था,”जितना ईश्वर ने तुम्हें दिया है,हर किसी को नहीं देता,दोनों हाथों से समेट कर सँभाल लो”। पिताजी की सारी बातें सही लग रहीं थीं, सुनीता को पर न जाने वो ऐसी कौन सी बात थी,रमेश के अन्दर जो सुनीता को अपने आप को पूरी तरह से समर्पित करने से हर बार रोक देती थी,कह भी न पाती थी सुनीता।


खैर!पूरे सामान सहित एक बार फ़िर मुकेशजी और सुनील जी सुनीता और रमेश को रेल में बिठा कर आ गए थे,इंदौर के लिए।

इस बार गाड़ी चलते ही रमेश ने सुनीता से कहा था,”कुछ भी हो तुम उस बिल्ली से बात नहीं करोगी”। “बिल्ली”सुनीता का माथा ठनका था, और पूछ बैठी थी,”बिल्ली,कौन?”रमेश ने जवाब दिया था,”रमा”। रमेश का सीधा-सीधा इशारा विनीत की धर्मपत्नी रमा की तरफ था। रमेश ने सुनीता से कहा था,”एक नम्बर की चुड़ैल है,ये बिल्ली इससे बात करने की बिल्कुल भी ज़रूरत नहीं है,दिमाग़ ख़राब कर देगी और मेरे ख़िलाफ़ भी भड़कएगी”। सुनीता का माथा अब एक बार फ़िर से ट्रेन में ही ठनका था, सोच में पड़ गई थी,”पता नहीं अब कौन सा नया नाटक है,रमेश की माँ तो एकदम ठीक-ठाक रहती है,उस रमा के साथ,और हमेशा ही हँस के बाते भी करते देखा है,फ़िर यह मुझे क्यों रोक रहा है,और ऐसी कौन सी बात है,जो रमा मुझे भड़कएगी”।

हाँ!सुनीता को एक बात ज़रूर याद आयी थी,पहले ग्यारह दिन वाली…रमा ने सुनीता को उदास देख कर पहले ग्यारह दिन में से एक दिन कहा था,”अगर अंकलजी ने मुझसे पूछ लिया होता,तो मैं उन्हें यहाँ से लौट जाने की सलाह देती”। अंकलजी से मतलब रमा का मुकेश जी से था। यह रमा वाली बात सुनीता ने अपने पिताजी को घर जाते ही बता दी थी, जिस पर मुकेशजी ने कहा था,”अगर यही बात है,तो रमा उस घर में पिछले आठ सालों से कैसे टिकी हुई है”। चलो कोई बात नहीं सुनीता ने रमेश की बात का पलट कर कोई भी जवाब नहीं दिया था।


रमेश और सुनीता ढ़ेर सारे सामान सहित अब इंदौर अपने घर पर पहुँच गए थे। सही मायने में अब सुनीता और रमेश के जीवन की अब शुरुआत हुई थी।


रमेश के घर के माहौल एकदम हरियाणे के रीति-रिवाज़ों के हिसाब का था,ससुर साहब यानी के रामलालजी थोड़े पढे लिखे तरीके के थे..इंदौर में ही इंजीनयर के पद से सरकारी नोकरी से रिटायरमेंट लिया था,रामलालजी के बातचीत करने का लहज़ा सुनीता को पसन्द आया था, एकदम अफसरी अंदाज़ में तमीज़ और सलीके से बातचीत किया करते थे।

विनीत जी भी इंजीनयर ही थे,बिलासपुर से सरकारी कॉलेज से इंजिनीरिंग कर पिताजी के बिज़नेस में कार्यरत थे। रमेश का अभी सुनीता को पूरी तरह से पता नहीं चल पाया था। पर फ़िर एक बात सुनीता को अजीब सी लगी थी,”अरे!बिज़नेस परिवार है,और बाबूजी तो सुबह ही आठ बजे फैक्ट्री के लिए निकल जाते हैं, और उसके बाद बड़े भाई साहब चले जाते हैं, पर ये रमेश जी सुबह की आठ बजे की चाय पीने के बाद फ़िर से बिस्तर में दोपहर के बारह बजे तक क्यों सोते रहते हैं”।

रमेश का रोज़ दोपहर के बारह साढ़े बारह बजे ही बिस्तर से उठना होता था। बारह बजे उठने के बाद आराम से तैयार हो कर खाना-वगरैह खाकर यही कोई एक या दो बजे फैक्ट्री की तरफ़ जाना होता था। पर चलो कोई बात नहीं सुनीता के मन ने कहा था,हो सकता है,यहाँ इनके यहाँ ऐसा ही सिस्टम हो । संयुक्त परिवारों में अक्सर अलग ढँग के रीति-रिवाज़ होते हैं।

पर एक बात जो थी, वो बहुत ही ज़्यादा खटक रही थी,सुनीता को..यह कि रमेश अपनी माँ के साथ औरतों की तरह चुगली करने में ही व्यस्त रहता था। अक्सर अपनी भाभी रमा को ले कर और उसे दर्शना देवी जी जे साथ “बिल्ली” कहकर अपना आधे से ज़्यादा वक्त बिता देता था। सुनीता ने रमेश को रमा यानी के “बिल्ली”शब्द के अलावा और किसी काम की बातों की चर्चा करते ही नहीं देखा था।

हाँ!एक बात और जो सुनीता ने नोटिस की थी, वो यह कि हजारों रुपये परफ्यूम लगता था,रमेश और कई-कई हज़ार के तो उसके जूते ही थे,रमेश की माँ दर्शना जी ने गोद भराई के टाइम सुनीता की माँ से कहा भी था,”पच्चीस हज़ार रुपये का खर्चा है,मेरे लड़के का महीने में”। तभी सुनीता को अपनी माँ की एक बात याद आयी थी,”अरे! हाँ, माँ कह तो रहीं थीं कि पच्चीस हज़ार ख़र्चा है,लड़के का तो हमारी लड़की को कितना दोगे”।


रमेश के परिवार में एक बात और थी,कि रमेश की माँ दर्शना जी सुबह से लेकर रसोई का सारा काम करतीं जातीं थीं, साथ में सारे परिवार वालों को अपने हरियाणे में गालियाँ भी देती चलती थीं,यह उनकी गालियों का सिलसिला लगभग पूरे दिन सा ही चलता था,और हैरानी की बात तो यह थी,कि दर्शना देवी को कोई टोकने वाला न था।


हरियाणे की जो महिलाएँ होती हैं, उनके बातचीत का लहज़ा लठ मार ही होता है,इसलिए यहाँ पर दर्शना जी बिल्कुल भी गलत न थीं। दर्शना जी जिस परिवेश की महिला थीं, वहाँ इस तरह से पेश आना आम बात होती है।पर सुनिता के लिए दर्शना जी का यह रूप आम बात न थी,क्योंकि सुनीता एकदम अलग संस्कारी माहौल में पली-बड़ी कन्या थी,और रमेश के परिवार का माहौल एकदम हरियाणे का गँवारू था।

सुनीता के सभी परिवार के लोगों का इस तरह का आचरण देख घबराना स्वाभाविक बात थी,जिसका फ़ायदा रमा यानी के विनीत जी की पत्नी ने उठाया था। विनीत जी की पत्नी रमा भी दर्शनाजी की तरह ही हरियाणे के गँवार माहौल से ही थी, बल्कि गरीब घर की लड़की से ब्याह किया था,विनीत जी ने। रमा गरीब घर की है,इसका अंदाज़ा सुनीता ने रमेश की बातों से ही लगा लिया था..जब रमेश ने सुनीता के आगे कहा था,”बिल्ली को मुहँ मत लगाना भूखे नंगे घर की है”। रमेश का यह भूखा नंगा बोलने ने रमेश को सुनीता की नज़रों में थोड़ा और गिरा दिया था।

जब भी सुनीता थोड़ा सा रमेश के नज़दीक आने की कोशिश करती,रमेश कोई न कोई ऐसा डायलॉग ज़रूर बोल दिया करता,कि सुनीता के कदम अपने आप ही पीछे हट जाते थे।


रमेश के परिवार में पैसे की कोई भी कमी न थी,लेकिन परिवार रईस है,ऐसा परिवार में बैठकर, रहकर या फ़िर परिवार के तौर तरीकों से न लगता था। सम्पति का किसी भी तरह का कोई भी बटवारा या फ़िर फैक्ट्री में ही काम को लेकर आमदनी की कोई भी किसी भी तरह की हिस्सेदारी थी ही नहीं,सारा का सारा मुनाफा जो भी करोबार में हो रहा था,उसके सीधे-सीधे हिस्सेदार केवल रामलाल जी ही थे। सारा पैसा रामलाल जी के ही अकॉउंट में जा रहा था।

चलो रमेश का तो अभी-अभी ब्याह हुआ था,पर विनीत जी की उस कारोबार में क्या,कैसे और कहाँ कमाई थी,कुछ समझ न आ रहा था। खैर!सुनीता ने अभी आमदनी वाले हिस्से पर गौर किया ही न था, उसका दिमाग रमेश के वयवहार को लेकर चिंतित था।

रमेश सुनीता के हिसाब से महँगे कपड़े लत्ते और हज़ारों रुपये के जूते पहने हुए एक गँवार इंसान से ज़्यादा कुछ भी न था। सुनीता के हिसाब से वो फँस गयी थी,पर किससे कहती…हर इंसान का सुनीता को रमेश को लेकर समझाने का तरीका बेहद अलग था। पर उसकी खुद की सोच क्या थी,क्यों अजीब सी कशमकश में फँस रही थी, यह बात वो रमेश को लेकर खुद भी तय नहीं कर पा रही थी। एक तरफ पिताजी की इज़्ज़त थी.. सुनीता के लिए और दूसरी तरफ़ माँ की सीख…”कुछ भी ही घर बसा कर दिखाओ,पति परमेश्वर होता है”। चारों तरफ से अच्छी-अच्छी बातों से घिरी सुनीता ने अब अपने आप को कहीं खोकर रमेश के साथ ही घर बसाने के लिए तैयार कर लिया था। पर हाँ!अभी भी सुनीता का दिमाग़ रामलाल जी की संपत्ति पर नहीं था, सुनीता के दिमाग़ से यह बात कोसों दूर थी, कि ससुरजी का बैंक अकॉउंट कितने लाखों का है।


रामलाल जी के परिवार में ड्रामे का मुख्य कारण उनकी संपत्ति ही था,जिस में मुख्य भूमिका निभा रहीं थीं.. दर्शनाजी और विनीत ,रमा। सुनीता का इस तरह से रमेश को लेकर मायूस रहना और पारिवारिक दाव पेचों को न समझना ही रमा और दर्शनाजी जी का विजयी होने का पहला संकेत था।